प्रस्तुत है जनसत्ता के स्तंभ चिट्ठाचर्चा में इस सप्ताह का लेख। छवि के नीचे लेख का अविकल पाठ है-
साझे ब्लॉगों का दौर
-विजेंद्र सिंह चौहान
ब्लॉगिंग का एक पारिभाषिक शब्द है 'ट्राल', ट्रॉल वह व्यक्ति है जो किसी ऑनलाइन समुदाय में संवेदनशील विषयों पर जान-बूझकर अपमानजनक या भड़काऊ संदेश लिखता/ती है, इस उद्देश्य से कि कोई उस पर प्रतिक्रिया करेगा/गी. ऐसी भड़काऊ प्रविष्टियों को भी ट्रॉल कहा जाता है । ये भी कहा जाता है कि यदि आप ट्राल को भाव देंगे तो उसका भला ही होगा। ट्राल का इलाज है कि उसे भाव न दें, उसकी उपेक्षा करें। लेकिन हर ट्राल की उपेक्षा इतनी सरल नहीं। खासकर अगर ये ट्राल खुद राजेंद्र यादव जैसे वरिष्ठ आलोचक हों। हिन्दी ब्लॉगिंग की लंबे समय तक उपेक्षा करने के बाद इस सप्ताह राजेंद्र यादवजी ने हिन्दयुग्म (हिन्दयुग्म डॉट कॉम) के वार्षिकोत्सव में मुख्य अतिथि होना स्वीकार किया और तीन ट्रालमयी टिप्पणियॉं कीं। पहली तो उन्होंने कहा कि वे हिन्दी ब्लॉगों का स्वागत करते हैं क्योंकि इससे प्रकाशन के अयोग्य रचनाओं के लेखक हंस जैसी पत्रिकाओं के संपादक के कान खाना बंद करेंगे अब इस कूड़े को वे खुद अपने ब्लॉग पर छाप लेंगे। दूसरा जुमला राजेंद्रजी ने जोश मलीहाबादी के मुहावरे में कहा कि वे खुद भी जीवन के इन आखिरी सोपानों में इंटरनेट- ब्लॉगिंग आदि तामझाम को सीख लेना चाहते हैं क्योंकि आखिर दोज़ख की ज़ुबान भी तो यही होगी न। तीसरा ट्राल उन्होंने इंटरनेटी ब्लॉगवीरों को नसीहत देते हुए कहा कि तकनीक नई सदी की और विचार सोलहवीं सदी के, नहीं चलेगा...नहीं चलेगा। हिन्दी को आधुनिक बनाओ तथा मध्यकाल तक की हिन्दी के साहित्य को अजायबघर भेज दो।
ज़ाहिर है ये टिप्पणी एक उत्तेजक ट्राल थी, कम मंझे हुए ब्लॉगर इस जाल में फंस गए और क्रिया प्रतिक्रिया का दौर शुरू हुआ। पहले हिन्दयुग्म पर, फिर शोभा महेन्द्रु के ब्लॉग पर (रितबंसल डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम) और आखिरकार मोहल्ला पर (मोहल्ला डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम) पर इन कथनों के पक्ष विपक्ष में बातें कही सुनी गईं...पुराण अभी चालू आहे।
पीछे मुड़कर देखें कि बीते साल में ब्लॉग की दुनिया में क्या खास हुआ तो हमें कई प्रवृत्तियॉं दिखाई पड़ती हैं मसलन चिट्ठों की संख्या में विस्फोटक वृद्धि, हिन्दी सर्च में आया उफान, गूगल का लिप्यंतरण औजार जारी करना, ब्लॉगवाणी की लोकप्रियता, नारद का लुप्तप्राय: हो जाना आदि किंतु जिस बात पर सबसे पहले नजर जाती है वह है -सामुदायिक ब्लॉगों का बोलबाला। सामुदायिक या कम्युनिटी ब्लॉग के मायने हैं वे ब्लॉग जो एक ब्लॉगर द्वारा नहीं लिखे जाते वरन वैचारिक या उद्देश्य की समानता के चलते कई ब्लॉगर मिलकर एक ब्लॉग पर लिखते हैं इससे संख्याबल तथा प्रभाव में इजाफ़ा होता है। ऐसा नहीं है कि हिन्दी में सामुदायिक ब्लॉग पहले नहीं थे अक्षरग्राम (अक्षरग्राम डॉट कॉम) तथा चिट्ठाचर्चा (चिट्ठाचर्चा डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम) हिन्दी के दो शुरूआती ब्लॉग हैं तथा दोनों शुरू से ही सामुदायिक ब्लॉग रहे हैं। इस साल में खास ये हुआ कि सामुदायिक ब्लॉगों ने ब्लॉगजगत की अधिकाधिक जमीन अपने नाम करने का बीड़ा उठाया। पैंतालीस ब्लॉगरों के साथ अविनाश की अगुवाई में मोहल्ला इसमें आगे रहा है। मोहल्ला संपादन में विश्वास रखता है इसलिए सामग्री में ब्लॉगपन कम पत्रिकापन अधिक दीखता है। यही वजह है कि अपने ब्लॉगर रूप के लिए अधिकांश मोहल्ला सदस्य कबाड़खाना (कबाड़खाना डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम) नाम के सामुदायिक ब्लॉग के सदस्य हैं इसमें पैंतीस ब्लॉगर 'श्रेष्ठ कबाड़ी' के रूप में दर्ज हैं। इस ब्लॉग का संचालन हलद्वानी से अशोक पांडे करते हैं।
स्त्री-विमर्श के सवाल पर एकजुट हुए ब्लॉगर सामुदायिक ब्लॉग चोखेरबाली (सैंड ऑफ दि आई डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम) में लिखते हैं। सुजाता इस ब्लॉग की मॉडरेटर हैं तथा राजकिशोर, प्रत्यक्षा, अनुराधा, अजीत वडनेरकर आदि जानेमाने नामों सहित कुल तैंतीस ब्लॉगर इसके सदस्य हैं। इसी मुद्दे पर नारी नामक ब्लॉग (इंडियन वूमेन हैज अराइव्ड डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम) का संचालन रचना करती हैं इसमें केवल महिला ब्लॉगर सदस्य हैं जिनकी संख्या तेईस है।
इन सामुदायिक ब्लॉगों के अतिरिक्त सस्ताशेर (राम रोटी आलू डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम), रिजेक्टमाल (रिजेक्टमाल डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम), हिन्दयुग्म, दाल रोटी चावल (दाल रोटी चावल डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम) आदि कुछ अन्य ब्लॉग भी गौरतलब कहे जा सकते हैं। वैसे यदि सबसे बड़े सामुदायिक ब्लॉग की बात करें तो पॉंच सो चालीस सदस्यों के साथ अराजकतावादी ब्लॉग भड़ास (भड़ास डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम) ही आगे हैं लेकिन यहॉं सदस्य उद्देश्य की एकता की वजह से नहीं वरन अराजकवृत्ति के कारण साथ हैं। कुल मिलाकर सामुदायिक ब्लॉगों की प्रवृत्ति ने हिन्दी ब्लॉगजगत को निजी अभिव्यक्ति के माध्यम की जगह पर एक सोशल नेटवर्क में बदल दिया है तथा यही अब हिन्दी ब्लॉगजगत की वह ताकत है तो आफलाइन दुनिया तक से ट्रालों को आकर्षित कर रही है। यह भी अहम है कि बहुत से ब्लॉगर अब निजी ब्लॉग लिखने के साथ साथ अधिकाधिक सामुदायिक ब्लॉगों का सदस्य बनने पर भी जोर देते हैं ताकि न केवल ज्यादा से ज्यादा पाठक मिल सकें वरन लिंक-प्रतिलिंक भी ज्यादा हों ताकि ब्लॉग का पेजरैंक सुधरे।
24 comments:
कई प्रवृत्तियॉं दिखाई पड़ती हैं मसलन चिट्ठों की संख्या में विस्फोटक वृद्धि, हिन्दी सर्च में आया उफान, गूगल का लिप्यंतरण औजार जारी करना, ब्लॉगवाणी की लोकप्रियता, नारद का लुप्तप्राय: हो जाना आदि
नारद बाकायदा दिखता है। बल्कि छपी हुई पोस्टें दिखाता है। अगर देखने वाले इसे देखें न और कहें कि लुप्त हो गया तो उनकी समझ का फ़ेर है।’लोकप्रिय न होने’ और ’न दिखने’ में अंतर होता है।
मेरे ख्याल में लेखक को अखबार में लिखते हुये थोड़ा जिम्मेदारी से शब्दों का इस्तेमाल करना चाहिये खासकर तब लिखने वाला हिंदी का प्राध्यापक भी हो।
हम अनूप शुक्ला जी से सहमत हैं. आपके इस पोस्ट पर "नारद" से ही आए हैं. जानकारी के लिए आभार.
"आदि जानेमाने नामों सहित"
जाने माने की परिभाषा क्या हैं .
ब्लॉग सक्रियता
यानी क्या आप प्रतिदिन एक पोस्ट अपने किसी ब्लॉग पर दे रहे हैं , या आप प्रतिदिन कितने ब्लॉग पढ़ कर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं
या ब्लोगिंग मे पहले आना
जिस दिन आप ने पहला हिन्दी ब्लॉग बनाया उसके हिसाब से आप सीनेयर या जूनियर बने !!!!!!
या जिस कम्युनिटी ब्लॉग के आप सदस्य हैं उस पर आप ने कितनी टिपण्णी या पोस्ट लिखी
या
आप पहले से प्रिंट मीडियम मे विख्यात हैं इस लिये आप ब्लॉग जगत मे भी "जाने माने" स्वतः ही बन गए
काफी विस्तृत आलेख है. पढ़वाने के लिए आभार.
पढ़वाने के लिए आभार.
sndar lekh...
@ अनूपजी, लुप्त के साथ प्राय लगा ही है जो अस्तित्ववान होने की स्वीकारोक्ति ही है। लिखे की पूरी जिम्मेदारी लेते हैं, इतना भी तय है कि है यह है हमारी राय भर ही।
एग्रीगेटर युद्ध अब अतीत की बात हो चुकी है। नारद याद आता है, अच्छे दिन थे लेकिन अब वो उस केंद्रीय भूमिका में नहीं है।
@ रचनाजी जैसा कि पढ़ा जा सकता है लेख प्रिंट के लिए है और उसके पाठकों के लिए 'जाने-माने' नामों को ही जाने माने कहा गया है
मसिजीवी,
अपने लिखे को सही बताने के लिये आपका तर्क अच्छा है लेकिन मुझे लगता है कि नारद के लिये लुप्तप्राय लिखना गलत शब्द प्रयोग है। जो एग्रीगेटर हर समय पोस्टें दिखाता हो उसे लुप्तप्राय कहना कहीं से सही नहीं है। आप देखते न हों वो बात अलग है। किसी चीज को आप जानबूझकर , अपनी पसंद के अनुसार , न देखें और उसको फ़िर लुप्तप्राय कहें यह सही नहीं है।
बाकी आपकी मर्जी!
बाकी जहां तक केंद्रीय भूमिका की बात है तो इसपर निर्भर करता है कि आप केन्द्र किसको मानते हैं। जैसे मैं नयी पोस्टों और तमाम दूसरी जानकारियों के लिये ब्लागवाणी न देखकर चिट्ठाजगत को देखता हूं। अब केवल इसके साधार पर मैं कहूं कि चिट्ठाजगत सबसे अच्छा, लोकप्रिय संकलक है तो यह मेरा बचकानापन और पूर्वाग्रह्ग्रस्त होना होगा।
'जैसा कि पढ़ा जा सकता है लेख प्रिंट के लिए है और उसके पाठकों के लिए 'जाने-माने' नामों को ही जाने माने कहा गया है"
इसका मतलब ये हुआ की अगर किसी भी जगह प्रिंट मीडिया मे आप / हम ब्लॉग के ऊपर लिखेगे तो केवल उनको ही ब्लॉगर मानेगे जो पहले से प्रिंट मीडिया मे चर्चित् हैं .
फिर तो ये पुरा आलेख ही ग़लत हैं क्युकी फिर आलेख साझा ब्लॉग पर नहीं अपितु उन लोगो पर हुआ जो प्रिंट मीडिया मे छपते रहे हैं और अब ब्लॉग लेखन मे हैं .
ब्लॉगर को आप प्रमुखता ना देकर साहित्यकार और पत्रकार को प्रमुखता दे रहे हैं जबकि लिख आप ब्लॉग और उससे जुडी विधा पर हैं
जी रचनाजी आप सही कह रही हैं मैं अक्सर गलत सलत लिखता रहता हूँ। :))
वैसे ब्लॉगर तथा 'प्रतिष्ठित' लेखकों के मामले में मेरी पक्षधरता पहले पैराग्राफ में दिख जाती है जहॉं राजेंद्र यादव को ट्राल माना गया है।
विस्तृत आलेख है. पढ़वाने के लिए आभार.
अरे वाह तो आज यहाँ हैं सब लोग हम ढूँढते फिर रहे हैं . कहाँ गए ? कहाँ गए ? :)
महाशक्ति जैसे सामुदायिक ब्लोग को आपने नहीं पहचाना...बङा आश्चर्य हुआ...और नारद अभी भी अपनी जगह जमा हुआ है...क्रिपा करके प्रिंट मीडिया मैं लिखते समय पूर्वाग्रह मुक्त होकर लिखा करें...पर खैर अखबार मैं लिखते समय इन सब से मुक्त हुआ भी नहीं जाता...
विवेक भाई की टिप्पणी के लिए 100 नंबर..
रचना जी और अनूप जी की टिप्पणी को हमारी टिप्पणी समझा जावे..
मिहिरभोज भाई… "महाशक्ति" शायद साम्प्रदायिक(?) समझा गया है इसलिये नहीं लिया गया होगा… :) :) लेकिन "रेडियोनामा" का भी जिक्र नहीं है यह भी आश्चर्यजनक है…
सभी ने अपनी अपनी कह ली -
यह अच्छा हुआ -
सच बात तो ये है कि हिन्दी ब्लोग जगत अब इतना विस्तृत हो गया है कि समेटे नहीँ सिमटता
कोई भी क्षेत्र लो या विधा -
चिठ्ठा चर्चा मेँ जितना समेटा जाता है वह भी, बहुत उर्जा का काम है
- लावण्या
आज हम कुछ ना कहेंगे.. मुझे पता है कि पिछली बार आप बुरा मान गए थे.. :)
विवेकसिंह की चिट्ठाचर्चा पढ़ कर इधर आ ज़रूर गए, पर बिना कुछ कहे जा रहे हैं :))
मेरठ में हो रहा है हिन्दी ब्लागिंग पर भव्य सेमिनार
इस तरह के ब्लॉग की तलाश थी | पढ़कर काफी खुशी हुई | खुली चौपाल के लिए धन्यवाद |
फिल्मी कलाकार , साहित्यकार, पत्रकार या मीडिया में प्रचारित लोगों को ब्लॉग्गिंग में अपनी पृष्ठभूमि की वजह से अपने आप प्रचार मिल जाता है, जबकि गुमनामी से सीधे ब्लॉग्गिंग में आने वाले को अपने आप को साबित करना पड़ता है | यह भी देखा गया है की साहित्यकार या फिल्मकार वगैरह ब्लॉग्गिंग में भी अपने व्यवसाय का प्रचार करते ही नजर आते हैं |
प्रिंट मीडिया के लोग ब्लोग्गरों के प्रति पक्षपातपूर्ण हैं | यह सही है |
यहाँ अहमन्यता की प्रॉब्लम है | घूम फ़िरकर वहीँ पहुच जाते हैं कि "ब्राह्मण चाहे मूर्ख ही हो आदरणीय है" |अस्तु|
वैचारिक झुकावों के बावजूद , हमें वस्तुपरक होने की पूरी कोशिश करनी चाहिए |
सिर्फ़ सीधे-सीधे प्रमेय (Theorem) देने की अपेक्षा साथ में उनकी निष्पत्ति (derivation ) भी देना जरूरी है |
i am kartikey mishra and i can help to adhyatmik and bhaotic jivan.
Manushya ka janma to sahaj hai parantu manushyata use kathin parishram se prapt karni padti hai.
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