Thursday, December 27, 2007

2008 में कैसी होगी ब्लॉगकारिता - दिलीप मंडल

 

यह लेख मूलत: दिलीपजी के चिट्ठे पर है, महत्‍वपूर्ण जान पुन: सामने रखा जा रहा है। 

एक रोमांचक-एक्शनपैक्ड साल का इंतजार है। हिंदी ब्लॉग नाम का शिशु अगले साल तक घुटनों के बल चलने लगेगा। अगले साल जब हम बीते साल में ब्लॉगकारिता का लेखा जोखा लेने बैठें, तो तस्वीर कुछ ऐसी हो। आप इसमें अपनी ओर से जोड़ने-घटाने के लिए स्वतंत्र हैं।

हिन्दी ब्लॉग्स की संख्या कम से कम 10,000 हो

अभी ये लक्ष्य मुश्किल दिख सकता है। लेकिन टेक्नॉलॉजी जब आसान होती है तो उसे अपनाने वाले दिन दोगुना रात चौगुना बढ़ते हैं। मोबाइल फोन को देखिए। एफएम को देखिए। हिंदी ब्लॉगिंग फोंट की तकनीकी दिक्कतों से आजाद हो चुकी है। लेकिन इसकी खबर अभी दुनिया को नहीं हुई है। उसके बाद ब्लॉगिंग के क्षेत्र में एक बाढ़ आने वाली है।

हिंदी ब्ल़ॉग के पाठकों की संख्या लाखों में हो

जब तक ब्लॉग के लेखक ही ब्लॉग के पाठक बने रहेंगे, तब तक ये माध्यम विकसित नहीं हो पाएगा। इसलिए जरूरत इस बात की है कि ब्लॉग उपयोगी हों, सनसनीखेज हों, रोचक हों, थॉट प्रोवोकिंग हों। इसका सिलसिला शुरू हो गया है। लेकिन इंग्लिश और दूसरी कई भाषाओं के स्तर तक पहुंचने के लए हमें काफी लंबा सफर तय करना है। समय कम है, इसलिए तेज चलना होगा।

विषय और मुद्दा आधारित ब्लॉगकारिता पैर जमाए

ब्लॉग तक पहुंचने के लिए एग्रीगेटर का रास्ता शुरुआती कदम के तौर पर जरूरी है। लेकिन विकास के दूसरे चरण में हर ब्लॉग को अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता बनानी होगी। यानी ऐसे पाठक बनाने होंगे, जो खास तरह के माल के लिए खास ब्लॉग तक पहुंचे। शास्त्री जे सी फिलिप इस बारे में लगातार काम की बातें बता रहे हैं। उन्हें गौर से पढ़ने की जरूरत है।

ब्लॉगर्स के बीच खूब असहमति हो और खूब झगड़ा हो

सहमति आम तौर पर एक अश्लील शब्द है। इसका ब्लॉग में जितना निषेध हो सके उतना बेहतर। चापलूसी हिंदी साहित्य के खून में समाई हुई है। ब्लॉग को इससे बचना ही होगा। वरना 500 प्रिंट ऑर्डर जैसे दुश्चक्र में हम फंस जाएंगे।

टिप्पणी के नाम पर चारण राग बंद हो

तुम मेरे ब्लॉग पर टिप्पणी करते हो, बदले में मैं तुम्हारे ब्लॉग पर टिप्पणी करता हूं - इस टाइप का भांडपना और चारणपंथी बंद होनी चाहिए। महीने में कुछ सौ टिप्पणियों से किसी ब्लॉग का कोई भला नहीं होना है, ये बात कुछ मूढ़मगज लोगों को समझ में नहीं आती। आप मतलब का लिखिए या मतलब का माल परोसिए। बाकी ईश्वर, यानी पाठकों पर छोड़ दीजिए। ब्लॉग टिप्पणियों में साधुवाद युग का अंत हो।

ब्ल़ॉग के लोकतंत्र में माफिया राज की आशंका का अंत हो

लोकतांत्रिक होना ब्लॉग का स्वभाव है और उसकी ताकत भी। कुछ ब्लॉगर्स के गिरोह इसे अपनी मर्जी से चलाने की कोशिश करेंगे तो ये अपनी ऊर्जा खो देगा। वैसे तो ये मुमकिन भी नहीं है। कल को एक स्कूल का बच्चा भी अपने ब्लॉग पर सबसे अच्छा माल बेचकर पुराने बरगदों को उखाड़ सकता है। ब्लॉग में गैंग न बनें और गैंगवार न हो, ये स्वस्थ ब्लॉगकारिता के लिए जरूरी है।

ब्लॉगर्स मीट का सिलसिला बंद हो

ये निहायत लिजलिजी बात है। शहरी जीवन में अकेलेपन और अपने निरर्थक होने के एहसास को तोड़ने के दूसरे तरीके निकाले जाएं। ब्लॉग एक वर्चुअल मीडियम है। इसमें रियल के घालमेल से कैसे घपले हो रहे हैं, वो हम देख रहे हैं। समान रुचि वाले ब्लॉगर्स नेट से बाहर रियल दुनिया में एक दूसरे के संपर्क में रहें तो किसी को एतराज क्यों होना चाहिए। लेकिन ब्लॉगर्स होना अपने आप में सहमति या समानता का कोई बिंदु नहीं है। ब्लॉगर हैं, इसलिए मिलन करेंगे, ये चलने वाला भी नहीं है। आम तौर पर माइक्रोमाइनॉरिटी असुरक्षा बोध से ऐसे मिलन करती है। ब्लॉगर्स को इसकी जरूरत क्यों होनी चाहिए?

नेट सर्फिंग सस्ती हो और 10,000 रु में मिले लैपटॉप और एलसीडी मॉनिटर की कीमत हो 3000 रु

ये आने वाले साल में हो सकता है। साथ ही मोबाइल के जरिए सर्फिंग का रेट भी गिर सकता है। ऐसा होना देश में इंटरनेट के विकास के लिए जरूरी है। डेस्कटॉप और लैपटॉप के रेट कम होने चाहिए। रुपए की मजबूती का नुकसान हम रोजगार में कमी के रूप में उठा रहे हैं लेकिन रुपए की मजबूती से इंपोर्टेड माल जितना सस्ता होना चाहिए, उतना हुआ नहीं है। अगले साल तक हालात बदलने चाहिए।

नया साल मंगलमय हो!
देश को जल्लादों का उल्लासमंच बनाने में जुटे सभी लोगों का नाश हो!
हैपी ब्लॉगिंग!
-दिलीप मंडल

Monday, December 17, 2007

क्‍या हिन्‍दी चिट्ठाकारी थ्‍योरिटिकल इनएडिकुएसी से ग्रस्‍त है

हिन्‍दी की चिट्ठाकारी पर हिन्‍दी की दुनिया (यानि खांटी हिन्‍दी वाले....लेखक, प्राध्‍यापक, आलोचक, चकचक आदि) की प्रतिक्रियाएं सुनने का जितना अवसर हमें मिलता उतना अन्‍य चिट्ठाकारों को शायद नहीं वजह बस इतनी हे कि इस कोटि के लोगों को हम सहज उपलब्‍ध हैं, बस हाथभर की दूरी पर। इसलिए विश्‍वास से कह सकते हैं कि हाल में गैर चिट्ठाकार हिंदीबाजों में चिट्ठाकारी को लेकर बेचैनी बढ़ी है। कवर स्‍टोरियों और हर मंच से हो रही बातों ने उन्‍हें विश्‍वास दिला दिया है कि अब नजरअंदाज भर करने से काम नहीं चलेगा। चिट्ठाकारी को जानना पड़ेगा और उखाड़ना पड़ेगा। नीलिमा के हालिया काम के बाद एक के बाद कई अखबारी लोगों ने हिन्‍दी चिट्ठाकारी का लेकर सवाल जबाव किए हैं जो या तो छप रहे हैं या छप चुके हैं। इस सब के मायने क्‍या हैं ? पहले तो खुश होने आदि की रस्‍म निबाही जा सकती है कि लो देखो हम तो कह ही रहे थे कि ऐसा होगा वगैरह वगैरह। पर कुछ सवाल भी खड़े होते हैं, ये हैं तैयारी के। हम कितने तैयार हैं। 1370 चिट्ठे, 40000 पोस्‍टों के बाद हिन्‍दी चिट्ठाकारी कितनी तैयार हो पाई है।




हम पाते हैं कि अपने बिंदासपन के लिहाज से और विविधता के लिहाज से चिट्ठाकारी अपनी गति से चल रही है और बिंदास चल रही है तथा यही वह शक्ति है जो गैर चिट्ठाकारों को आकर्षित कर रही है। एक अन्‍य पक्ष तकनीक का है तथा सहज ही कहा जा सकता है कि पठ्य,पॉडकास्‍ट, वॉडकास्‍ट आदि के कारण यहॉं भी चिट्ठाकारी ने संतोषजनक काम किया है। गैर तकनीकी लोग भी जब कुछ तकनीकी काम कर रहे हैं तो सहजता से इसे अन्‍य लोगों से बॉंट रहे हैं। इसलिए हम पाते हैं कि अब हिन्‍दी चिट्ठाकारी पर ये सवाल नहीं लगाए जा रहे हैं कि चिट्ठों को गिनती के लोग पढ़ते हैं (क्‍योंकि हिन्‍दी साहित्यिक पत्रिकाओं की दयनीय हालत के चलते सच तो यह है कि कई चिट्ठाकार शायद अभी से बहुत से प्रिंट लेखकों से ज्‍यादा पढे जा रहे हैं) न ही विषयगत विविधता ही कम है। हॉं आलोचकीय तेवर के लोग कभी कभी गुणात्‍मकता का सवाल जरूर उठा पाते हैं। पर ये उनके सबसे दमदार सवाल नहीं हैं।




उनके सबसे दमदार सवाल जो उठने शुरू हुए हैं और जिनपर चिट्ठों में उतना विचार नहीं हुआ है।वे आलोचकीय विवेक से उपजे सैद्धांतिकी के सवाल हैं। खुद लिंकित मन में भी एंप्‍रिकल दृष्टि से चिट्ठों पर विचार अधिक किया गया है जबकि हिन्‍दी चिट्ठाकारी पर थ्‍योरिटिकल मनन कम हुआ है, जो हुआ है वह इधर उधर बिखरा है, आर्काइवों में दब गया है। यह वह मंच है जहॉं हम कुछ बेहद सामर्थ्‍यवान चिट्ठाकारों के होते हुए भी कम ध्‍यान दे पा रहे हैं। मसलन हिन्‍दी चिट्ठाकारी की 'थ्‍योरिटिकल इनएडिकुएसी' से निजात दिलाने में शास्‍त्रीजी, ज्ञानदत्‍तजी, अभय, देबाशीष, अनिल, अनामदास, राजीव, उन्‍मुक्‍त जैसे चिट्ठाकार भूमिका अदा कर सकते हैं (नीलिमा का नाम नहीं गिनाया पर उनके पास तो इस 'जिम्‍मेदारी' से बचने का कोई उपाय है ही नहीं, कई अन्‍य सामर्थ्‍यवानों के नाम भी छूट गए हैं) मुझे लगता है कि हाल के ब्‍लॉगिंग चिंतन पर बाजार का दबाब यानि हिट, लिंक, ब्रांड कंसोलिडेशन, एग्रीगेटर, टिप्‍पणी आदि का दबाब कुछ बढ़ गया है तथा इसने सैद्धांतिकी की गुजांइश कुछ कम की है। थ्‍योरिटिकल इनएडिकुएसी की थ्‍योरिटिकल वजह ये जान पड़ती है कि हिंदी चिट्ठाकार आमतौर पर ये मानते हैं कि ये व्‍यक्तिगत उछाह को कहने का जरिया भर है...मतलब इस माध्‍यम को सैद्धांतिकी की जरूरत नहीं है- (किंतु सच यह है कि अंग्रेजी तथा अन्‍य भाषाओं में ब्‍लॉगिंग को लेकर सिद्धांत गठन को महत्‍व दिया जाता रहा है)




अंत में वे कुछ सवाल जो यहॉं या वहॉं उठाए गए तथा हमें ब्‍लॉग सैद्धांतिकी के सवाल जान पड़ते हैं, ये सभी अनुत्‍तरित सवाल नहीं है किंतु इनके अभिलेखित उत्‍तर अपेक्षित हैं-


ब्‍लॉग स्‍वयं में माध्‍यम न होकर उपमाध्‍यम भर है- यह अंतरजालीय सैद्धांतिकी के मातहत संरचना है इसलिए इसकी 'स्‍वतंत्रता' एक दिखावा भर है।


पुस्‍तक व छापेखाने की ही तरह यह इतिहास का दोहराव भर है जो हाईपर टेक्‍स्‍ट की हेज़ेमनी को वैसे ही खड़ी कर रही है जैसी कभी मुद्रित शब्द ने खड़ी की थी।


असिमता के सवाल को ब्‍लॉगिंग बार बार दोहराती हे बिना इस अंतर्विरोध को सुलझाए कि अगर यह पहचान की कमी के मारों का जमावड़ा ही हे तो कैसे पहचान से जुड़े सत्‍ता संरचना (राजनीति) से मुक्‍त होने का दावा करने की सोच भी सकता है।


डिजीटल डिवाइड को अगले स्‍तर तक ले जाती ह हिन्‍दी ब्‍लॉगिगं


प्रतिरोध के स्थान पर समर्पण का विमर्श है हिन्दी चिट्ठाकारी।


ऐसे ही कुछ और भी सवाल हैं, मुठभेड़ के लिए तैयार।






Wednesday, December 12, 2007

अब मेरे लिंकित मन का क्या होगा ?

अपनी पिछ्ली पोस्ट में मैंने जब अपने शोध की अवधि के समाप्त होने की घोषणा करते हुए शोध के नतीजों का नमूना पेश किया तो बहुत सी बधाइयां और सराहना मिली  ! पर आलोक जी ने बधाई देते देते एक बहुत ही वाजिब शंका हवा मॆं उछाल दी कि अब लिंकित मन का क्या होगा ? जब मैंने यह काम शुरू किया था मुझे जरा भी आभास नहीं था कि यह काम इतना रोचक होगा और न ही यह पता था इस काम को करने के दौरान मेरा खुद का मन कितना लिंकित होगा ! आज मेरे शोध की अवधि खत्म हो गई है पर शोध की यह प्रकिया जारी रहने वाली है !आलोक जी, ब्लॉगों पर शोधपरक विचारों की इस खुली चौपाल ' लिंकित मन'  पर हिंदी ब्लॉग के विकास का इतिहास दर्ज होता रहेगा ! हिंदी ब्लागिंग पर शोध का यह काम सराय के सौजन्य से बहुत सही समय पर शुरू हुआ है ! इस काम की स्तरीयता का अनुमान तो भविष्य में ही हो पाएगा पर हिंदी चिट्ठाकारिता के इतिहास का दस्तावेजीकरण की प्रक्रिया जारी रहनी भी बहुत अहम है ! अब तक लिंकित मन पर मैंने यथासंभव शोधपरक ईमानदारी को निभाया है ! आगे भी इस पहल को जारी रखा जाएगा ! लेकिन अब लिंकित मन मेरा निजी चिट्ठा न होकर एक सामूहिक प्रयास से हिंदी ब्लॉगित जाति के मन को लिंकित करने की एक कोशिश के रूप में सामने आएगा ! मैंने प्रारंभ से ही इस ब्लॉग को "हिंदी ब्लॉगों से संबंधित शोधपरक विचारों की एक खुली चौपाल " कहा है ! लिंकित मन पर लिखित चिट्ठों पर आईं टिप्पणियों के जरिए मुझे शोध की दिशा व उसके स्वरूप के बारे मॆं आप सबकी राय मिलती रही है और इस तरह यह शोध एकालाप और निष्क्रिय वैचारिक प्रलाप न होकर जीवंत और समसामयिक बना रहा !अब लिंकित मन का क्या होगा ?जैसा सवाल मेरे मन में अब तक नहीं उठा था क्योंकि इस काम से जुडाव- लगाव की स्थिति रही है और शुरू से ही यह काम  एक जारी रहने वले चिट्ठे के बतौर शुरू किया गया था ! वरना मैं शोध के लिए कोई और दबा छिपा परंपरागत तरीका भी अपना सकती थी ! शोध की औपचारिकताएं मात्र निभाई गईं हैं शोध तो लगातार जारी है आज भी ! 

मेरे द्वारा हिंदी चिटठाकारी के स्वरूप और विकास को समझने का प्रयास अब तक की हिंदी चिट्ठाकारिता के इतिहास को दर्ज करता है ! भविष्य की हिंदी चिट्ठाकारिता की समझ तभी बनेगी जब हम लगातार ब्लॉगित समाज के लिंकन के पैर्टनों और खासियतों को समझते चलें ! तो लिंकित मन पर आप सबका स्वागत है ! आप सभी अपने हिंदी ब्लॉगिंग के अनुभवों और ब्लॉगरी के बारे में अपनी समझ व  राय को लिंकितमन पर लिखिए ! लिंकित मन अब मेरा निजी चिट्ठा न होकर हिंदी ब्लॉगिया जाति के अंदाज को बयां करने का एक मिलाजुला कदम होगा ! तो फिर  आइए रचॆं हिंदी चिट्ठाकारिता का एक मौलिक मुहावरा और  रचॆं एक सामूहिक इतिहास !! आमीन !!

Thursday, December 6, 2007

यूँ हुआ उस महफिल में चर्चा तेरी हिम्मत का

 

हिन्‍दी चिट्ठाकारी पर आज हमने अपना परचा प्रस्‍तुत किया। हमारे लिए मुश्किल काम था एक तो इसलिए कि ब्‍लॉगरों के बीच अपनी बात रखने में सुविधा रहती है कि आपकी बात जिसे ठीक नहीं लगेगी वह कह देगा कि ये आपकी राय है पर हम इससे कुछ अलग सोचते हैं। पर एक ऐसे विद्वत समुदाय के समक्ष जो अपने अपने क्षेत्र में तो पारंगत हैं पर चिट्ठाकार अनिवार्यत नहीं है, वे तो हमें हिंदी चिट्ठाकारों की नुमांइदगी करने वाला मान बैठेंगे...यही हुआ भी। पूरे चिट्ठाकार समुदाय का प्रतिनिधित्‍व एक गुरूतर काम था और हम कतई नहीं समझते कि हम इस योग्‍य हैं। खैर...हमने जैसा ब्‍लॉगजगत को समझा है लोंगों के सामने रखा। बाद में लोगों ने दाद भी दी (पर पता नहीं ये शिष्‍टाचार था कि व्‍यंग्‍य :))

परचा लंबा है इसलिए यहॉं नहीं दिया जा रहा, उम्‍मीद है जल्‍द प्रकाशित किया जाएगा।  फिलहाल हम उस पावर-प्‍वाईंट प्रस्‍तुतिकरण की स्‍लाइड्स को दिखा रहे हैं जो हमने इस कार्यशाला में दिखाईं। कार्यशाला अभी LTG सभागार मंडी हाऊस में जारी है तथा दो दिन और चलेगी।

 

स्‍लाइड्स

Wednesday, November 28, 2007

टू ब्‍लॉग ऑर नॉट टू ब्‍लॉग ?

 

शोध निष्‍कर्षमाला-2

आपका ब्लॉग आपके लिए क्या अहमियत रखता है ? क्या वह इंटरनेट की कल्पनातीत गति वाली सडक पर आपके द्वारा खोली गई एक दुकान है ? या फिर आपका एक ऎसा पवित्र कोना है जहां बैठकर आप अपने उदासी भरे गीत गा- सुना सकते हैं ? या फिर यह आपके लिए अंदर के आवेश और भडास को जगजाहिर कर  दुनिया को क्रांति के मुहाने पर ला खडा करने का एक चमत्कारी रास्ता है ? आप प्रिंट माध्यमों से पछाड खाकर यहां औचक ही पहुंच गए एक संभावनापूर्ण लेखक हैं जिसको भविष्य की रोजीरोटी यहीं से पैदा होने की उम्मीद है ?
ब्लॉग क्रांति के घट जाने के बाद अब ब्लॉगिंग क्यूं की जाए ? और ब्लॉगिंग व्यवहार किन कारकों से प्रभावित होता है ?-  सरीखे सवालों की पडताल करते हुए ब्लॉगिंग की उत्प्रेरणा , ब्लॉगिंग की मंशा और ब्लॉगिंग व्यवहार पर विचार करने वाली कुछ सामग्री मिली !जब ब्लॉगिंग की प्रक्रिया पर विचार करते हैं तो यह बात खुल कर सामने आती है कि विश्व की दूसरी भाषाओं में हो रही चिट्ठाकारिता से फिलहाल हिंदी चिट्ठाकारी का तेवर अलग है ! एक मायने में यह एक पास आता हुआ समाज है जहां इस विधा के उदय व विकास पर तीखी बहसें हैं , भाषा व तकनीक का  तालमेल साधने वाले आचार्य हैं , तीखे सामाजिक विमर्श करने वाले चिट्ठाकार हैं , संवेदना के धरातल पर कविता और गद्यगीत करने वाले रचनाकार हैं , चिट्ठाकारी के लिए आचार संहिता तथा उसके स्वरूप पर वैचारिकियां देने वाले नीतिकार हैं ,इंटरंनेट पर हिंदी साहित्य के दस्तावेजीकण का प्रयास करने वाले रचनाकार हैं ! वे भी हैं जिनका उद्देश्य चिट्ठाकारिता के जरिए हिंदी भाषा का सजग विकास करना है ---! यहां हल्का -भारी एक साथ है ! लेखक आलोचक एक साथ है !   ...कह सकते हैं कि हिंदी चिट्ठाकारिता पाठक बना रही है और इसका उल्टा कि पाठक ब्लॉग बना रहे हैं -Blogs creat the audience and the audience creat the blogs ! जाहिर है कि एक चिट्ठाकार का ब्लॉग व्यवहार दूसरे चिट्ठाकार के ब्लॉग व्यवहार  की तुलना में अलग है !

यहां हम फिर उठाए गए सवाल पर पहुंचते हैं कि हिंदी ब्लॉगित जाति का ब्लॉग बिहेवियर कैसा है तथा वह किन कारकों से प्रभावित होता है ! ब्लॉगिंग की उत्प्रेरणा चिट्ठाकार के लिए कम या ज्यादा हो सकती है ! कोई भी चिट्ठाकार अपने द्वारा की गई चिट्ठाकारिता के परिणाम या प्रतिफल के लिए कितना आकर्षित है -इसी से तय होता है कि अमुक चिट्ठाकार में ब्लॉगिंग के लिए कितना उत्प्रेरण है ! हिंदी ब्लॉगित समाज में ब्लॉगिंग के प्रतिफल का आकर्षण बहुत है ! चिट्ठाकार को अपने ब्लॉग पर टिप्पणियों का इंतजार रहता है , व्यावसायिक भविष्य को लेकर सजगता  है ,सामाजिक संबंध बनाने की कामना भी है !  यहां स्वांत; सुखाय रधुनाथ गाथा गाने की कामना कम ही है !  छोटे पर सक्रिय संवाद समूहों की विनिर्मिति इसका खास पहलू है ! दरअसल चिट्ठाकारों की ब्लॉगिंग मंशा (इंटेंशन) का सीधा संबंध ब्लॉगिंग उत्प्रेरण से है ! जितना अधिक उत्प्रेरण होगा उतनी ही मजबूत ब्लॉगिंग इंटेशन होगी ! हिंदी के कई चिट्ठाकार अभी स्थापित होने की प्रक्रिया में हैं अत: ये चिट्ठाकार अपने ब्लॉग की भविष्यगत संभावनाओं पर विचार का काम उतनी सजगता से नहीं करते !. चिट्ठों और उनपर आने वाली टिप्पणियों के कॉपीराइट के निर्धारण को लेकर कई चिट्ठाकारों ने विमर्श किया है! चिट्ठों के रोमन प्रतिरूप पर किसका कॉपीराइट है यह सवाल भी हाल ही में उठा और उसपर काफी बहस का माहौल बना ! इससे जाहिर होता है कि हिंदी चिट्ठाकारी ने आकार लेना शुरू कर दिया है तथा चिट्ठाकार अपने लिखे चिट्ठों की सामग्री की उपादेयता व उसके भविष्य की संभावनाऎं तलाश रहा है !

ब्लॉगिंग़ इंटेंशन का ब्लॉगिंग बिहेवियर से सीधा सहसंबंध है ! ब्लॉग करने के आकर्षणों तथा अपने ब्लॉग की उपादेयता को लेकर तेजी से सक्रिय होता ब्लॉगर अपने ब्लॉग के प्रबंधन में ज्यादा समय व उर्जा खर्च करता है !हिंदी चिट्ठाकारों में अभी पूर्णकालिक रूप से ब्लॉगिंग करने का माहौल नहीं बना है पर ज्यादातर ब्लॉगर समय की कमी के व पारिवारिक व्यावसायिक जिम्मेदारियों के बावजूद अपने ब्लॉग के लिए समय निकालने का भरसक प्रयास करते दिखाई देते हैं ! चिट्ठाजगत (  एक फीड एग्रीगेटर ) पर धडाधड महाराज की लिस्ट में सबसे ऊपर बने रहने की कामना हर चिट्ठाकार की है ! अपने ब्लॉग की साज सज्जा नाम अपने प्रोफाइल , ब्लॉगरोल   पाठकों की संख्या , टिप्पणी करने वालों को बढावा देने के लिए चिट्ठे की साइड बार में उनका सचित्र नामोल्लेख -- इन सबको लेकर चिट्ठाकार सक्रिय होते जा रहे हैं ! ब्लॉगिंग बिहेवियर में ब्लॉगर द्वारा अन्य ब्लॉगरों के चिट्ठों को पढना व उनपर टिप्पणी देना भी शामिल है ! इस कोण से देखने पर हिंदी का ब्लॉगर समुदाय नजदीक आता दिखाई देता है !यहां लिंकन प्रतिलिंकन की प्रवृति अधिकातर चिट्ठाकारों में दिखाई देती है ! विवादित मुद्दों पर लिखी गई पोस्टों के आसपास अनेक पोस्टों का जन्म होता है जिससे विवाद का मुद्दा भी विकसित होता चलता है तथा लिंकन के जरिए  उससे जुडी पोस्टों को भी पाठक या कहें कि ट्रेफिक  मिलता चलता है !  कम समय में ज्यादा चिट्ठे पढना व उनपर टिप्पणी देना  , टिप्पणी द्वारा दूसरे चिट्ठाकारों को अपने चिट्ठे तक लाना ,  इमेलिंग के जरिए मित्रों व परिचित ब्लॉगरों को नई पोस्ट की जानकारी देना , समय समय पर होने वाले चिट्ठाकार सम्मेलन , फोन के जरिए अपनी पोस्ट पर परिचित ब्लॉगरों की राय लेना  जैसी कई प्रवृतियां हैं जिनसे  एक पास आते , व्यवस्थित होते , उलझते , संवरते और आकार पाते हिंदी चिट्ठाकार समुदाय का स्वरूप उभरता है !

Sunday, November 25, 2007

हरएक के भीतर चमकता हीरा है ,हरएक के भीतर आत्मा अधीरा है

शोध निष्‍कर्षमाला-1

हर भली बुरी चीज कभी न कभी खत्‍म होती ही है, मेरे शोध की अवधि भी समाप्‍त हो गई है जल्‍द ही शोध के निष्‍कर्ष विद्वत समुदाय के समक्ष प्रस्‍तुत किए जाएंगे।

हिंदी चिट्ठाकारिता पर मेरी शोध के सबसे दिलचस्प सवाल रहा -हिंदी में चिट्ठाकारिता क्यों ? या हिंदी चिट्ठाकार चिट्ठा क्यों करता है ? इसके कई संभावित जवाब मुझे मिले -

1  हिंदी चिट्ठाकारिता चिट्ठाकार की प्रबल अनुभूतियों के निर्बंध प्रस्फुटन का माध्यम है ! इस बात का पता सहज ही अहसास होता है जब हम हिन्‍दी ब्‍लॉगरों के खुद के ब्‍लॉग विवरण देखते हैं. 

1 अनूप- हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै?,

2   प्रत्यक्षा- कई बार कल्पनायें पँख पसारती हैं.....शब्द जो टँगे हैं हवाओं में, आ जाते हैं गिरफ्त में....कोई आकार, कोई रंग ले लेते हैं खुद बखुद.... और ..कोई रेशमी सपना फिसल जाता है आँखों के भीतर....अचानक , ऐसे ही

3    नोटपैड- इस ब्लॉग के ज़रिये अपनी कलमघ‍सीटी को ब्‍लॉगबाजी में   तब्‍दील करने का इरादा है। हम तो लिख्‍खेंगे, पढ़ना है तो पढ़ो वरना रास्‍ता नापो बाबा।,

प्रमोद, चुप रहें और सोचें.. सोच के सागर में उतर जायें.. और बाहर आयें तो कोई नाटकीयता न हो.. कुछ महीन चमक चमके.. तारोंभरी रोशन रात दमके.. और कदम आगे बढ़ें.. धीमे-धीम

5 सुनील दीपक- क्योंकि कोई सुनने वाला नहीं था, या फ़िर समय नहीं था, या फ़िर ...?

2  यह सामाजिक जुडाव तथा सम्प्रेषण की उत्कंठा को जाहिर करने  का       सहज माध्यम है ! अविनाश, अभय, लाल्‍टू, रवीश, नसीर, रियाज आदि ब्‍लॉगरों को देखें !

3  हिंदी चिट्ठाकार के लिए यह वैयक्तिक जीवन और अनुभवों के दस्तावेजीकरण का जरिया है !

4  चिट्ठाकार के वैयक्तिक विचारों , मत और राय को सामाजिक मंच प्रदान करने और इस जरिए से उसे मुख्यधारा जीवन में  हस्तक्षेप की संतुष्टि देने वाला जनमाध्यम है !

5  चिट्ठाकार के रूप में एक आम व्यक्ति को नैतिक , भावात्मक और सामाजिक पुनर्बलन की क्रिया-प्रतिक्रिया को संभाव्य बनाने का प्रकार्य करता है!

6 व्यावसायिक चिट्ठाकारिता की भविष्यगत संभावना को साकार करने के लिए ! रवि, टिप्‍पणीकार, मजेदार समाचार आदि को इस दृष्टि से देखा जा सकता है !

7 संरचनागत दबावों से निपटने का तथा व्यवस्था के प्रति विरोध दर्ज करने का सशक्त तरीका है !

8 हिंदी भाषिक अस्मिता की विनिर्मिति में लोक की सहभागिता का सबसे तीव्र माध्यम है !

यहां दिए गए ब्लॉगिंग करने के कारणों को उत्प्रेरक भी कह सकते हैं ! इन उत्प्रेरकों को आंतरिक उत्प्रेरक और बाह्य उत्प्रेरकों के रूप में बाटां जा सकता है !

सबसे अहम बात यह है कि चिट्ठाकारिता के लिए आम व्यक्ति को किसी विशिष्ट तकनीकी ज्ञान की जरूरत नहीं पडती ! पुशबटन किया और पब्लिश हो गया आपका विचार,खयाल और भाव ! संभवत: यही वह मुख्य कारण है कि कई नेट प्रयोक्ता सहज ही चिट्ठाकारी की ओर आकर्षित हो रहे हैं !दरासल हिंदी चिट्ठाकारी ने मुख्यधारा के बरक्स लोकमंच बनाया है !यहां रचनाकार ,संपादक ,पाठक ,पाठक सबका समाहार हो गया है ! यहीं से शुरू हो रहा है समानांतर मीडिया ,समानांतर साहित्य और समानांतर विमर्श  ! ब्लॉगिंग के माध्यम ने एक निष्क्रिय पाठक , एक निष्क्रिय सामाजिक को एक सक्रिय रचनाकार में परिवर्तित कर दिया है ! अब रिसीविंग एंड पर बैठा प्रत्येक व्यक्ति सक्रिय सृजक हो गया है !आनंद की बात यह है कि समानांतर धारा मुख्यधारा से बहुत अधिक तीव्र ,सहज ,सशक्त और भौतिक परिसीमन से परे है !हिंदी चिट्ठाकारिता ने सूचना और ज्ञान के प्रवाह में आम हिंदी भाषी की हिस्सेदारी और हस्तक्षेप को संभव कर दिया है !

 

Tuesday, September 18, 2007

ऎसा है हिंदी ब्लॉगित जाति का लिंकित मन

हिंदी ब्लॉगिंग हिंदी में रचे जा रहे किसी भी प्रकाशित विमर्श से अलग पहचान बना रही है ! यह अब तक का सबसे जीवंत त्वरित और बहसशील (और बेबाक भी ) मंच है ! यहां कोई भी भी विमर्श का बिंदु अनअटेंडिड नहीं जाता ! बाहरी दुनिया के विमर्शों में बहुत कम हिस्सेदारी दिखाने वाले भी इस दुनिया में विमर्श के मुद्दों पर भिड जाते हैं ! भाषा ,साम्प्रदायिकता ,हाशिया ,राजनीति ,ब्लॉगिंग का तकनीकी और संरचनात्मक पहलू --ऎसे कई मुद्दे उठे और विमर्श के बिंदु बने !एग्रीगेटेरों के बन जाने से ब्लॉगित हिंदी जाति सचमुच के जातीय (जातिवादी नहीं वरन जाति ऐथेनेसिटी के मायने में) चेहरे को अख्तियार कर रही है ! यहां टाइम और स्पेस के बंधनों से आजाद हिंदी चिट्ठाकार एक जमावडे एक जाति के रूप में साफ दिखने लगे हैं ! बहस का कोई एक बिंदु सब चिट्ठाकारों में हलचल पैदा कर सकता है और अपनी समान जातीय भावना के कारण असहमति भी जाति को भीतर से एकीकृत करने का काम करती है ! यहं उठी कोई भी चर्चा या तो विवाद का रूप ले सकती है या फिर विमर्श का ! इसके माने यही निकलते हैं कि हिंदी ब्लॉगिंग लगातार जुडता और नजदीक आता हुआ जातीय-सांस्कृतिक समूह है ! इस पहचान के जातीय स्वरूप का अंदाज भले ही हर चिट्ठाकार न लगा पाए किंतु चिट्ठों के अवचेतन में यह भावना सहज ही देखी जा सकती है !

हर जाति में अंत:जातीय तनाव भी होते है ! यहां भी हैं ! कविता अकविता के बीच भाषिक शुचिता भाषिक सहजता के बीच ,ग़ीक अगीक के बीच वैयक्तिक और सामूहिक चिट्ठाकारिता के बीच ,स्थापित अस्थापित चिट्ठाकारों के बीच --ये तनाव हर बार नकारात्मक ही नहीं होते ! बल्कि कई बार जातीय भावना को मजबूती और आकार दे रहे होते हैं !

ताजा टिप्पणी विमर्श में हिंदी ब्लॉगिंग के चेहरे को आकार देने वाले गंभीर विमर्श पैदा हुए हैं ! इस विमर्श में हिंदी ब्लॉगिंग को ज्यादा से ज्यादा तार्किक पहचान देने की कामना झलकती है ! शास्त्री जी की कामना साफ एवं स्पष्ट प्रकट होती है पर बाकी के चिट्ठाकारों की चिट्ठाकारी में यह बात अवचेतन में समायी दिखाई दे जाती है ! जो कामनाऎं इन चिट्ठाकारों की चिट्ठाकारी में साफ दिखाई देती हैं वे हैं --

हिंदी चिट्ठारों की संख्या तेजी से बढे एवं इसके स्वरूप में विविधता आए

-इसकी अंग्रेजी या किसी अन्य भाषा की चिट्ठाकारी से अलग पहचान बने

-हिंदी चिट्ठाकारी की दुनिया नजदीक आए (ऎग्रीगेटरों की अभिवृद्धि के रूप में)

-हिंदी चिट्ठारिता की तकनीकी संरचना मजबूत हो

-टिप्पणी की संरचना के माध्यम से चिट्ठाकारी का संवाद-समूह सक्रियस् हो

-प्रिंट मीडिया से अपने मुकाबले में हिंदी ब्लॉगिंग एक सकारात्मक संघर्ष करे और स्थापित हो !

-व्यक्तिगत पहचान और चिट्ठाकारों के उपसमूह बनें ( अलग अलग विषयों में व्यक्तिगत रुचि के आधार पर ) भडास और मोहल्ला इसके सबसे सटीक उदाहरण हैं!

-हिंदी ब्‍लॉगिंग का अलग भाषिक मुहावरा गढने का प्रयास

-हिंदी चिट्ठाकारी के इतिहास को दर्ज करने की चाह

-हिंदी चिट्ठाकारों के कृतित्व व योगदान को दर्ज करने की चाह

- लेखकीय अस्तित्व स्थापित करने की अभिवृत्ति

-चिट्ठाकारी के व्यावसायिक भविष्य को लेकर कामनाऎं

हिंदी ब्लॉगित जाति के दिनोंदिन लिंकित होते स्वरूप के संबंध में आपके अमूल्य सुझाव आमंत्रित हैं !

Tuesday, September 11, 2007

1000 ब्‍लॉग का आंकड़ा छुआ हिंदी चिट्ठाजगत ने

हिंदी में कुल कितने चिट्ठे हैं इसके सही सही आकलन का कोई एकदम सटीक तरीका नहीं है। पर आज चिट्ठाजगत पर दिखा कि कि कम से कम इस संकलक ने 1000 चिट्ठों का आंकड़ा छू लिया है। आपको, मुझे हम सब को बधाई-


छवि को बड़ा करने के लिए क्लिक करें


Monday, September 3, 2007

भाषा में भदेस का जयघोष

 

कथादेश में इंटरनेट के मोहल्‍ले की अगली किस्‍त हाजिर है।

इंटरनेट का मोहल्ला

भाषा में भदेस का जयघोष

अविनाश

हिंदुस्तान या किसी भी मुल्क के समाज में अछूत कौन होते हैं? जिन्हें सलीके से उठने-बैठने की ट्रेनिंग नहीं होती और जिन्हें परंपरा से मिले हुए पिछड़ेपन की वजह से मुख्यधारा में कोई बैठने नहीं देना चाहता। जिनके बोलने से अभिजातों की तहज़ीब का रेशा नज़र नहीं आता। जिन्हें जैसे रहना होता है, वैसे रहते हैं और जिन्हें ज़मीन पर थोड़ी देर सो लेने के लिए साफ या एक पूरी चादर की कभी कोई ज़रूरत नहीं होती। हिंदुस्तान की आज़ादी से पहले अछूतोद्धार की पहली घटना के बाद आज भी राजस्थान या उड़ीसा के किसी मंदिर में अछूत-प्रवेश जैसे आंदोलनों का समाचार कभी-कभी मिलता रहता है- लेकिन ऐसे समाचारों से अलग दूसरे मोर्चों पर भी अछूत अलग से नज़र आते हैं।

अंग्रेज़ी बोलने वाला अंग्रेज़ी नहीं बोलने वालों को अछूत समझता है। दिल्ली की हिंदी बोलने वाला यूपी-बिहार की हिंदी बोलने वालों को अछूत समझता है। लोकबोलियों में ऊंची जाति की जो संवाद परंपरा है, उसमें नीची जाति के बोलने के तरीक़ों की हंसी उड़ायी जाती है। और ये सब सिर्फ लोकाचारों तक सीमित नहीं है- अभिव्यक्ति की दुनिया में भी ये छुआछूत साफ़ साफ़ नज़र आता है। किसी को धूमिल की भाषा पर एतराज़ रहा है, तो कहीं राही मासूम रज़ा की किताब को टेक्स्ट बुक में शामिल होने पर बवाल होता रहा है। कहीं विद्यापति को वयस्कों का कवि घोषित किया जाता रहा है, तो कोई जमात राजेंद्र यादव के हंस की होली जलाता रहा है। लेकिन तमाम एतराज़ और छूआछूत के बाद भी नागरिकता और अभिव्यक्ति की जंग जारी है।

हिंदी ब्लॉगिंग में पिछले दिनों एक ऐसे ब्लॉग का आना हुआ, जिसकी भाषा कुछ कुछ बनारस में होली के मौक़ों पर निकलने वाली एडल्ट बुलेटिन का स्वाद देती है। अगर ये एक आदमी का ब्लॉग होता, तो फिर भी गऩीमत थी। लेकिन ये एक सामूहिक ब्लॉग के रूप में सामने आया। यानी इसके ऑथर पहले ही दिन से एक नहीं, एक दर्जन थे। अब इनकी तादाद पचास से ज्य़ादा है। ये सब के सब पत्रकार हैं। इनमें से ज्य़ादातर मेरठ, कानपुर और नोएडा के अखब़ारी पत्रकार हैं। एकाध टेलीविज़न के लोग भी शामिल हैं। ब्लॉग का नाम है, भड़ास (http://bhadas.blogspot.com)। और जैसा कि नाम से ज़ाहिर होता है, ये मन की भड़ास निकालने वालों का मंच है। अगर आपकी पृष्ठभूमि भदेस है, तो भड़ास गालियों के ज़रिये भी निकलेगी- सो यहां गालियां भी पूरे वर्णों और शब्दों में निकलती हैं। हिंदी कहानियों में प्रयोग होने वाले 'भैण डॉट डॉट डॉट` की तरह नहीं। और यही बात ब्लॉगिंग के दूसरे दिग्गजों के एतराज़ को मुखर करता रहा है।

नारद एग्रीगेटर इसके अपडेट्स नहीं दिखाता। चिट्ठाजगत और ब्लॉगवाणी पर इसके अपडेट्स आते हैं। लेकिन कुछ पवित्रतावादी ब्लॉगर्स ने, जहां तक मुझे सूचना है, ब्लॉगवाणी को यह खत़ लिख कर भेजा कि आपके एग्रीगेटर पर कुछ अश्लील और भद्दे अपडेट्स आते हैं, कृपा कर हमारे ब्लॉग की फीड अपने एग्रीगेटर से हटा दें। ब्लॉगवाणी वालों ने इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार किया। यानी यह क़दम हिंदी ब्लॉगिंग में भाषाई वैविध्य के स्वीकार का क़दम है- और जिन्हें यह स्वीकार नहीं, उनके लिए ब्लॉगिंग का कोई मतलब भी नहीं। वे ब्लॉगिंग के भीतर जातीय महासभाएं बना रहे हैं और छूआछूत के नये मानक गढ़ रहे हैं।

हिंदी ब्लॉगिंग पर शोध करने वाली नीलिमा ने पिछले दिनों इन्हें अच्छी लताड़ लगायी। अपने ब्लॉग वाद संवाद (http://vadsamvad.blogspot.com) पर नीलिमा ने लिखा, आपकी गंधाती पुलक से कहीं बेहतर है, उनकी भड़ास। यह उन्वान था, जिसके मजमून की शुरुआत कुछ यूं थी, भड़ास हिंदी ब्लॉग जगत के लिए चुनौती रहा है, जिसे नारद युग में तो केवल नज़रअंदाज़ कर ही काम चला लेने के प्रवृत्ति रही, पर जैसे ही नारद युग का अवसान हुआ, भड़ास की उपेक्षा करना असंभव हो गया। करने वाले अब भी अभिनय करते हैं, पर हिंदी ब्लॉगिंग पर नज़र रखने वाले जानते हैं कि भड़ास का उदय तो नारद के पतन से भी ज्य़ादा नाटकीय है। इतने कम समय में भड़ास के सदस्यों की ही संख्या ५३ है। भड़ास अपनी प्रकृति से ही आंतरिक का सामने आ जाना है- जो दबा है उसका बाहर आना। भड़ास हर किसी की होती है, पर बाहर हर कोई नहीं उगल पाता, इसके लिए साहस चाहिए होता है। भड़ास का बाहर आना केवल व्यक्ति के लिए ही साहस का काम नहीं है, वरन पब्लिक स्फेयर के लिए भी साहस की बात है कि वह लोगों की भड़ास का सामना कर सके, क्योंकि भड़ास साधुवाद का एंटीथीसिस है- हम भी वाह तुम भी वाह वाह नहीं है यह। हम भी कूड़ा तुम भी कूड़ा है यह।

यानी हिंदी ब्लॉगिंग पर अछूतोद्धार की इस पहली घटना का जितना स्वागत हुआ, उससे कहीं अधिक पुराने ब्लॉगियों ने इस घटना के रचाव के स्रोत पर ही संदेह कर डाला। ये जंग एक स्त्री के ज़रिये छेड़ा जाना उन्हें नागवार गुज़रा और उन्होंने आरोप लगाया कि यह किसी पुरुष भाषाशास्त्री की जंग है, जो शिखंडी की आड़ में वार करना चाहता है। नीलिमा ने इसका जवाब भी दिया, साफ है कि जिन संरचनाओं की हम देन हैं, उनका असर लाख प्रबुद्धता के बाद भी दिखाई दे जाता है!

पहली बार भड़ास की भाषा पर हुआ ये विमर्श भड़ास के मेंबरानों के लिए उत्साह का सबब था। उन्होंने अपने ब्लॉग पर सार्वजनिक रूप से ये बातचीत की कि नीलिमा को भड़ास का हेडमिस्ट्रेस बना दिया जाए। क्योंकि कभी कभी कोई पत्रकार भड़ास में अभिजातों की भाषा लेकर आ जाता है और गंभीर बातचीत छेड़ने की कोशिश करता है। ऐसे में भड़ास अपने मूल उद्देश्य से भटक जाता है। नीलिमा इस पर नज़र रखें और टोक दिया करें कि भई ऐसा क्यों हो रहा है! भड़ास की भाषा बिगड़ती क्यों जा रही है! शायद ये प्रस्ताव 'हंसी-हंसी की भड़ास` था और हवा में उड़ गया।

लेकिन, भड़ास की इस बानगी का संदेश सिर्फ इतना है कि ब्लॉगिंग के ज़रिये भाषा अब उन तमाम रूपों प्रकाशित हो रही है, जिनके दरवाज़े पर कभी दरबान बैठे होते थे। ब्लॉगिंग ने दरबानों की गर्दन पकड़ ली है, संपादकों को अंगूठा दिखा दिया है... और पवित्र मंत्र-ध्वनियों के बीच शोर मचाता हुआ आगे बढ़ रहा है।

Wednesday, August 15, 2007

टैक्‍नोराटी के मोर्चे पर चिट्ठाजगत ने नारद को पछाड़ा

विस्‍तृत विश्‍लेषण पहले ही किया जा चुका है किंतु अंतर्जाल पर हालात इतनी तेजी से बदलते हैं कि क्‍या कहें। 29 जुलाई को टैक्‍नोराटी पर चिट्ठाजगत 46000 के लगभग था और नारद 33662 पर। आज देखा तो एक चमत्‍कारिक नजारा दिखा आप देखें-

टैक्‍नोराटी पर नारद

 

टैक्‍नोराटी पर चिट्ठाजगत

 

जी दोनों ठीक एक ही पायदान पर मिल रहे हैं। जब तक आप देखें हो सकता है कि स्थिति फिर बदल गई हो पर फिलहाल की स्थिति सामने रख दी है। हमने पछाड़ा शब्‍द इस्‍तेमाल किया मानो कोई रेस हो रही हो- जबकि कहा जा सकता है कि भई ऐसा कुछ नहीं है पर फिर भी एक प्रतियोगिता तो है और होनी चाहिए- वैसे रैंक बराबर हैं सिर्फ इसलिए कि टैक्‍नोराटी के गणितीय समीकरण जो रैंक आंकते हैं वे इतिहास, ऐतिहासिक महत्‍व जैसे गैर गणितीय घटकों के लिए कोई मूल्‍य नहीं रखते। खैर हमने तो वास्‍तविक स्थिति आपके सामने रखी, बाकी आप विचारें।

Friday, August 10, 2007

बजरबट्टू पर भिड़ गये ब्लॉग के बहादुर

कथादेश में इंटरनेट के मोहल्‍ले की पॉंचवीं किस्‍त आज हाथ लगी। अविनाश ने इस माह शब्‍दों के संग्राम में जुटे ब्‍लॉग बहादुरों पर अपनी राय रखी है। लीजिए हाजिर है-

बजरबट्टू पर भिड़ गये ब्लॉग के बहादुर

अविनाश

हिंदी में शब्दों की खोज लगभग खत़्म हो गयी है. लेखक इस ज़रूरत से उठ गये हैं कि उनकी अभिव्यक्ति के पन्नों को नये शब्द कुछ रोशनी बिखेर सकते हैं. बल्कि जाने हुए शब्दों के जरिये कहानी और कविता के सीमित शिल्प को सरल समय का आईना कह कर वे नये शब्दों की ज़रूरत को खारिज़ तक कर देते हैं. लेकिन ब्लॉग्स में भूले हुए शब्दों को खोजने और कई मौजूदा शब्दों की जड़ों तक पहुंचने का काम कुछ लोग कायदे से कर रहे हैं.

अजित वाडनेकर ऐसे ही एक सिपाही हैं, जो शब्दों का सफ़र (http://shabdavali.blogspot.com/)  नाम से अपना ब्लॉग चलाते हैं. उनके बारे में जानकारी अभय तिवारी के निर्मल आनंद से मिली. उन्होंने लिखा- पाया ब्लॉग जगत ने एक नया नगीना. आगे लिखा, 'वे हिंदी भाषा के संसार में एक मौलिक काम कर रहे हैं. शब्दों को उनके मूल में जाकर जांच परख रहे हैं. देशकाल और विभिन्न समाजों में उनकी यात्रा को खोल रहे हैं.` इतना काफी था हमें किसी ब्लॉग के बारे में उत्सुक करने के लिए. हम जब वहां पहुंचे, तो सचमुच ताज़ा रचनात्मकता की शीतल बूंदें वहां मोतियों की तरह बिखरी थीं.

ब्लॉग पर अपने सफ़र का आगा़ज़ वे कुछ इस तरह करते हैं, 'उत्पत्ति की तलाश में निकलें, तो शब्दों का बहुत ही दिलचस्प सफ़र सामने आता है. लाखों सालों में जैसे इंसान अपनी शक्ल बदली, सभ्यता के विकास के बाद से शब्दों ने भी अपने व्यवहार बदले. एक भाषा का शब्द दूसरी में गया और अरसे बाद एक तीसरी ही शक्ल में प्रचलित हुआ.`

आप अगर शब्दावली के पन्ने पलटेंगे, तो पाएंगे कि अजित वडनेकर ग्राम, गंवार और संग्राम के बीच के अंतर्संबंधों की व्याख्या कर रहे हैं. बगातुर और बघातुर से होते हुए बहादुर तक पहुंच रहे हैं. कुली से कुल की पहचान कर रहे हैं... और आरोही और रूहेलखंड के अर्थों में कुछ सम खोज रहे हैं. लेकिन ऐसा नहीं है कि सब कुछ एकतरफा ही परोसा जा रहा है. हिंदी में शब्दों पर कम कश्मकश इधर देखने को मिले हैं, लेकिन ब्लॉग पर अजित वडनेकर से दो-दो हाथ करने वाले बहुतायत में हैं. एक का ज़िक्र यहां करते हैं.

बजरबट्टू के बारे में अजित वडनेकर ने लिखा, 'प्राचीनकाल में गुरुकुल के विद्यार्थी के लिए ही आमतौर पर वटु: या बटुक शब्द का प्रयोग किया जाता था. राजा-महाराजाओं और श्रीमंतों के यहां भी ऋषि-मुनियों के साथ ये वटु: जो उनके गुरुकुल में अध्ययन करते थे, जाते और दान पाते. बजरबट्टू भी बटुक से ही बना. बजरबट्टू आमतौर पर मूर्ख या बुद्धू को कहा जाता है. जिस शब्द में स्नेह-वात्सल्य जैसे अर्थ समये हों, उससे ही बने एक अन्य शब्द से तिरस्कार प्रकट करने वाले भाव कैसे जुड़ गये? आश्रमों में रहते हुए जो विद्यार्थी विद्याध्ययन के साथ-साथ ब्रह्मचर्यव्रत के सभी नियमों का कठोरता से पालन करता, उसे वज्रबटुक कहा जाने लगा. जाहिर है वज्र यानी कठोर और बटुक मतलब ब्रह्मचारी/विद्यार्थी. ये ब्रह्मचारी अपने गुरु के निर्देशन में वज्रसाधना करते, इसलिए वज्रबटुक कहलाये. मगर सदियां बीतने पर जब गुरुकुल और आश्रम परंपरा का ह्रास होने लगा, तब बेचारे इन बटुकों की कठोर वज्रसाधना को भी समाज ने उपहास और तिरस्कार के नजरिये से देखना शुरू किया और अच्छा-खासा वज्रबटुक हो गया बजरबट्टू यानी मूर्ख.`

लेकिन अभय तिवारी ने बजरबट्टू के इस संधान पर संदेह किया. साफ है कि शब्दों के संधान को लेकर अलग अलग आग्रह और व्याख्याएं और सूचनाएं ब्लॉग पर तुरत-फुरत एक दूसरे तक पहुंच जाती हैं, और सफ़र को आगे जारी रखने में मदद मिलती है. अभय तिवारी ने प्रतिवाद किया, 'बजरबट्टू शब्द का लोकप्रिय प्रयोग बुरी नज़र से बचाने वाले एक पत्थर के अर्थ के बतौर है. रामशंकर शुक्ल 'रसाल` के भाषा शब्दकोश में भी बजरबट्टू का अर्थ है- एक पेड़ का बीज जिसे दृष्टिदोष से बचाने के लिए बच्चों को पहनाते हैं. बजर तो साफ़ साफ़ वज्र का तद्भव है, मगर बट्टू क्या है? क्या वट? क्या वटन? या वटक?`

और इस तरह एक नया भाषा विमर्श शुरू होता है, जिसमें हिंदी के कवि बोधिसत्व भी कूदते हैं. अपने ब्लॉग विनय पत्रिका में वे लिखते हैं, 'संदर्भ बजर का हो या बट्टू का, पर आप अपने बटुए को न भूलें. नहीं तो आप के हाथ से साबुन की बट्टी लेकर कोई और अपनी किस्मत चमकाएगा. फिर आप को बटुर (सिकुड़) कर रहना पड़ेगा और इसमें ठाकुर जी का बटोर (हजारी प्रसाद द्विवेदी) करने से भी कोई फायदा नहीं होगा. और आप धूल बटोरने में उम्र बिता देंगे. अच्छा हो कि यह बट्टा बन कर किसी भाव न गिरा दें जैसे कि आज कल कइयों का गिरा है.`

बजरबट्टू की इस पूरी बहस में कुल २९ बार लोग एक दूसरे से आपस में उलझे. अजित वडनेकर की पोस्ट पर चार टिप्पणियां दर्ज हैं, अभय तिवारी की पोस्ट पर बीस टिप्पणियां और बोधिसत्व की पोस्ट पर पांच टिप्पणियां दर्ज हैं. इस पूरी बहस में लंदन से अनामदास के साथ अनूप शुक्ला, इरफ़ान, अफलातून, काकेश, प्रियंकर, प्रमोद सिंह ने हिस्सा लिया. और भी कई नाम हैं, जिन्होंने अपनी बात रखी.

सवाल असहमतियों के लोकतांत्रिक गंठजोड़ का जितना है, उससे कहीं अधिक जिसके पास जितनी चीज़ें हैं, वे आपस में साझा कर रहे हैं. नवभारत टाइम्स और दैनिक भास्कर जैसे अखब़ारों और दूरदर्शन, ज़ी न्यूज़, आजतक और स्टार न्यूज़ के साथ काम करते हुए अजित वडनेकर पिछले बाइस सालों से पत्रकारिता कर रहे हैं. इतिहास और संस्कृति से उनका गहरा लगाव है, लेकिन ये अखब़ार आज जो उनका पेशा है, उसमें किसी काम का नहीं. लेकिन जो है, उसे समेटना है, बांटना है और ब्लॉग इसके लिए उन्हें सबसे सटीक माध्यम लगा.

ब्लॉग जगत की कुछ ताज़ा खब़र ये है कि हिंदी के दो और एग्रीगेटर लांच हुए हैं. एक चिट्ठाजगत डॉट इन और दूसरा ब्लॉगवाणी डॉट कॉम. ये एग्रीगेटर नारद के तानाशाही रवैये की उपज हैं. इससे साबित होता है कि अंतर्जाल का असंतोष रचनात्मक परिणामों के रूप में सामने आता है और वेब स्पेस में एकाधिकार की अवधारणा को खारिज़ करता है. एक खब़र ये भी है कि रवीश कुमार को हिंदी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बेहतर पत्रकारिता के लिए साल २००६-०७ का रामनाथ गोयनका अवार्ड मिला है. कथादेश सम्मान के बाद इस साल ये उनकी दूसरी बड़ी उपलब्धि है.

Friday, August 3, 2007

अब एक एलेक्‍सा नजर कितने आदमी थे पर

चिट्ठा संसार में उथल पुथल मची है जो ऊपर से इतना दिखाई नहीं देती। हमने तीन एग्रीगेटरों के आंकड़ों पर विचार किया था और नतीजा दिया था कि अभी तो सब ठीक दिख रहा है- टेक्‍नॉराटी के हवाले से यह भी बताया कि नए एग्रीगेटरों पर गया ट्रेफिक सब नारद का नहीं है भई। बाद में चिट्ठाजगत के आंकड़े विपुल ने सामने रखे, अच्‍छा लगा। इस प्रकार की पारदर्शिता एक स्‍वस्‍थ परिघटना है, हांलॉंकि इस मामले में नारद बाजी मारता है क्‍योंकि उसके आंकड़े सर्वसुलभ हैं, बिल्‍कुल पारदर्शी, पर लगता है इसकी वजह है कि सबने उसे बिसरा दिया है :( - वरना क्‍या वजह है कि नारद के लॉग का आकार अभी तक 100 है जबकि स्‍टेटकांउटर ने अरसा हुआ, मुफ्त ग्राहकों के लिए लॉग का आकार 500 कर दिया था, इससे पूरी तस्‍वीर सामने आती है, 100 से तो केवल कुछ घंटों के ट्रेफिक का लॉग देता है बाकी के विषय में केवल समन्वित आंकड़े मिलते हैं। इस छोटे से काम में यानि 100 से 500 करने में 2-4 मिनट लगेंगे, कृपया ध्‍यान दें। खैर इसके बावजूद नारद की पारदर्शिता बाकी से बेहतर है क्‍योंकि आंकड़े रीयल टाईम में उपलब्‍ध हैं।


किंतु ट्रेफिक के आंकड़े केवल प्रदाता ही उपलब्‍ध नहीं कराता वरन एलेक्‍सा जैसे सेवा प्रदाता भी उपलब्‍ध कराते हैं। तो हमने पिछले तीन महीने के एलेक्‍सा आंकड़े चारों प्रमुख एग्रीगेटरों के लिए तुलना करते हुए लिए और देखें हमें क्‍या मिलता है-



ये ग्राफ पिछली मान्‍यता को कुछ कुछ बदलता है और यह दर्शाता है कि ब्‍लॉगवाणी प्रमुख एग्रीगेटर की तरह उभर रहा है जबकि नारद दक्षिणायन है। दरअसल एलेक्‍सा के अनुसार ट्रेफिक वाल्‍युम की दृष्टि से रैंक इस प्रकार हैं-

 

नारद                   1,60,514

ब्‍लॉगवाणी             3,75,551

हिंदी ब्‍लॉग्स          6,37,868

चिट्ठाजगत           9,08,770


नारद का रैंक अब भी सबसे अधिक है पर ये इनके डाटा के महीनों पुराने उपलब्‍ध होने के कारण है जो अन्‍य एग्रीगेटरों के पास नहीं है। यदि ऊपर वाले ग्राफ पर नजर डालें तो वह स्थान जहॉं ऊपर की ओर जाते ग्राफ नारद के नीचे जाते ग्राफ को काटते हैं- शोध प्रविधि की दृष्टि से यह ही क्रिटिकल प्‍वाईंट है।


किंतु इन आंकड़ों की एक सीमा है ये पेजलोड को एक संख्‍या मानकर विश्‍लेषित करते हैं जबकि वे मानवीय हस्‍तक्षेप हैं, अत: किसी भी मानविकी के शोध की तरह यहॉं भी मानना होगा कि वस्‍तुनिष्‍ठता से परे, व्‍यक्तिनिष्‍ठ शोध की अभी भी बहुत सी गुंजाइश है- इस मामले में निर्णायक पंक्ति लिखने का अभी समय नहीं आया है।


Sunday, July 29, 2007

आवाजाही के मोर्चे पर तीनों एग्रीगेटर

यह सुखद है कि हिंदी के चिट्ठासंसार ने खुद बहु-एग्रीगेटर स्थिति में परिपक्‍वता के साथ ढालना शुरू कर दिया है। पिछले दिनों इसका प्रमाण प्रस्तुत करती कुछ घटनाएं दिखीं एक तो अहम घटना यह रही कि नारद, ब्‍लॉगवाणी व चिट्ठाजगत ने एक दूसरे का लिंक अपने मुखपृष्‍ठ पर दिया- अब उन लोगों के लिए जो एक से ज्‍यादा एग्रीगेटरों की सेवा लेते हैं ये काम आसान हो गया है। जैसा कि अरविंदजी का सर्वेक्षण बताता है कि 43 % चिट्ठापाठक दो या अधिक एग्रीगेटरों का इस्‍तेमाल करते हैं। यदि हम एग्रीगेटरों की तुलना सर्च इंजनों जैसे माध्‍यमों से करें तो स्‍पष्‍ट होता है कि इनकी आपसी प्रतियोगिता एक दूसरे के समर्थन की मांग करती है- अकसर सर्च इंजन ये सुविधा देते हैं कि आपके सर्च के लिए हमारी इंडेक्सिंग से यदि वांछनीय सामग्री न मिल रही हो तो आप अन्‍य सर्च इंजनों का इस्‍तेमाल कर सकते हैं- ये लीजिए लिंक। इसी क्रम में हिंदी के एग्रीगेटर भी एक दूसरे को समर्थन दे रहे हैं - यह परिपक्‍वता की निशानी है।


इसी संदर्भ में चंद और तथ्‍यात्‍मक बातें- जिन तीन एग्रीगेटरों की बात यहॉं की जा रही है उनके ट्रेफिक के आंकड़े भी हाल में हाथ लगे। नारद के तो सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हैं ही- यहॉं पर और ये यह कहते हैं-



दूसरी ओर चिटृठाजगत के आवाजाही आंकड़े भी विपुल ने हाल में उपलब्‍ध कराए



- ब्‍लागवाणी को अभी और भी कम समय हुआ है तथा इस अवधि के आंकडें उपलब्‍ध तो न थे पर हमने शोध के उद्देश्‍य से मैथिलीजी से मांगे तो उन्‍होंने जो कुछ भी उनके पास थे सब विस्‍तारपूर्वक हमारे पास भेज दिए हैं। शोधधर्म के चलते उन्‍हें पूरी तरह सार्वजनिक तो नहीं किया जा रहा है पर शोध से जो हमारी राय बन रही है उसे इन आंकड़ों पर भी विचार कर ही तैयार किया गया है।


सबसे पहले तो ये समझें कि नए एग्रीगेटर आने से नारद का ट्रेफिक कुछ कम तो हुआ है पर इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि नारद के ट्रेफिक को चिट्ठाजगत या ब्‍लागवाणी खा गए हैं- हॉं यह जरूर है कि अब नारद बहुत ही कम लोगों का एकमात्र या प्रेफर्ड एग्रीगेटर है (यह अरविंदजी के सर्वेक्षण से भी पता चलता है) पर तब भी कुल मिलाकर लोगों के फेरे एग्रीगेटरों पर बढे हैं- यदि सभी एग्रीगेटरों के दिनभर के औसतन यूनीक विजीटरों को जोड़ लिया जाए तो ये पहले के नारदीय ट्रेफिक से कहीं ज्‍यादा है।


आपसी तुलना करे तो चिट्ठाजगत (अनुमान) व ब्लॉगवाणी को तो नारद से ट्रेफिक मिल रहा है किंतु नारद को इनसे ट्रेफिक नहीं मिल रहा या कम मिल रहा है। यह भी रोचक है कि ट्रेफिक की दृष्टि से जल्‍द ही तीनों एग्रीगेटर समतुल्‍य स्थिति में आने वाले हैं पर पुराने लिंकों के वजूद में होने का लाभ नारद के पक्ष में है- टैक्‍नॉराटी पर तीनों की स्थिति से बात स्‍पष्‍ट होती है। विपुल का चिट्ठाजगत तेजी से 112 जगहों से आ रहा है तथा 46000 के लगभग रेंक पर है जबकि ब्‍लागवाणी संभवत किसी तकनीकी वजह से टैक्‍नारॉटी पर नजर नहीं आता जबकि नारद 148 की अथॉरिटी के साथ 33662 पर है जो किसी भी हिंदी चिट्ठे से ज्‍यादा है (निकटतम शायद रविजी हैं 40984 के साथ) जहॉं चिट्ठाजगत के 112 अथॉरिटी, नारद के 148 की तुलना में ज्‍यादा दूर नहीं दिखते वहीं यदि लिंकों की कुल संख्‍या पर विचार करें तो असल तस्‍वीर दिखाई देती है- नारद के 4915 लिंक जबकि चिट्ठाजगत के हैं केवल 1012 लिंक। मतलब यह कि अभी तो दोनों में जमीन असमान का अंतर है।


आसान भाषा में इस आंकड़ेवाजी से जो बात निकलकर आती है वह यह कि हिंदी चिट्ठासंसार नारद की जगह पर दूसरे एग्रीगेटरों को न देखकर सबको एक साथ देखने पर जोर दे रहा है। दूसरी बात यह कि माने न माने आपस में एक स्पर्धा है (और होनी चाहिए) पर अब तक तो स्‍वस्थ ही है। और हॉं नारद आज की स्‍िथति में तो 'न डाउन है न आऊट' पर साथ ही यह भी है कि पहले की 'लिंकित प्रापर्टी' के चलते अभी कुछ समय तक उसके शीर्ष पर बने रहने की ही संभावना दिखाई देती है किंतु नए चिट्ठों को शामिल कर सकने की उसकी क्षमता पर भी बहुत कुछ निर्भर करेगा।

आंकड़े उपलब्‍ध कराने व विश्‍लेषण में सहयोग के लिए मित्रो का आभार


Friday, July 20, 2007

नारद की गिरती आवाजाही थामना जरूरी है

नारद की आवाजाही पर हमें नजर रखनी पड़ती है, क्या करें काम ही ऐसा है बिना ये जाने कि कितने लोग आ जा रहे हैं, चिट्ठाकारी की दिशा का अनुमान करना कठिन है। इसलि जब एकाएक यह आवाजाही बढ़ी तब भी हमें बताने लायक बात लगी उसी तरह हमने ये भी दर्शाया कि विवाद काल में नारद आवाजाही बढ़ती है। अब जब एक से ज्‍यादा एग्रीगेटर मैदान में हैं- देबाशीष याद दिला चुके हैं कि पहले भी नारद का कोई एकाधिकार नहीं था- हालांकि पुख्‍ता आंकड़ों के अभाव में भी हमें लगता है कि नारद की लोकप्रियता इतनी अधिक हुआ करती थी कि अन्‍य की स्थिति बहुत मायने नहीं रखती थी। इतने अधिक 'थी' इसलिए इस्‍तेमाल कर रहे हैं क्‍योंकि चिट्ठों की संख्‍या में आए इस उफान (चिट्ठाजगत इस समय लगभग 800 चिट्ठों को शमिल कर रहा है जबकि हमारे साथ ही शोध प्रारंभ करने वाली सह शोधार्थी गौरी ने एक यथार्थपरक अनुमान लगाते हुए फरवरी मार्च में 60-'70 सक्रिय चिट्ठों का अनुमान प्रस्‍तुत किया था) के वावजूद नारद के ट्रेफिक में खासी कमी आई है। अगर आलोकजी की शब्‍दावली में कहें तो नई दुकानों से पुरानी दुकान की ग्राहकी पर असर हुआ है। अभी केवल शुरुआत है तथा नारद के विपरीत चिट्ठाजगतब्‍लॉगवाणी के आवाजाही आंकड़े सार्वजनिक नहीं है इसलिए भी अभी यह कहना कठिन है कि इन एग्रीगेटरों के ट्रेफिक की आपसी सहसंबद्धता क्‍या है। पर इतना तय है कि चिट्ठाजगत के सामने आने के आस पास ही ट्रेफिक का यह चार्ट दक्षिणोन्‍मुख हुआ है। नारद तक पहुँचने वाले यूनीक विजीटरों की संख्‍या का मई से अब तक का लेखा जोखा इस प्रकार है-





यूनीक विजीटरों के आंकड़ों को इसलिए लिया गया है क्‍योंकि संभवत् सर्फर प्रतिबद्धता का सबसे सटीक अनुमान इनसे ही मिलता है वैसे पेजलोड के आंकड़े भी इसी अनुपात में ही हैं। क्‍या नारद के बढ़ते कदमों में लगी ये लगाम के हिंदी चिट्ठाकारी के लिए कोई गंभीर संकेत हैं- हमारा अनुमान है कि नहीं और हॉं दोनों ही ठीक है। जैसा रविजी व देबाशीष दोनों ही बताया कि नए एग्रीगेटरों का आना कुल मिलाकर बेहतर ही है पर दिककत यह है कि यदि उनकी पेशकदमी का मतलब नारद के ट्रेफिक में कमी आना है तो ये संकेत भले नहीं कहे जा सकते क्‍योंकि इसका मतलब है कि कुल मिलाकार चिट्ठाकार आधार (ब्‍लॉगर बेस) कम है तथा वह सभी एग्रीगेटरों को ट्रेफिक देने में असमर्थ है, दूसरे शब्‍दों में पाई का आकार इतना नहीं बढ़ा है कि सबका पेट भर सके- हालांकि तब भी सब साथ साथ रह सकते हैं खासकर इसलिए कि अभी तक तीनों में से किसी के भी व्‍यवसायिक घोषित लक्ष्‍य नहीं हैं, इसलिए ट्रेफिक कम भी रहा तो भी शायद ये दुकान न समेटें। लेकिन नारद के रूतबे में कमी किसी भी हिंदी बेवसाइट या चिट्ठों के लिए एक बुरी खबर है। एक बात यह भी कि चिट्ठाजगत व बलॉगवाणी को अपना लायल्‍टी बेस बनाना नहीं पड़ा नारद के ही लायल ग्राहक उन्‍हें स्‍वमेव मिल गए हैं इससे वे कई कसालों से बच गए हैं।

आलोकजी ने अपने निवेश सलाह के पोर्टल पर बताया कि आईटी व इंटरनेटी कंपनियों की खासियत यह होती है कि उनके पास लंबी चौड़ी भौतिक संपदा यानि जमीन जायदाद नहीं होती कि वे अपने औसत निष्‍पादन के बाद भी सश्‍ाक्‍त मानी जाएं, उनकी प्रोपर्टी तो आभासी ही होती है यानि ....


मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की किसी भी कंपनी के पास न्यूनतम भौतिक संपत्ति होती है। जैसे किसी टैक्सटाइल कंपनी के पास जमीन होती है, प्लांट होता है। मशीनरी होती है। डूबती कंपनी को यह सब बेच-बाचकर भी मोटी रकम खऱीद सकती है।


दरअसल इंटरनेट बेहद आवारा नींव पर खड़ी इमारत होती है तथा इसके मनचले स्‍वभाव के कारण हर बेवसाइट को अपने ग्राहक लगातार बनाए रखने जद्दोजहद से गुजरना पड़ता है। कोई भी संस्‍था अपना कद भी यही मानकर चल रही होती है कि वह आपने वफादार ग्राहकों को तो कम से कम बनाकर रख ही पाएगी। अत: हमें इसे हिंदी चिट्ठाकारी के लिए अहम संकेत के रूप में देखना चाहिए।

Thursday, July 12, 2007

चोर दरवाजे: चोटी के हिंदी-ब्‍लॉग और उनके ब्‍लॉगरोल

ये अपने मूल शोध-प्रस्‍ताव में ही था कि हिंदी चिट्ठाकारों के लिंकन व्‍यवहार का विश्‍लेषण किया जाएगा। इरादा ये देखने का है कि कौन किसे लिंक करने में रुचि लेता है। लिंक केवल सामग्री की उपयोगिता पर ही निर्भर नहीं करता वरन चिट्ठाकार की रुचि-अरुचि का परिचायक भी होता है। आमतौर पर ब्‍लॉगरोल में पसंदीदा चिट्ठों को जगह देने की प्रवृत्ति होती है। पर एक समस्‍या है ब्‍लॉगर का ब्लॉग रोल अंतहीन नहीं हो सकता इसलिए सबको प्रसन्‍न नहीं किया जा सकता, कुछ को चुनना शेष को रिजेक्‍ट करने जैसा ही होता है जो नेता टाईप या सर्वप्रिय ब्‍लागरों को पसंद नहीं वे किसी को नाराज नहीं करना चाहते अत: वे लगभग सभीको या तो अपने रोल में जगह देते हैं (जैसे शास्‍त्रीजी) या फिर वे किसी को भी जगह नहीं देते (जैसे फुरसतिया, ईस्‍वामी)। हमने शुरुआती अध्‍ययन के लिए चिट्ठाजगत के सक्रियता क्रमांक से ऊपर के चंद ब्‍लॉगरों के बलॉग रोल को देखकर ये जानने की कोशिश की कि क्‍या वे एक-दूसरे को पसंद करते हैं ? परिणाम चौंकाने वाले हैं- इस तालिका को देखें ( बहुत मेहनत से बनाई है...क्लिक कर बड़ा करें)


x-मायने लिंक नहीं दिया, Y- मायने लिंक दिया गया

चिट्ठाकार हैं-


१फुरसतिया 2. ई-स्वामी 3. मेरा पन्ना 4. Raviratlami Ka Hindi Blog 5. उडन तश्तरी ....... 6. मोहल्ला 7. azdak 8. मसिजीवी 9.हिंदयुग्‍म 10. प्रत्यक्षा 11. जोगलिखी 12. कस्‍बा 13. रचनाकार 14. काकेश 15. ई-पंडित


तो स्थिति ये है कि हिंदी ब्लॉगिंग में फिल‍हाल रुचि का वैविध्‍य (एक दूसरे को कम पसंद करने के लिए इससे सम्‍मानजनक शब्‍द मिल नहीं पाया) इतना हो गया है कि शीर्ष पर टिके ब्‍लॉगर अक्‍सर अपने ही दूसरे ब्‍लॉग को तो रोल में रख रहे हैं किंतु साथी ब्‍लॉगरों को नहीं।


वैसे यहाँ यह भी विचारणीय है कि ब्‍लॉगरोल को लेकर जैसा आकर्षण व सतर्कता पहले दिखाई देता था अब नहीं है और बहुत से ब्‍लॉगर अपने ब्‍लॉगरोल हटाकर उनकी जगह विज्ञापनों को देने लगे हैं। हिंदी चिट्ठाकारी में विशिष्‍ट दो प्रवृत्तियॉं जरूर मुझे महत्वपूर्ण लगती हैं पहली है पत्रकार ब्‍लॉगरों द्वारा एक दूसरे का पुरजोर समर्थन लगभग प्रत्‍येक पत्रकार चिट्ठाकार ने एक-दूसरे को लिंकित कर रखा है, इससे सबको ट्रैफिक भी मिलता है और दरजा भी।


ऐसी ही बिरादरी युवा कवियों की भी है वे भी एक दूसरे को परस्‍पर लिंकित करने में विश्‍वास रखते हैं। ये अलग बात है कि जहॉं पत्रकारों को गैर पत्रकार भी अपने ब्‍लॉगरोल में रख रहे हैं वहीं कवियों को बस एक-दूसरे का ही सहारा है।


तो भाई लोग ये जो भाईचारा बहनापा है ये अक्‍सर पत्रकार का पत्रकार से है और कवि का कवि से- ऐसे में हम शोधार्थी बिरादरी को तव्‍वज्‍हो मिलने की कोई उम्‍मीद नहीं दिखती :(

Friday, July 6, 2007

कथादेश में इंटरनेट का मोहल्‍ला

कथादेश में अविनाश ने इस बार चिट्ठाकारी की भाषा के ताजा विवाद पर अपने विचार रखे हैं-

फेंस के दूसरे किनारे की रेत में लिथड़ी हिंदी
अविनाश
अक्सर हिंदी में साहित्यिक दुकानों की चर्चा होती है. जिनकी जितनी बड़ी दुकान, उसके गुण ग्राहक उतने ही ज्य़ादा. ऐसी ही एक दुकान में इन दिनों अभिधा, लक्षणा और व्यंजना के कारोबार को लेकर हिंदी में चर्चा का बाज़ार गर्म है. नया ज्ञानोदय के नवलेखन अंक, पार्ट वन और टू में युवा लेखकों को जिस अंगभीरता से प्रस्तुत किया गया है, वही ये बताने के लिए काफी है कि संपादक की मंशा और समझ का स्तर क्या है. ये विवाद हिंदी की पत्रिकाओं से अब तक अछूता है, लेकिन ब्लॉगिंग में इस पर खूब बहसें हुईं, हो रही हैं. कर्मेंदु का ज्ञानपीठ के मालिक के नाम पत्र और एक इंटरव्यू (जिसमें उन्होंने जोड़-तोड़ और जाती ज़िंदगियों में जिज्ञासा से भरी हिंदी की ८० के बाद की साहित्यिक बिरादरी पर निशाना साधा), और कुमार मुकुल के ज्ञानोदय की प्रस्तुति पर संक्षिप्त छिद्रान्वेषण आलेख ब्लॉग पर आते ही चर्चा और धमकियों और प्रतिक्रियाओं की गतिविधियां अचानक बढ़ गयीं. यानी जो बहस किन्हीं कारणों से काग़ज की कश्ती से किनारे कर दी गयी, वो इंटरनेटीय अनंत में अब भी तैर रही है. वह भी इतनी आसान पहुंच में, कि कोई भी हाथ उठा कर इन्हें अपनी मुट्ठी में पकड़ सकता है और उन्हें अपनी फूंक से फिर उड़ा भी सकता है.
इस तरह हिंदी के गलियारे में ब्लॉगिंग के बढ़ते हस्तक्षेप का आगे आने वाले दिनों में विस्तार ही होगा. ज़ाहिर है, ब्लॉगिंग अभिव्यक्ति की सबसे लोकतांत्रिक स्थिति होगी. ज़ाहिर है, मन का गुबार उन वर्जित शब्दों में भी यहां निकलने की गुंजाइश है, जिसकी वजह से अभिजात और भदेस के बीच हिंदी में झगड़े का वातावरण रहा है. हालांकि ब्लॉगिंग के बढ़ते (जं)जाल में दुकानें इंटरनेटीय अनंत में भी सज रही हैं. एक ऐसी ही दुकान का ज़िक्र फिलहाल करते हैं, जिसने एक मामूली से शब्द पर हिंदी का एक ब्लॉग प्रतिबंधित कर दिया.
नारद हिंदी का लोकप्रिय एग्रीगेटर है, जो हिंदी ब्लॉग्स के अपडेट्स अपने पन्ने पर फ्लैश करता है. ऐसे और भी पन्ने हैं, लेकिन नारद इसलिए लोकप्रिय है, क्योंकि इसकी सजावट सुखद है, और ये सामूहिक रूप से संचालित होता है, और सभी संचालक हिंदी सेवा के नाम पर नारद के लिए श्रमदान करने से पीछे नहीं हटते. यही वजह है कि नारद सिर्फ एक एग्रीगेटर नहीं है, एक समूह है, जो इंटरनेट पर हिंदी के उज्ज्वल भविष्य की कामना की वैचारिक धरातल पर किसी ब्लॉग को अपने पन्ने पर जगह देता है या नहीं देता है.
कहानी दिसंबर या जनवरी में एक हादसे से शुरू हुई, जब अभिषेक श्रीवास्तव नाम के युवा लेखक-पत्रकार के ब्लॉग (janpath.blogspot.com) को बैन किया गया. गालियों से भरी हुई बनारसी ज़बान का इस्तेमाल करने की वजह से. उस वक्त विरोध की आवाज़ें इसलिए भी नहीं उठी थीं, क्योंकि नारद में बहुसंख्यक जमात प्रतिबंध जैसे संगीन मामलों पर या तो नासमझ थे या फिर उन्हें लगता था कि समाज के परिष्कार के लिए प्रतिबंध एक अनिवार्य सामाजिक हरकत है. लेकिन इस बार नारद के लिए उस हादसे को दोहराना भारी पड़ा.
कहानी असगर वज़ाहत की थी, जो प्रतिरोध नाम के हिंदी ब्लॉग पर छपी- शाह आलम कैंप की रूहें. गुजरातों दंगों के इस मार्मिक विवरण पर नारद संचालकों में से एक संजय बेंगाणी ने टिप्पणी की- अच्छी कल्पना की उड़ान है. आप इसी प्रकार विषारोपण करते रहें, एक दिन ज़रूर ज़हर फैलेगा. यह एक सांप्रदायिक टिप्पणी थी, क्योंकि एक समुदाय विशेष की पीड़ा के बयान की प्रतिक्रिया में की गयी थी. इससे कई लोग तैश खाये, लेकिन राष्ट्रीय सहारा के लिए फ्रीलांसिग करने वाले पत्रकार राहुल कुछ ज्यादा ही उखड़ गये. उन्होंने अपने ब्लॉग बजार पर अवैध अतिक्रमण (bajaar1.blogspot.com) पर लिखा- बेंगाणी एक गंदा नैपकिन है. नारद को यह विशेषण नागवार गुज़रा. बजार पर बैन लगा दिया गया. इस बैन को लखनऊ, हिंदुस्तान में काम करने वाले पत्रकार नासिरुद्दीन (dhaiakhar.blogspot.com) ने तकनीक की सत्ता की तानाशाही कहा. विजेंद्र (मसिजीवी), प्रमोद सिंह (अज़दक), अभय तिवारी (निर्मल आनंद), प्रियंकर (समकाल), अफलातून (समाजवादी जन परिषद), इरफान (टूटी हुई बिखरी हुई), रियाज़ुल हक़ (हाशिया), प्रत्यक्षा (pratyaksha.blogspot.com) से लेकर लंदन में रहने वाले अनामदास (anamdasblog.blogspot.com) और कई अन्य ब्लॉगरों (चिट्ठाकारों) ने इस प्रतिबंध का विरोध किया, लेकिन तमाम लोगों की आवाज़ें अनसुनी कर दी गयी. यानी नारद ने साफ कर दिया कि असहमत लोगों का उनके समूह में कोई काम नहीं.
मोहल्ले पर हमने अपनी असहमति दर्ज की, 'नारद कुछ लोगों का है. ये तकनीक की दुनिया के सक्षम लोग हैं. इन्होंने हिंदी के लिए अपना कीमती वक्त होम किया. इसलिए, क्योंकि इन्हें हिंदी आती है. इन्हें वे प्रार्थनागीत आते हैं, जो मंगलवारी और शनिवारी मंदिर परिक्रमाओं के दरम्यान गाये जाते हैं. वे गीत भी, जो स्कूल की पहली घंटी शुरू होने के पहले कतार में खड़े होकर बच्चे अपनी अधमुंदी आंखों से गुनगुनाते-चिल्लाते हैं. कुछ कुछ नमस्ते सदा वत्सले जैसा गीत भी, जो इस देश से एक पूरी नस्ल को उखाड़ फेंकने की चर्चा शुरू करने के पहले गाया जाता है. ऐसी हज़ार-हज़ार धुनों में सीखी हुई इनकी हिंदी की पवित्रता पर मुझे कोई संदेह नहीं है. ये अपनी हिंदी की सेवा करते रहें, हम इनके यश गाते रहेंगे. मैं अपने लिए एक दूसरी हिंदी चुनना चाहता हूं. थोड़े शब्दों की पवित्र दुनिया चुनने के बजाय वे सारे शब्द अर्जित करना चाहूंगा, जो सभ्यता की फेंस नदी के उस किनारे की रेत में पड़े हैं. मैं मुहावरों की तरह प्रयोग में आने वाली गाली-मिश्रित-हिंदी में भी अभिव्यक्त होना चाहता हूं ताकि मेरे अंतर की स्वीकारोक्तियों का सच्चा मुज़ाहिरा हो सके. इसका एक उदाहरण है, तेरी भैण की... नैपकिन तो कुछ भी नहीं है.`
इस तरह कुछ और ब्लॉगरों ने भी नारद को अलविदा पत्र लिखा. नारद के सांप्रदायिक चरित्र के मद्देनज़र स्चेच्छा से इस एग्रीगेटर से अलग होने वालों की हमारी और हम जैसों की मंशा पर मसिजीवी ने पलटवार किया. कहा कि अगर वैचारिक असहमति, व्यावसायिक कारण, जानकारी के अभाव, आलस्य, जिद, राजनीति या किसी अन्य कारण से किसी चिट्ठाकार को यह लगता है कि उसे नारद की ज़रूरत नहीं है तो इससे स्वयमेव यह सिद्ध नहीं होता कि नारद या हिंदी चिट्ठाकारी को भी उस चिट्ठे की ज़रूरत नहीं है. हो सकता है कि इस बेरुखी के बाद फीड लिये जाने से चिट्ठाकार को नागवार गुज़रे, पर इस पक्ष को साफ समझ लिया जाए कि सार्वजनिक चिट्ठे की फीड किसी की बपौती नहीं है- खुद चिट्ठकार की भी नहीं. चिट्ठे पर क्या लिखा जाए, यह तो चिट्ठाकार ही तय करेगा, लेकिन यदि चिट्ठा सार्वजनिक है, तो उसे कौन पढ़े, इसे तय करने का अधिकार चिट्ठाकार को नहीं है. चिट्ठापाठक होने के नाते हर सार्वजनिक फीड पर सर्वजन का अधिकार है.
यानी सांप्रदायिकता से उठी बहस अभिव्यक्ति की निजता और सार्वजनिक(ता) की तरफ मुड़ गयी... और ये बहस अभी जारी है. नारद और प्रतिबंध मामले में ऊंट किस करवट बैठेगा- फिलहाल तय नहीं है. लेकिन हिंदी में सांप्रदायिक नारद के समानांतर और-और फीड एग्रीगेटर की मांग बढ़ी है, ये ज़रूर साफ हो गया है.
http://mohalla.blogspot.com

Thursday, June 21, 2007

नैपकिन विवाद में नारद आवाजाही

समीर जी हर विवाद के समय झट कही जाकर छुप जाते हैं और उसके शांत होने के बाद शांति-शांति टाईप लहजे में दोनों ओर के भले बनते फिरते हैं- उनका काम कुछ कम हो जाता है इस दौरान कुछ लिखना नहीं है यानि काम 10% कम हो गया और टिप्‍पणी नहीं करनी है काम 75% कम हो गया। बचा सिर्फ इंतजार करना यानि 15 % काम। लेकिन हम शोधार्थी प्रजाति के काम में बढोतरी हो जाती है। अब इस 'नैपकिन विवाद' (क्‍या नाम रखना है समीरजी) को ही लें इसने विवाद काल में हिंदी ब्‍लॉगरो की भाषा का जो चेहरा हमें दिखाया उसे हमने अपने शोध प्रस्‍ताव में पहले जगह नहीं दी थी पर अब पता लगा कि विवाद काल में हिंदी ब्‍लॉगर अपनी सामान्‍य प्रकृति के अनुरूप व्‍यवहार नहीं करता वरन वह कुछ भिन्‍न व्‍यवहार करता है उसकी भाषा वह नहीं रह जाती जो सामान्‍यत: होती है। कहा जाता है कि दंगों के समय भी यही होता है, मनुष्‍य का आचरण अलग हो जाता है। खैर इस विवाद कालीन ब्‍लॉगर भाषा पर हमारा शोधकार्य चल ही रहा है जिसे पूरा हो जाने पर जल्‍द ही साझी करुंगी।
फिलहाल तो ये देखिए कि इस विवादकालीन शोध-अवलोकन में क्‍या हाथ लगा।




ये जो पर्वतमाला के शिखरों की ऊंचाई अचानक बढ़ गई है वह दरअसल नारद आवाजाही में विवाद के दिन हैं। यानि गुणात्‍मक रूप में विवादों से हिंदी चिट्ठाकारी का भला होता है कि बुरा ये तो खुद एक विवाद का विषय है किंतु मात्रात्‍मक रूप से आवाजाही कम से कम 20प्रतिशत तो बढ़ ही जाती है।

क्‍या आशय है इसका- कम से कम इतना तो है ही कि समीरजी जब कहते हैं शांति-शांति तो वे नारद से लोगों को दूर भगा रहे होते हैं। :)

Monday, June 18, 2007

क्‍या कहती है नारद की रायशुमारी

हिंदी चिट्ठा जगत में नारद की भूमिका अत्यंत सक्रिय एवं क्रांतिकारी रही है ! यह संस्था अपनी भूमिका एवं उसके निर्वहन की शैली को लगातार खोजते - बनाते चलती है ! इसका कार्य हिंदी चिट्ठों का सतत दस्तावेजीकरण करना , हिंदी चिट्ठों को ‘एक’ मंच प्रदान करना , तथा हिंदी चिट्ठों के पाठकों को आवाजाही का एक सुगम माध्यम उपलब्ध कराना है ! नारद की हिंदी चिट्ठा जगत में भूमिका एवं योगदान के विषलेषण पर एक अलग पोस्ट लिखी जाएगी ! फिलहाल चिट्ठाकारिता के विभिन्न आयामों पर नारद द्वारा कराए गए मत -संग्रह के परिणाम हमारे सामने हैं , इन परिणामों पर विचार करने पर ब्लॉगिंग से जुडे कुछ बुनियादी सवालों के जवाब हमारे सामने एक साफ तस्वीर उभारते हैं !

नारद द्वारा चिट्ठाकारों/पाठकों से पूछे गए प्रश्न निम्नवत हैं –

आप महिला चिट्ठाकार/पाठक है या पुरुष चिट्ठाकार/पाठक ?

आपकी उम्र कितनी है ?

ब्लॉगिंग करने से आपकी सोच में क्या सकारात्मक परिवर्तन आया ?

आपका चिट्ठा मुख्यत: किस प्रकृति का है?

आप दिन भर में कितनी टिप्पणियां करते हैं ?

आप ब्ळॉग कहां से अधिक देखते / पढते हैं ?

आपका ब्लॉग कहां पर है ?

आप नारद पर कितनी बार आते हैं ?

क्या आप नारद पर हिटकांउटर चाहते हैं ?




इस मत संकलन के परिणाम नारद पर उपलब्‍ध हैं। इससे पहले इस बात पर राय व्‍यक्‍त करें कि इन परिणामों के निहितार्थ क्‍या हैं, यह स्‍पष्‍ट कर दिया जाए कि शोध प्रविधि की दृष्टि से इस तरह के मत संग्रहों की सीमाएं होती हैं तथा ये अनिवार्यत: वस्‍तुस्थिति को प्रकट नहीं भी करते हैं।

अस्‍तु, पाठकों व चिट्ठाकारों में स्त्री-पुरुष अनुपात चौकाने वाला है ! यह आंकडा 20% स्त्री चिट्ठाकार/ पाठक और 80% पुरुष चिट्ठाकार/पाठक दिखाता है ! यह परिणाम पुरुषों के मुकाबले अत्यंत कम स्त्री संवाद को रेखंकित करता है ! यहां यह भी जानना जरूरी हो जाता है कि स्त्री-पुरुष चिट्ठाकारों द्वारा पोस्ट लिखने का औसत अनुपात क्या है ? और इस अनुपात के समाजशास्त्रीय कारणों की खोजबीन भी एक अलग मुद्दा है !

हिंदी ब्लॉग जगत में 47% चिट्ठाकार 25 से 34 साल के हैं ! 22% 18 से 24 साल के और 19% 35 से 49 साल के ! यदि इन परिणामों को चिट्ठों की प्रकृति वाले सवाल पर मिले मतों से मिलान कर देखें तो तस्वीर साफ होती है ! समसामयिक मुद्दों पर 36% तथा कविता आदि पर 26% , हास्य व्यंग्य पर 13% , तकनीक पर 6% चिट्ठे केन्द्रित हैं ! हम साफ देख सकते हैं कि युवा जन द्वारा समसामयिक मसलों पर सबसे ज्यादा चिट्ठे लिखे जा रहे हैं ! यूं भी यदि हास्य व्यंग्य के चिट्ठों को देखा जाए तो उनमें भी समसामयिक मसलों को केन्द्र बनाया गया है ! कविता, शेरो शायरी , कहानी कडीबद्ध उपन्यास के रचना -बिन्दु भी देशकाल के ज्वलंत मुद्दे हैं !

ब्लॉगिंग करने से सोच में आए सकारात्मक बदलावों पर 56% मत दिखते हैं जबकि 26% मतों के अनुसार अभी मंथन चल रहा है—यह आंकडा साफ तौर पर बताता है कि चिट्ठाकारिता चिट्ठाकारों तथा उनके पाठकों के लिए परिवर्तनकारी भूमिका निभा ने वाला माध्यम है ! यह परिवर्तन सकारात्मक है जिसका संबंध लगातार के लेखन एवं पठन से है ! आंकडे जाहिर करते हैं कि अधिकतर चिट्ठाकारिता चिट्ठाकार अपने घरों से करते हैं (68%) एवं 28% ऑफिस से ! नियमित लेखन-पठन से न जुडे होने और अपनी व्यावसायिक भूमिकाओं के बावजूद चिट्ठाकारी के लिए अपने सीमित समय में से अधिकतम वक्त निकालने का प्रयास पोस्टों पर दी गई पाठकीय टिप्पणी के आंकडे जाहिर करते हैं ! टिप्पणी करने का वक्त नहीं निकाल पाने वाले केवल 16% चिट्ठाकार/पाठक हैं! नारद की हिंदी चिट्ठाकारिता को मजबूत मंच प्रदान करने वाली भूमिका लगातार जटिल होती जा रही है अत: इस तरह के मत- संग्रहों की जरूरत भी लगातार बढ रही है !

Monday, May 28, 2007

बुरी हिंदी की अच्छी चर्चा-चिंता करते ब्लॉग

हिंदी चिट्ठाकारी पर कथादेश में लिखे जा रहे अविनाश के मासिक स्‍तंभ की तीसरी किस्‍त हाजिर है।

इंटरनेट का मोहल्ला

बुरी हिंदी की अच्छी चर्चा-चिंता करते ब्लॉग

अविनाश

हिंदी की चिंता करते हुए सुधीश पचौरी जब अनउलटनीय जैसे भाब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं, तो भाषा के शास्‍त्रीय संस्कारों वाले हमारे दोस्तों को लगता है कि इस तरह का प्रयोग एक ऐसे ज़लज़ले की तरह है, जो हमारी भाषा को खत़्म कर देगा। वहीं कुछ लोग हिंदी में समंदर पार के लोकप्रिय और सहज शब्दों की आवाजाही की वकालत करते हैं। कहते हैं, अंग्रेज़ी इसलिए फैल रही है, क्योंकि उसकी शब्द सामर्थ्य फैल रही है। उदाहरण के तौर पर ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी की बात बताते हैं। कहते हैं कि हर संस्करण में दूसरी भाशाओं के कुछ-एक शब्द जुड़ जाते हैं। यह किसी भी भाषा के अमीर होने का राज़ है कि उसकी खिड़कियां खुली है। अंग्रेज़ी के संदर्भ में इस बात का हामी होने के बावजूद हमें अंग्रेज़ी के फैलने की ज्यादा वज़ह उसके साम्राज्य का फैलना लगता है।

बहरहाल, शब्द ज़रूरी हैं और हिंदी में शब्द कम हो रहे हैं। यही वजह है कि इस भाषा में रचे जाने वाले साहित्य का असर उसके समाज पर नहीं है। किताबें कम बिकती है और सरकारों को कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कोई क्या लिख रहा है। इसके बावजूद कि हर साल कुछ स्वायत्त सरकारी संस्थानों की तरफ से हिंदी के मेधावी लोगों को पुरस्कार मिलते हैं और बाकी मेधावी लेखकों को पुरस्कार पायी किताब की सामाजिक ज़रूरत से ज्यादा ईर्ष्या भाव से मुठभेड़ करनी पड़ती है। ऐसी हिंदी में किसी बड़े लेखक के साहित्य के अधिकांश भाग को कूड़ा कहने पर नामवर सिंह फंस गये हैं। वे फंस इसलिए गये, क्योंकि उन्होंने ऐसी हिंदी में लिखने से ज्यादा बोलना ज़रूरी समझा। अगर बोलने की तादाद में लिखा होता, तो वे ऐसे बयान से पहले अपनी तरफ देख गये होते और तब बनारस की अदालत का मूर्ख न्यायाधीश उन्हें सम्मन नहीं भेज पाता।

खैर, हिंदी जैसी है, उसे वैसी ही रहने दिये जाने की तरफदारी अनामदास नहीं कर रहे। वे यूएसए में रहते हैं। उनका असली नाम क्या है, किसी को नहीं मालूम। किसी को... मतलब... इंटरनेट पर हिंदी में सक्रिय उन तमाम ब्लॉगरों को, जो अनामदास के लेखन के कायल हैं। उनके ब्लॉग का पता है: http://anamdasblog.blogspot । वे लिखते हैं,
'आप उतने ही शब्द जानते हैं, जितनी आपने दुनिया देखी है। शब्द भंडार और अनुभव संसार बिल्कुल समानुपाती होते हैं।` इस इंट्रो के साथ वे बताते हैं कि अगर आप ये नहीं जानते, तो आपने ये नहीं किया और वो नहीं जानते तो आपने वो नहीं किया। इस तरह वे लिखते हैं, 'करनी, साबल, खंती, गैंता, रंदा, बरमा जैसे शब्द अगर आपको नहीं मालूम, इसका मतलब है कि आपके घर में मज़दूरों और बढ़ई ने कभी काम नहीं किया या फिर वे क्या करते हैं, क्यों करते हैं, कैसे करते हैं, इसमें आपकी दिलचस्पी नहीं रही।`

ब्लॉग लेखन में सहूलियत ये है कि इसमें सृजन की पैदाइश के चंद मिनटों बाद ही लेखक से सीधे संवाद संभव है। हमने टिप्पणी की, 'आपकी बात सटीक है। शब्दों को लेकर हमारी साकांक्षता कैसी है, रही है- से ही हमारा शब्द संसार बीघा दर बीघा बढ़ता है। लेकिन आप सोचिए, उन किरायेदारों के बच्चों के पास कैसे शब्द आएंगे, जिनकी अपनी कोई ज़मीन, कोई कस्बा, कोई शहर न हो। मकान मालिक को घर में कुछ नया बनवाना होता है, तो घर खाली करने के लिए कह देता है। इस तरह बढ़ई की भाषा से हम अनजान रहते हैं। मकान मालिक कहेगा, मछली नहीं खाना है, तो मछली बाज़ार के शोरगुल में छिपा संगीत और मछलियों की किस्मों से हमारा रिश्ता सिमटता जाएगा। इस तरह जो इस देश में किरायेदार होने के लिए अभिशप्त हैं, उन्हें अपनी भाषा को लेकर जो कुंठा है, और अगर वे कुंठाएं कुछ शब्दों में ही बाहर आती हैं, तो क्या हम उन्हें मूर्ख कहेंगे?`

इस पर प्रमोद सिंह ने अपने ब्लॉग (http://azdak.blogspot.com) पर अच्छी हिंदी की दूसरी किस्त में लिखा, 'आप किराये के घरों में रहे हों या पिता-परिवार के रोज़गार के चक्कर में अजाने/अपनाये प्रदेशों में, आपकी भाषाई संस्थापना को वह ज़रा ऐड़ा-बेड़ा तो कर ही डालता है। विस्थापन और बेगानेपन में शाब्दिक संस्कार की वह वैसी नींव नहीं डालता, जो आपको तनी रीढ़ के साथ चाक-चौबंद दुरुस्त खड़ा करे। मगर साथ ही यह भी सही है कि इस अजनबीपन के अनजाने लोक में नये अनुभवों (शब्दों) की खिड़की भी खुलती है। अब यह आपको तय करने की बात है कि ये नई खिड़कियां आपकी (मानक) भाषाई हवेली में खुलेंगी या नहीं। ऐसी नयी हवाओं का वहां स्वागत होगा या वे दुरदुराई जाएंगी।`

हिंदी की पत्रकारीय ज़मीन पर ये विमर्श एकतरफा हो रहा है। सुधीश पचौरी को उनके लिखे पर प्रशंसा या लानत-मलामत से भरी पातियों की संख्या यकीनन नगण्य होगी। हिंदी थिसॉरस बना कर अरविंद कुमार रातोंरात जाने ज़रूर गये, लेकिन तमाम इंटरव्यू में वे इस सवाल से यकीनन बोर हो गये होंगे कि इस काम को करने में आपको कितने दिन लगे या इतने बड़े काम को आपने अंजाम कैसे दिया। अगर इनका काम वेब स्पेस के जरिये जारी होता, तो ब्लॉगिंग वाले सुधीश पचौरी से सवाल कर सकते हैं कि आप जिन नवीन शब्दों के साथ अपनी हिंदी मांज रहे हैं, उनके स्रोत क्या हैं। क्या वे स्रोत हिंदी के आम जन हैं, या वे जनविमुख पत्रिकाएं, जो महंगी दुकानों में पन्नी वाली ज़िल्द में मिलती हैं! मुझे लगता है कि अभी वेब स्पेस में ज्यादा लोकतांत्रिक तरीके से विमर्श को अंजाम दिया जा रहा है। चाहे वह हिंदी की बात हो या हिंदी समाज की बात हो। यही वजह है कि हिंदी के जिन पूर्व परिचितों के पास कंप्यूटर और इंटरनेट की सहूलियत आ रही है, वे ब्लॉगिंग शुरू कर रहे हैं। पागलदास कविता से मशहूर हुए बोधिसत्व (http://vinay-patrika.blogspot), समकालीन जनमत की संपादकीय टीम के सक्रिय सदस्य चंद्रभूषण (http://pahalu.blogspot.com) और इरफान (http://tooteehueebikhreehuee.blogspot) और अर्थशास्त्र और व्यंग्य को समान रूप से साधने वाले आलोक पुराणिक (http://puranikalok.blogspot) इन दिनों ब्लॉग पर हर रोज़ कुछ न कुछ लिख रहे हैं। हम कह सकते हैं कि इस नये हथियार का स्वीकार हिंदी 'मन` के लिए ज़रूरी है, और जिस तरह से हिंदी के अखब़ार और पत्रिकाएं ब्लॉगिंग का ज़िक्र कर रही हैं, ये रोज़ाना इस्तेमाल की चीज़ हो जाएगी।

http://mohalla.blogspot.com

Saturday, May 5, 2007

अभिव्यक्ति के दरवाज़े पर इंटरनेटीय अनंत की दस्तक

जैसा कि वायदा था, पेश है कथादेश में अविनाश के चिट्ठाकारी पर जारी स्‍तंभ का पहला लेख जो कथादेश के अप्रैल अंक में प्रकाशित हुआ।

अभिव्यक्ति के दरवाज़े पर इंटरनेटीय अनंत की दस्तक

अविनाश

साहित्य की ‘शुरुआत नीली स्याही से हुई होगी। पहले तालपत्र, फिर एक अदद कलम और तब सादा काग़ज। मानस तालपत्र पर लिखा गया होगा, लेकिन १८वीं और १९वीं सदी की महान कृतियों को काग़ज के कारखानों ने संजीवनी दी। छापेखानों ने इसे धरोहर होने के लिए ज़मीन दी। फिर टाइपराइटर के शोर में खामोश दिमाग से लिखी गयी कई किताबों को नोबेल प्राइज़ भी मिला। धीरे-धीरे लिखना-पढ़ना कारोबारी तकनीक की तरह नये नये ईजाद से सहारा पाने लगा। अब ढेर सारे लोग कंप्यूटर पर लिखते हैं। ये ईजाद मन की दौड़ के हिसाब से आपका सृजन पन्नों पर उतारता है।

उदारीकरण के बाद देश के दफ्तर कंप्यूटर के हवाले हो गये। हालांकि अब भी आदमियों की दरकार खत़्म नहीं हुई, क्योंकि मशीनें मेमोरी से तो भरी होती हैं, लेकिन मस्तिश्क से महरूम। इस देश में साक्षर आबादी का १५ फीसदी हिस्सा दफ्तरों में जाता है। श्रम के लिए कायदे से महीने में तनख्वाह पाता है। हिंदी साहित्य को इसका दशमांश भी नहीं पढ़ता है और लिखने वालों की तादाद दशमलव कुछ कुछ फीसदी है। दशमलव कुछ कुछ का ये तबका अभी भी अपनी लेखकीय प्रतिबद्धताओं को लेकर मानकीकरण का शिकार है। कि वाक्य ऐसे लिखे जाते हैं, कविता कुछ इसी तरह से फूट सकती है, कहानियां सिर्फ पात्रों की ही हो सकती है, और बेहतर लिखाई तो सिर्फ कलम से ही हो सकती है।

आज इंटरनेट का वक्त है, और तमाम तरह के मानकीकरण के ध्वस्त होने का भी वक्त है। अब किताबों के लिए प्रकाशक नहीं चाहिए। आप लिखें, कंप्यूटर पर डालें और इंटरनेट से दुनिया भर के लिए जारी कर दें। लोग इत्मीनान से पढ़ना चाहेंगे, तो दफ्तर से प्रिंट आउट निकाल लेंगे। इतनी चोरी के लिए हमारी नैतिकता भी जगह दे देती है। हम बात करेंगे कि इंटरनेट कैसे हमारी सभ्यता को एक नयी शक्ल दे रहा है, अभिव्यक्ति के रास्तों पर कैसे कोलतार बिछा रहा है और विधाओं के मानकीकरण में कैसे तोड़-फोड़ मचा रहा है। इन मसलों पर बात अवधारणा और परिभाशाओं की ज़मीन पर करने से बेहतर है कुछ मसलन, जिसे खांटी हिंदी में उदाहरण के तौर पर कहते हैं, उसमें बात की जाए।

मसलन... सदी के शुरू में बहुत सारी किताबों के साथ प्रेमचंद का सोज़े-वतन प्रतिबंधित किया गया। साठ के दशक में नक्सली किताबें रखने वालों को कैद मिली और बहुधा इनकाउंटर भी मिला। दुनिया में आज भी किताबें बैन हो रही हैं, लेखकों को दरबदर होना पड़ता है और मौत के फतवे सुनाये जाते हैं। एक हादसा पिछले दिनों मिस्र के अलेक्ज़ेन्ड्रिया भाहर में हुआ, जब एक ब्लॉगर को व्यवस्था के विरोध में आर्टिकल लिखने के लिए चार साल की कैद हो गयी। २२ साल के अब्दुल करीम नाबिल नाम का ये भाख्स मिस्र के मशहूर अल-अज़हर युनिवर्सिटी का छात्र था और अपने ब्लॉग पर वो युनिवर्सिटी की खामियों के बारे में लिखा करता था।

अपने मुल्क में भी हिंदी के ब्लॉगरों पर २००६ के जुलाई महीने में बैन लगा दिया गया था। लेकिन मीडिया ने सरकार को इस सवाल पर सांसत में डाल दिया और आखिऱकार बैन हटाना पड़ा। ये ब्लॉग है क्या चीज़? एक डॉट कॉम होता है। पूरी की पूरी वेबसाइट- जैसे हंस, तद्भव, बीबीसी, गूगल और याहू। ये पत्रिका की तरह काम करती है। इसे एक समूह संचालित करता है और इसके लिए वेब स्पेस खऱीदनी पड़ती है। ब्लॉग के लिए आपको ऐसा कुछ नहीं करना पड़ता। गूगल, वर्डप्रेस और बहुत सारी वेबसाइट आपको अनगिनत पन्ने सौंपता है, और कहता है कि चाहे तो पूरी रामायण लिख लो। फिर आप अपनी पहली चौपाई लिखते हैं और चंद सेकेंड में आपकी चौपाई हवा में तैरने लगती है। धरती के किसी भी कोने में बैठा हुआ आदमी उसे गुन सकता है।

पूरी दुनिया में ब्लॉग क्रांति पिछले दशक का इजाद है। इसने अभिव्यक्ति के नये दरवाज़े खोले। ग्रुप ब्लॉग के ज़रिये ग्रुप नॉवेल भी लिखे गये। राजनीतिक प्रचार के हथकंडे की तरह इसका इस्तेमाल हुआ, और अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिल़ाफ़ तथ्य रखे गये। इराक युद्ध के बारे में ब्रिटेन और इराक के ब्लॉग्स पर लिखा गया कि ये मनुश्यता के निशेध का वीभत्सतम अभियान है। बहरहाल ब्लॉग, तकनीकी दुनिया के भाशाई संस्कारों वाले लोगों के लिए अभिव्यक्ति का नया औज़ार है। इतना आसान, कि पारंपरिक तरीकों से लेखन के रियाज़ वाले लोग भी इसमें दखल दे सकें।

अब आखिऱ में एक ब्लॉग चर्चा। रवीश कुमार एनडीटीवी इंडिया में रिपोर्टर हैं। उनका ब्लॉग है: कस्बा (http://naisadak.blogspot.com/)। वे रोज़ इस पर कुछ न कुछ लिखते हैं। १५ मार्च को उन्होंने पोस्ट किया- मुंशी प्रेमचंद की पहली विदर्भ यात्रा। सामाजिक कल्पनाशीलता का ऐसा मार्मिक वृत्तांत कि पढ़कर रोने को जी करता है। एक हिस्सा कुछ इस तरह है-

हमारी खब़र पर भी सरकार का असर नहीं होता। पी साईंनाथ की खब़रों पर भी कोई असर नहीं। साईंनाथ तो विदर्भ के किसानों के पीछे पागल हो गये हैं। सुप्रिया धीरे से कहती है- मुंशी जी इस बार कुछ नया लिख दीजिए ताकि आपको बुकर मिल जाए और किसानों को रास्ता। मगर इस बार किसानों को नियतिवाद में मत फंसाना। मत लिखना कि किसान कर्ज में जीता है और कर्ज में मरता है।

वक्त मिले तो आप ज़रूर पढ़ें। इस बार इतना ही। अगली बार इंटरनेटीय अनंत के कुछ सामाजिक-सांस्कृतिक रूपक से हम आपको वाबस्ता कराएंगे।

अविनाश http://mohalla.blogspot.com/

Wednesday, May 2, 2007

अविनाश का मोहल्‍ला कथादेश में

मई माह की कथादेश आज ही मिली। देखा तो इस बार फिर अविनाश ने इस पत्रिका में चिट्ठाकारी पर लिखा है। पता करने पर जानकारी मिली कि अब वे कथादेश में चिट्ठाकारी पर नियमित स्‍तंभ लिख रहे हैं। अप्रैल अंक और मई अंक दोनों के लेख व्‍यतिक्रम से प्रस्‍तुत हैं।
मई अंक से अविकल

इंटरनेट का मोहल्‍ला

रचना की रफ्तार से पड़ते हैं जहॉं वार

पूरी दुनिया अपने अपने कारोबार में लगी है। हमेशा से लगी रही है। कारोबारों के बगैर ये दुनिया शायद ऐसी नहीं होती, जैसी है। खेती, किसानी, मजदूरी, मालिक-मुख्तारी, नेतागिरी, दलाली इन कारोबारों का हिस्सा रही है। सबने इस दुनिया को अपने अपने तरीके से बनाने की कोशिश की है। इन सामूहिक कोशिशों की बदौलत ही ये दुनिया न स्वर्ग है न नरक। अपनी जैसी है, जहां खुशी, दुख, ईर्ष्या और दोस्ती-कुर्बानी के संस्कारों के साथ हम मौजूद हैं। फिर वो खलिश कौन सी है, जो हमारी इस दुनिया में एक और दुनिया खोजने के लिए चिंतित करती रहती है? गवैये के पास सबसे अच्छे सुर और खोज की चिंता रहती है, धावक उड़ने के ख्व़ाब देखता है। प्रेमचंद के पास पुश्तैनी थोड़ी जायदाद थी, बाद में अपना प्रेस हो गया। आराम से खा-पी सकते थे, क्यों बेवजह कहानियां लिखते थे। मुक्तिबोध के पास जितना दिमाग था, वो अच्छी कंपनी के डाइरेक्टर हो सकते थे, लेकिन अभिव्यक्ति की त्रासद पीड़ा ने उन्हें हमेशा गऱीब रखा। दरअसल बहुत कुछ होने और संतोष के परम भाव के बाद भी बची हुई थोड़ी-सी अतृप्ति आदमी को उस वीरान टीले पर ले जाती है, जहां खड़े होकर वह ज़ोर-ज़ोर से चीख सके। दुनिया को बता सके कि... हम भी हैं, तुम भी हो, आमने-सामने।

पूरी दुनिया में अपनी संवेदना को शब्दों के जरिये कहने की बेचैनी दरअसल यही है। हम भी हैं, तुम हो, आमने-सामने। कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें। लेकिन काग़ज पर लिखा हुआ बहुत देर तक एकालाप की तरह गूंजता है। लेखक की आंखों में घूमती हुई स्याही कई तरह के चित्र बनाती है, लेकिन इन चित्रों की कद्र होने में कई बार बहुत देर हो जाती है। इंटरनेट पर ब्लॉग्स के जरिये सामने आ रही लिखत-पढ़त को बहुत जल्दी कद्रदान भी मिल रहे हैं और थू-थू करने वाले भी। अंग्रेज़ी में कई ब्लॉगर हैं, जो दरअसल तकनीकवेत्ता हैं- जब भी फुर्सत मिलती है, वे कुछ टिप्स अपने ब्लॉग पर छोड़ते हैं। हिंदी में भी हैं, जैसे
रवि रतलामी (http://raviratlami.blogspot.com/), जितेंद्र चौधरी (http://www.jitu.info/merapanna/)... और ये लोग हर रोज़ या दो-तीन दिनों पर कुछ नयी बातें बताते हैं कि इंटरनेट से जुड़ी तकनीक में कहां-कहां क्या-क्या इज़ाफा हुआ है। हिंदी के लिए कितनी सहूलियतें उन इज़ाफों में शामिल हैं। लेकिन हिंदी में इन सूचनाओं को बांटने का आंदोलनी जज्ब़ा ज्य़ादा है। वरना एक हैं अमित अग्रवाल (http://labnol.blogspot.com/), अंग्रेज़ी ब्लॉगर, जिनकी एक दिन की कमाई है एक हज़ार डॉलर। यानी हर रोज़ क़रीब पैंतालीस हज़ार रुपये। हालांकि हिंदी कभी इस आमदनी तक नहीं पहुंचेगी, लेकिन अभिलाषा पालने वाले दर्जनों ब्लॉगर हिंदी में लगे-पड़े हुए हैं। कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे हिंदी के बहुत सारे लेखक कभी अनायास बुकर या नोबल मिल जाने की ख्वाहिशों का खुशी देने वाला गम़ पाले हुए कुछ महान लिखने की कोशिश में रत हैं।

हिंदी का एक कवि किसी पत्रिका से हज़ार रुपये का मेहनताना पाकर परम प्रसन्नचित्त रहता है, वैसे ही हिंदी के बहुधा ब्लॉगर एक-एक टिप्पणी से निहाल रहते हैं। अभी तक सर्वाधिक टिप्पणियों रिकॉर्ड सृजनशिल्पी (
http://srijanshilpi.com/) नाम के एक सज्जन के खाते में है, जिनकी सुभाष चंद्र बोस को कर्ण बताने वाले एक शोधपरक रचना पर कुल ४२ क्रिया-प्रतिक्रिया हुई थी। अनूप शुक्ला नाम के एक सज्जन लिखते हैं- इन विचारों से यह लगता है कि गांधी-नेहरु राष्ट्रनायक न होकर एकता कपूर के सीरियल के कोई कलाकार थे जो तमाम दूसरे लोगों को अपने रास्ते से हटाने की जुगत में ही लगे रहे। अब ऐसी बहसों से हिंदी को आज़ाद हो जाना चाहिए, लेकिन हिंदी ब्लॉगिंग अभी रामचरितमानस से शुरू होना चाह रही है। लेकिन कुछ संजीदा किस्म के लोग अब भी आगे की बहसों को उठा रहे हैं, जो वाकई समय की पेचीदगियों से मुठभेड़ करती हैं। कई सारे ब्लॉगरों को ऐसी टिप्पणियां मिलती रही हैं, जो किसी नाम से नहीं होतीं। वे बेनाम टिप्पणियां होती हैं। बेनाम प्रतिक्रियाओं के संसार की एक सहूलियत ये है कि इसमें नौकरियां बच जाती हैं और दोस्त दुश्मन होने से रह जाते हैं, लेकिन एक दूसरी सहूलियत है आज़ादी के एक नये क्षितिज की है। इन बेनाम चादरों की सहूलियतों पर हिंदी ब्लॉगिंग में जम कर बहस हुई।

मसिजीवी (
http://masijeevi.blogspot.com/) नामधारी ब्लॉगर ने कहा- मुझे मुखौटा आज़ाद करता है... ध्यान दें कि खत़रा यह है कि यदि आप इसे वाकई मुखौटों से मुक्त दुनिया बना देंगे तो ये दुनिया बाहर की 'रीयल` दुनिया जैसी ही बन जाएगी- नकली और पाखंड से भरी। आलोचक, धुरविरोधी, मसिजीवी ही नहीं, वे भी जो अपने नामों से चिट्ठाकारी (ब्लॉगिंग) करते हैं, एक झीना मुखौटा पहनते हैं, जो चिट्ठाकारी की जान है। उसे मत नोचो- ये हमें मुक्त करता है।

हिंदी ब्लॉगिंग इंटरनेट पर अभिव्यक्ति का ऐसा ईजाद है, जो पर्देदारी को आज़ादी का एक और आयाम बताता है और जिस पर्देदारी में आप अपना आस-पड़ोस बिना संकोच के उघाड़ सकते हैं। और उस उघड़न पर चंद मिनटों में लाठी-बंदूक का वार भी पड़ जाएगा। सो इंतज़ार कीजिए, हिंदी ब्लॉगिंग आने वाले वक्त में हज़ारों मंटो-इस्मत की कतार खड़ी करेगा।

अब आखिऱ में एक ब्लॉग चर्चा। अभय तिवारी मुंबई में सिनेमा-सीरियल के लिए लिखते हैं। पिछले दिनों उन्होंने एक नन्हा-सा चिट्ठा लिखा था- ऐ लम्बरदार, जियादा लंतरानी ना पेलो। कुछ इस तरह...

गांव-कस्बे के सहज बोल बचन हैं- ऐ ना पेलो के अलावा, यहां जो बाकी शब्द हैं, उनका मूल अरबी भाषा में है। लम्बरदार बिगड़ा हुआ रूप है अलमबरदार का। अलम का मायने है झंडा, और बरदार फ़ारसी का प्रत्यय है, जिसका अर्थ है उठाने वाला। तो झंडा लेकर आगे-आगे चलने वाले को अलमबरदार कहा जाता है। और अपनी देशज भाषा में भी इसका लगभग यही अर्थ है। नेता मुखिया के लिए प्रयुक्त होता है। जियादा में ज़ियाद: फेरबदल नहीं हुई, मगर लन्तरानी! लन्तरानी का अर्थ है, 'तू मुझे नहीं देख सकता`। अयं? ये शब्द है कि वाक्य? असल में ये वाक्य ही है, जो ईश्वर ने मूसा से कहा है। जब मूसा ने उनको देखने की इच्छा प्रगट की। ईश्वर का यहां पर तौर ये है कि कहां मैं सर्वशक्तिमान ईश्वर और कहां तू एक अदना मनुष्य। इसी मूल भावना को ध्यान में रख कर इस वाक्य का प्रयोग एक मुहावरे के बतौर होता है। बहुत-बहुत बड़ी बड़ी बातें पेलने वाली प्रवृत्ति को चिन्हित करने के लिए। इतनी मासूम सी बात है, क्या आप को लग रहा है कि मैं लनतरानी पेल रहा हूं?

अगली बार हिंदी ब्लॉगिंग की भाषा के चंद रूपक पेश करेंगे।
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(अप्रैल अंक के स्‍तंभ को पोस्‍ट करने की व्‍यवस्‍था भी की जा रही है। लिंकन आदि करने के पश्‍चात बाद में पोस्‍ट किया जाएगा।)


Thursday, April 26, 2007

साथी चिट्ठाकार पर एक नजर – प्रत्यक्षा --या कहूं कि प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या

साथी चिट्ठाकारों पर लिखना कोई आसान काम नहीं !सुनील दीपक जी पर लिखते हुए मैंने जाना ! फुरसतिया जी को आकर सुझाव देना पडा कि कम लिखा गया है शोध कार्य जरा मेहनत से किया जाए ! थोडी विवादी बयार भी चलने को हुई यूनुस भाई के रहमों करम से पर रवि जी ने संभाल लिया यह कहकर कि यह तो धर्म का काम काम है गीता या कुरान पढने के समान ! सो संतोष और सब तरफ सुकून पाकर लिखने बैठे ! इधर विवादों के घेरे में से समकाल की मसीहाई आवाज भी सुनाई दी कि बेकार के मामालों पर वक्त बेकार करने कि बजाए ---




लिखना चाहिए था घुघुती बासुती,प्रत्यक्षा,रत्ना,अन्तर्मन,रचना और नीलिमा जैसे
स्वरों पर जो दो मोर्चों पर लडते हुए भी इस हिंदी चिट्ठा संसार को नई भंगिमा दे रहे हैं.

तो हम भी सोचे कि एक एक करके इन साथियों पर लिखा जाए ! आज प्रत्यक्षा जी को चुना !
वैसे जब हम नए नए आए थे तो प्रत्यक्षा जी ने हमें अपने 5 शिकारों में लिस्टित किया था और हमने कहा कि मुजरिम हाजिर है प्रत्यक्षा जी ! खुद शिकार बनी प्रत्यक्षा जी ने अपने बारे में बताते हुए जो कहा हमने उसमें भी उनके चिट्ठाकार व्यक्तिव को देखने की कोशिश की-



“चौथी बात ..... कभी नहीं सोचा था कि चिट्ठा लिखूँगी । मैं अपने को एक बहुत प्रायवेट पर्सन समझती थी । आसानी से नहीं खुलने वाली । चिट्ठाकारी ने ये मुगालता अपने बारे में खत्म कर दिया । चिट्ठाकारी के माध्यम से अंतर्मुखी व्यक्तित्व के खुलने की बात को स्वीकार करते हुए वे बताती हैं कि यह संक्रामक रोग उन्हें किस कदर अजीज है और इससे मिलने वाला आनंद कैसा है - ” छूत की बीमारी एक बार जो लगी सो ऐसे ही छूटती नहीं..... तो बस हाजिर हैं हम भी
यहाँ.....इस हिन्दी चिट्ठों की दुनिया में लडखडाते से पहले कदम.......चिट्ठाकरों को पढ कर वही आनंद मिल रहा है जो एक ज़माने में अच्छी पत्रिकओं को पढ कर मिलता था......सो चिट्ठाकार बँधुओं...लिखते रहें, पढते रहें और ये दुआ कि ये
संख्या दिन दो गुनी रात चौगुनी बढती रहे.......”


प्रत्यक्षा के लिए..बाहर की बेडौल दुनिया का सही इलाज है रचनाकार के शब्द कटार सी तेज धार वाले विद्रोह के खून से रंगे वे शब्द जब बीन बजाने पर सांप की तरह फुंफकारते हुए पिटारी से बाहर आते हैं तब इन पर अंकुश लगा पाना किसी की मजाल नहीं- गौर फरमाएं-


आपके ख्याल में दुनिया बडी बेडौल है ? सही फरमाया आपने जनाब!
पर इसका
भी इलाज है मेरे पास..
और भी शब्द हैं न मेरे पास...
इन्हें भी देखते जाईये.......
इन्हे देखिये..ये खून से रंगे शब्द हैं..विद्रोह के......ये तेज़ धार कटार हैं….
संभलिये..वरना चीर कर रख देंगे....बडी घात लगाकर पकडा है इन्हे...कई दिन और कई रात लगे, साँस थामकर, जंगलों में, पहाडों पर , घाटियों में, शहरों में पीछा
करके ,पकड में आये हैं..पर अब देखें मेरे काबू में हैं.....
बीन बजाऊँगा और ये साँप की तरह झूमकर बाहर आ जायेंगे..ये हैं बहुत
खतरनाक, एक बार बाहर आ गये तो वापस अंदर डालना बहुत मुश्किल है”


चिट्ठाकारी की अदा से भीतर का ताप- आक्रोश बाहर चिट्ठों के रूप में क्या सकारात्मक
रूप ले लेता है यह तो उनके चिट्ठों को पढकर बखूबी जाना जा सकता है ! यहां की दुनिया में इन शब्दों को सच्चे सहृदय भी तो मिलते हैं—


जब कद्रदान मिलें, तब इन्हे बाहर निकालूँगा



प्रत्यक्षा का सच्चा सीधा चिट्ठाकार व्यक्तित्व उनके उन चिट्ठों से सामने आता है जिनमें वे रसोई में बने छुट्टी के दिन के नाश्ते से लेकर गुड के बनने की मिठास तक पर लिखती हैं ! यही कारणे है कि उन्हें चिट्ठा जगत के विवादों में भी पडना नहीं भाता वे तो तब परेशान होती हैं जब


पर मुझे
इनसे परेशानी नही
परेशानी तो तब होती है
जब सही, गलत हो जाता है
सफेद काला हो जाता है

परेशानी में उन्हें इरफान की कहानी लिखनी पडती है !




“ अब आप बतायें ये और हम , हिन्दू हैं या मुसलमान , या सिर्फ इंसान ।
दोस्ती , भाईचारा ,देशप्रेम . किसमें एक दूसरे से ज्यादा और कम । और क्यों साबित करना पडे । जैसे एक नदी बहती”

प्रत्यक्षा का साहित्य प्रेमी मन उनकी हर पोस्ट में झलकता है गुलजार, खैयाम कमलेश्वर आदि के जिक्र से लेकर कविताओं की बानगी वे देती चलती हैं ! खुद भी कवि हृदया हैं पर इस जगह कविता की ज्यादा दरकार न पाकर वे कहती हैं



“ अब देखिये इलजाम लगता है हम पर कि ऐसी कवितायें लिखते हैं जिसे कोई समझता नहीं . अरे भाई, कविताई का यही तो जन्मसिद्ध अधिकार है. जब सब समझ जायें तो फिर कविता क्या हुई. पर यहाँ तो भाई लोगों के लेख में भी ऐसी बातें घुसपैठियों की तरह सेंध मार रही है”


जहां कविता है वहां गणित कहां , समीकरण कहां , आंकडे कहां वहां तो होगी विशुद्ध भावना और आस्था--


मुझे बचपन से गणित समझ नहीं आता
जब छोटी थी तब भी नहीं
और आज जब
बड़ी हो गई हूँ तब भी नहीं

उनके चिट्ठाकार का यह आस्थावादी मन ही है जो स्त्री-विमर्श के मुठभेडी मुद्दों पर भी उनका सौम्य रूप ही सामने लाता है ! उनके रसोई विवाद में दिए तर्कों की साफगोई की तारीफ करते हुए मसिजीवी कहते हैं -


..... इतना कहने के बाद भी व्‍यक्तिगत तौर पर मुझे प्रत्‍यक्षा के इस तर्क की सराहना करनी पड़ेगी कि एक पुरुष किसी स्‍त्री पसंद को शोषण की किस्‍म बताए यह (मेल शोवेनिज्‍म़) अनुचित है”


देखिए प्रत्यक्षा अपने प्रोफाइल में अपने बारे में क्या लिखती हैं--



कई बार कल्पनायें पँख पसारती हैं.....शब्द जो टँगे हैं हवाओं में, आ जाते
हैं गिरफ्त में....कोई आकार, कोई रंग ले लेते हैं खुद बखुद.... और ..कोई रेशमी सपना फिसल जाता है आँखों के भीतर....अचानक , ऐसे ही शब्दों और सुरों की दुनिया खींचती है...रंगों का आकर्षण बेचैन करता है....


प्रत्यक्षा की चिट्ठाकार दुनिया में रंग है, समर्पण है , ललक है , सुकून है , भाव हैं बाहर का कुरूप जगत जहां उनकी आस्थावादी चिट्ठाकार लेखनी का संस्पर्श पाकर ताजा और रंगमय दिखने लगता है ! यहां जटिलता नहीं सादगी है , शोर नहीं मंथरता है, चौंध नहीं सौम्यता है! ओर हॉं ढेर सारा अतीतमोह यानि नास्‍तॉल्जिया है।
तो यह हैं प्रत्यक्षा जी हमारी नजर से ! जब हिंदी साहित्य का आधा इतिहास लिखा जा रहा है तो क्यों न हम भी हिंदी चिट्ठा जगत का आधा इतिहास दर्ज कर दें! ऎसे ही और रूपों में !