Wednesday, August 15, 2007

टैक्‍नोराटी के मोर्चे पर चिट्ठाजगत ने नारद को पछाड़ा

विस्‍तृत विश्‍लेषण पहले ही किया जा चुका है किंतु अंतर्जाल पर हालात इतनी तेजी से बदलते हैं कि क्‍या कहें। 29 जुलाई को टैक्‍नोराटी पर चिट्ठाजगत 46000 के लगभग था और नारद 33662 पर। आज देखा तो एक चमत्‍कारिक नजारा दिखा आप देखें-

टैक्‍नोराटी पर नारद

 

टैक्‍नोराटी पर चिट्ठाजगत

 

जी दोनों ठीक एक ही पायदान पर मिल रहे हैं। जब तक आप देखें हो सकता है कि स्थिति फिर बदल गई हो पर फिलहाल की स्थिति सामने रख दी है। हमने पछाड़ा शब्‍द इस्‍तेमाल किया मानो कोई रेस हो रही हो- जबकि कहा जा सकता है कि भई ऐसा कुछ नहीं है पर फिर भी एक प्रतियोगिता तो है और होनी चाहिए- वैसे रैंक बराबर हैं सिर्फ इसलिए कि टैक्‍नोराटी के गणितीय समीकरण जो रैंक आंकते हैं वे इतिहास, ऐतिहासिक महत्‍व जैसे गैर गणितीय घटकों के लिए कोई मूल्‍य नहीं रखते। खैर हमने तो वास्‍तविक स्थिति आपके सामने रखी, बाकी आप विचारें।

Friday, August 10, 2007

बजरबट्टू पर भिड़ गये ब्लॉग के बहादुर

कथादेश में इंटरनेट के मोहल्‍ले की पॉंचवीं किस्‍त आज हाथ लगी। अविनाश ने इस माह शब्‍दों के संग्राम में जुटे ब्‍लॉग बहादुरों पर अपनी राय रखी है। लीजिए हाजिर है-

बजरबट्टू पर भिड़ गये ब्लॉग के बहादुर

अविनाश

हिंदी में शब्दों की खोज लगभग खत़्म हो गयी है. लेखक इस ज़रूरत से उठ गये हैं कि उनकी अभिव्यक्ति के पन्नों को नये शब्द कुछ रोशनी बिखेर सकते हैं. बल्कि जाने हुए शब्दों के जरिये कहानी और कविता के सीमित शिल्प को सरल समय का आईना कह कर वे नये शब्दों की ज़रूरत को खारिज़ तक कर देते हैं. लेकिन ब्लॉग्स में भूले हुए शब्दों को खोजने और कई मौजूदा शब्दों की जड़ों तक पहुंचने का काम कुछ लोग कायदे से कर रहे हैं.

अजित वाडनेकर ऐसे ही एक सिपाही हैं, जो शब्दों का सफ़र (http://shabdavali.blogspot.com/)  नाम से अपना ब्लॉग चलाते हैं. उनके बारे में जानकारी अभय तिवारी के निर्मल आनंद से मिली. उन्होंने लिखा- पाया ब्लॉग जगत ने एक नया नगीना. आगे लिखा, 'वे हिंदी भाषा के संसार में एक मौलिक काम कर रहे हैं. शब्दों को उनके मूल में जाकर जांच परख रहे हैं. देशकाल और विभिन्न समाजों में उनकी यात्रा को खोल रहे हैं.` इतना काफी था हमें किसी ब्लॉग के बारे में उत्सुक करने के लिए. हम जब वहां पहुंचे, तो सचमुच ताज़ा रचनात्मकता की शीतल बूंदें वहां मोतियों की तरह बिखरी थीं.

ब्लॉग पर अपने सफ़र का आगा़ज़ वे कुछ इस तरह करते हैं, 'उत्पत्ति की तलाश में निकलें, तो शब्दों का बहुत ही दिलचस्प सफ़र सामने आता है. लाखों सालों में जैसे इंसान अपनी शक्ल बदली, सभ्यता के विकास के बाद से शब्दों ने भी अपने व्यवहार बदले. एक भाषा का शब्द दूसरी में गया और अरसे बाद एक तीसरी ही शक्ल में प्रचलित हुआ.`

आप अगर शब्दावली के पन्ने पलटेंगे, तो पाएंगे कि अजित वडनेकर ग्राम, गंवार और संग्राम के बीच के अंतर्संबंधों की व्याख्या कर रहे हैं. बगातुर और बघातुर से होते हुए बहादुर तक पहुंच रहे हैं. कुली से कुल की पहचान कर रहे हैं... और आरोही और रूहेलखंड के अर्थों में कुछ सम खोज रहे हैं. लेकिन ऐसा नहीं है कि सब कुछ एकतरफा ही परोसा जा रहा है. हिंदी में शब्दों पर कम कश्मकश इधर देखने को मिले हैं, लेकिन ब्लॉग पर अजित वडनेकर से दो-दो हाथ करने वाले बहुतायत में हैं. एक का ज़िक्र यहां करते हैं.

बजरबट्टू के बारे में अजित वडनेकर ने लिखा, 'प्राचीनकाल में गुरुकुल के विद्यार्थी के लिए ही आमतौर पर वटु: या बटुक शब्द का प्रयोग किया जाता था. राजा-महाराजाओं और श्रीमंतों के यहां भी ऋषि-मुनियों के साथ ये वटु: जो उनके गुरुकुल में अध्ययन करते थे, जाते और दान पाते. बजरबट्टू भी बटुक से ही बना. बजरबट्टू आमतौर पर मूर्ख या बुद्धू को कहा जाता है. जिस शब्द में स्नेह-वात्सल्य जैसे अर्थ समये हों, उससे ही बने एक अन्य शब्द से तिरस्कार प्रकट करने वाले भाव कैसे जुड़ गये? आश्रमों में रहते हुए जो विद्यार्थी विद्याध्ययन के साथ-साथ ब्रह्मचर्यव्रत के सभी नियमों का कठोरता से पालन करता, उसे वज्रबटुक कहा जाने लगा. जाहिर है वज्र यानी कठोर और बटुक मतलब ब्रह्मचारी/विद्यार्थी. ये ब्रह्मचारी अपने गुरु के निर्देशन में वज्रसाधना करते, इसलिए वज्रबटुक कहलाये. मगर सदियां बीतने पर जब गुरुकुल और आश्रम परंपरा का ह्रास होने लगा, तब बेचारे इन बटुकों की कठोर वज्रसाधना को भी समाज ने उपहास और तिरस्कार के नजरिये से देखना शुरू किया और अच्छा-खासा वज्रबटुक हो गया बजरबट्टू यानी मूर्ख.`

लेकिन अभय तिवारी ने बजरबट्टू के इस संधान पर संदेह किया. साफ है कि शब्दों के संधान को लेकर अलग अलग आग्रह और व्याख्याएं और सूचनाएं ब्लॉग पर तुरत-फुरत एक दूसरे तक पहुंच जाती हैं, और सफ़र को आगे जारी रखने में मदद मिलती है. अभय तिवारी ने प्रतिवाद किया, 'बजरबट्टू शब्द का लोकप्रिय प्रयोग बुरी नज़र से बचाने वाले एक पत्थर के अर्थ के बतौर है. रामशंकर शुक्ल 'रसाल` के भाषा शब्दकोश में भी बजरबट्टू का अर्थ है- एक पेड़ का बीज जिसे दृष्टिदोष से बचाने के लिए बच्चों को पहनाते हैं. बजर तो साफ़ साफ़ वज्र का तद्भव है, मगर बट्टू क्या है? क्या वट? क्या वटन? या वटक?`

और इस तरह एक नया भाषा विमर्श शुरू होता है, जिसमें हिंदी के कवि बोधिसत्व भी कूदते हैं. अपने ब्लॉग विनय पत्रिका में वे लिखते हैं, 'संदर्भ बजर का हो या बट्टू का, पर आप अपने बटुए को न भूलें. नहीं तो आप के हाथ से साबुन की बट्टी लेकर कोई और अपनी किस्मत चमकाएगा. फिर आप को बटुर (सिकुड़) कर रहना पड़ेगा और इसमें ठाकुर जी का बटोर (हजारी प्रसाद द्विवेदी) करने से भी कोई फायदा नहीं होगा. और आप धूल बटोरने में उम्र बिता देंगे. अच्छा हो कि यह बट्टा बन कर किसी भाव न गिरा दें जैसे कि आज कल कइयों का गिरा है.`

बजरबट्टू की इस पूरी बहस में कुल २९ बार लोग एक दूसरे से आपस में उलझे. अजित वडनेकर की पोस्ट पर चार टिप्पणियां दर्ज हैं, अभय तिवारी की पोस्ट पर बीस टिप्पणियां और बोधिसत्व की पोस्ट पर पांच टिप्पणियां दर्ज हैं. इस पूरी बहस में लंदन से अनामदास के साथ अनूप शुक्ला, इरफ़ान, अफलातून, काकेश, प्रियंकर, प्रमोद सिंह ने हिस्सा लिया. और भी कई नाम हैं, जिन्होंने अपनी बात रखी.

सवाल असहमतियों के लोकतांत्रिक गंठजोड़ का जितना है, उससे कहीं अधिक जिसके पास जितनी चीज़ें हैं, वे आपस में साझा कर रहे हैं. नवभारत टाइम्स और दैनिक भास्कर जैसे अखब़ारों और दूरदर्शन, ज़ी न्यूज़, आजतक और स्टार न्यूज़ के साथ काम करते हुए अजित वडनेकर पिछले बाइस सालों से पत्रकारिता कर रहे हैं. इतिहास और संस्कृति से उनका गहरा लगाव है, लेकिन ये अखब़ार आज जो उनका पेशा है, उसमें किसी काम का नहीं. लेकिन जो है, उसे समेटना है, बांटना है और ब्लॉग इसके लिए उन्हें सबसे सटीक माध्यम लगा.

ब्लॉग जगत की कुछ ताज़ा खब़र ये है कि हिंदी के दो और एग्रीगेटर लांच हुए हैं. एक चिट्ठाजगत डॉट इन और दूसरा ब्लॉगवाणी डॉट कॉम. ये एग्रीगेटर नारद के तानाशाही रवैये की उपज हैं. इससे साबित होता है कि अंतर्जाल का असंतोष रचनात्मक परिणामों के रूप में सामने आता है और वेब स्पेस में एकाधिकार की अवधारणा को खारिज़ करता है. एक खब़र ये भी है कि रवीश कुमार को हिंदी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बेहतर पत्रकारिता के लिए साल २००६-०७ का रामनाथ गोयनका अवार्ड मिला है. कथादेश सम्मान के बाद इस साल ये उनकी दूसरी बड़ी उपलब्धि है.

Friday, August 3, 2007

अब एक एलेक्‍सा नजर कितने आदमी थे पर

चिट्ठा संसार में उथल पुथल मची है जो ऊपर से इतना दिखाई नहीं देती। हमने तीन एग्रीगेटरों के आंकड़ों पर विचार किया था और नतीजा दिया था कि अभी तो सब ठीक दिख रहा है- टेक्‍नॉराटी के हवाले से यह भी बताया कि नए एग्रीगेटरों पर गया ट्रेफिक सब नारद का नहीं है भई। बाद में चिट्ठाजगत के आंकड़े विपुल ने सामने रखे, अच्‍छा लगा। इस प्रकार की पारदर्शिता एक स्‍वस्‍थ परिघटना है, हांलॉंकि इस मामले में नारद बाजी मारता है क्‍योंकि उसके आंकड़े सर्वसुलभ हैं, बिल्‍कुल पारदर्शी, पर लगता है इसकी वजह है कि सबने उसे बिसरा दिया है :( - वरना क्‍या वजह है कि नारद के लॉग का आकार अभी तक 100 है जबकि स्‍टेटकांउटर ने अरसा हुआ, मुफ्त ग्राहकों के लिए लॉग का आकार 500 कर दिया था, इससे पूरी तस्‍वीर सामने आती है, 100 से तो केवल कुछ घंटों के ट्रेफिक का लॉग देता है बाकी के विषय में केवल समन्वित आंकड़े मिलते हैं। इस छोटे से काम में यानि 100 से 500 करने में 2-4 मिनट लगेंगे, कृपया ध्‍यान दें। खैर इसके बावजूद नारद की पारदर्शिता बाकी से बेहतर है क्‍योंकि आंकड़े रीयल टाईम में उपलब्‍ध हैं।


किंतु ट्रेफिक के आंकड़े केवल प्रदाता ही उपलब्‍ध नहीं कराता वरन एलेक्‍सा जैसे सेवा प्रदाता भी उपलब्‍ध कराते हैं। तो हमने पिछले तीन महीने के एलेक्‍सा आंकड़े चारों प्रमुख एग्रीगेटरों के लिए तुलना करते हुए लिए और देखें हमें क्‍या मिलता है-



ये ग्राफ पिछली मान्‍यता को कुछ कुछ बदलता है और यह दर्शाता है कि ब्‍लॉगवाणी प्रमुख एग्रीगेटर की तरह उभर रहा है जबकि नारद दक्षिणायन है। दरअसल एलेक्‍सा के अनुसार ट्रेफिक वाल्‍युम की दृष्टि से रैंक इस प्रकार हैं-

 

नारद                   1,60,514

ब्‍लॉगवाणी             3,75,551

हिंदी ब्‍लॉग्स          6,37,868

चिट्ठाजगत           9,08,770


नारद का रैंक अब भी सबसे अधिक है पर ये इनके डाटा के महीनों पुराने उपलब्‍ध होने के कारण है जो अन्‍य एग्रीगेटरों के पास नहीं है। यदि ऊपर वाले ग्राफ पर नजर डालें तो वह स्थान जहॉं ऊपर की ओर जाते ग्राफ नारद के नीचे जाते ग्राफ को काटते हैं- शोध प्रविधि की दृष्टि से यह ही क्रिटिकल प्‍वाईंट है।


किंतु इन आंकड़ों की एक सीमा है ये पेजलोड को एक संख्‍या मानकर विश्‍लेषित करते हैं जबकि वे मानवीय हस्‍तक्षेप हैं, अत: किसी भी मानविकी के शोध की तरह यहॉं भी मानना होगा कि वस्‍तुनिष्‍ठता से परे, व्‍यक्तिनिष्‍ठ शोध की अभी भी बहुत सी गुंजाइश है- इस मामले में निर्णायक पंक्ति लिखने का अभी समय नहीं आया है।