Wednesday, January 9, 2008

हिंदी ब्लागिंग के भड़ास काल के बाद के बारे में आपने सोचा है?

 

हिंदी ब्लागिंग के भड़ास काल के बाद के बारे में आपने सोचा है?

                                                               यशवंत

यशवंत का यह लेख उनके चिट्ठे पर आया था पर जैसा कि भड़ास के लेखों के साथ अकसर हो जाता हे कि लगातार नए लेखों के आते रहने के कारण यह जलद ही आर्काइव में दब गया। लेख अहम लगा इसलिए पुन: प्रस्‍तुत है, देखें-

ब्लागिंग का भड़ास काल
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जिस तेजी से मीडिया के भाई बंधु ब्लाग बना रहे हैं और अपनी अपनी भड़ास को अपने अपने ब्लाग पर उजागर कर रहे हैं, इसी तरह जो गैर मीडिया ब्लागर हैं वे जिस तरह अपने लेखन में अपने अनुभवों, अपनी पृष्ठभूमिक, अपनी सोच के आधार पर खुली व तीखी बातें साहस के साथ कर रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि हिंदी ब्लागिंग के इस शैशव दौर को भड़ास काल (यहां भड़ास शब्द का इस्तेमाल भड़ास ब्लाग के चलते नहीं बल्कि, ब्लागिंग के ट्रेंड को समझने के लिए स्वतंत्र शब्द के बतौर इस्तेमाल किया जा रहा है) के नाम से याद किया जाएगा। ब्लागर वो कह रहे हैं जो उनके दिल में है, जो उनके दिमाग में है, जो उनके अनुभवों से उपजी है। जो उनकी दिनचर्या में घटी है। जो उनके सामने, साइड या पड़ोस में है। जो चर्चा में है। बस, आन किया कंप्यूटर और लिख दी अपनी बात।
आइए कुछ उदाहरणों पर बात करें...

--प्रसिद्ध पत्रकार और संपादक बालेंदु दधीचि का अपना एक ब्लाग है जिसमें वो मीडिया की पोल खोलते हैं। अभी जो उनकी लैटेस्ट पोस्ट है उसमें एक अखबार में तस्वीर किसी व्यक्ति की और कैप्शन व स्टोरी किसी की प्रकाशित किए जाने की गलती का खुलासा किया।
--ब्लागिंग में हाल फिलहाल एकाएक चर्चित हुए पद्मनाभ मिश्र का ब्लाग है मेरा बकवास और उन्होंने इस ब्लाग में अपनी भड़ास कुछ यूं निकाली की उन्होंने प्रभु चावला की बेटी की छेड़खानी किए जाने संबंधी बात कहकर मीडिया के सनसनीखेज व हवा-हवाई वाले वर्तमान ट्रेंड को उजागर किया। बाद में उनकी इस रचना को लेकर कई ब्लागरों ने अपने अपने तरीके से भड़ास निकाली।
--कई मीडियाकर्मी ऐसे हैं जो लिखना तो खूब चाहते हैं पर उन्हें परंपरागत मीडिया में उतना स्पेस नहीं मिल पाता सो वो अपनी भड़ास कई ब्लागों पर निकालते रहते हैं। इनके जरिए वे समकालीन समाज की विसंगतियों, ट्रेंड, हलचलों को उजागर कर भविष्य के लिहाज से दशा-दिशा की कल्पना करते हैं।
--कुछ मीडियाकर्मी ऐसे हैं जो अपने हेक्टिक रुटीन में जो कुछ आफिसियल करते हैं, उसके बाद अनआफिसियल इतना कुछ मन में भरा रहता है कि उसे अपने ब्लाग पर बढ़िया तरीके से पब्लिश करते हैं।
--ढेर सारे गैर-मीडियाकर्मी ब्लागर अपनी पृष्ठभूमि और जेंडर के हिसाब से अपने अनुभवों को शब्दों में डालकर अपने ब्लाग पर पोस्ट डालते रहते हैं। इनमें महिला ब्लागरों को लीजिए तो वो महिलाओं से जुड़ी जीवन स्थितियों को लगातार अपने ब्लाग पर फोकस में रखती हैं और इस मर्दवादी समाज में महिलाओं के आगे बढ़ने में आने वाली दिक्कतों को उजागर करती रहती हैं। कुल मिलाकर अपनी भड़ास को वो एक मंच प्रदान करने में सफल होती हैं।


आप ब्लागिंग के वर्तमान ट्रेंड को देखेंगे तो इसे लंबे समय से दबी छिपी भावनाओँ, सोच व अभिव्यक्ति को ग्लोबल प्लेटफार्म मिलते ही इसके एकदम से निकल पड़ने का दौर कह सकते हैं। मतलब, भड़ास काल।
ब्लागर पोजीशन लें, लाइन-लेंथ तय करें
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लेकिन यह भड़ास काल लंबा नहीं चल सकता। आखिर जल्द ही वो दौर आएगा जब सभी ब्लागरों को अपनी अपनी लाइन ले लेनी होगी वरना उनके विलुप्त हो जाने या अलगाव में पड़ जाने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा। और कुछ ब्लागरों ने बेहद व्यवस्थित तरीके से इस काम को करना भी शुरू कर दिया है। उदाहरण के तौर पर...कमल शर्मा का वाह मनी नामक ब्लाग सिर्फ और सिर्फ आर्थिक मुद्दों व निजी लाभ से जुड़े विषयों को उठाता है। इस ब्लाग का अपना एक पाठक वर्ग है। इस ब्लाग पर न तो भड़ास होती है और न सनसनी। यहां जानकारियां दी जाती हैं जिससे आपका भला हो। इसी तरह मोहल्ला ब्लाग खुद को एक ऐसे लोकतांत्रिक वामपंथी रुझान वाले व साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक व राजनीतिक सवालों के जवाब तलाशने वाले ब्लाग के रूप में विकसित कर रहा है जिसका अपना एक पाठक वर्ग है। इसी तरह आलोक पुराणिक अपने ब्लाग को व्यंग्य के ब्लाग के रूप में डेवलप करने में सफल रहे हैं और उनका अपना एक पाठक वर्ग है। जिसे व्यंग्य पढ़ना होगा वह आलोक जी के यहां जाएगा। ब्लागों से संबंधित रपट पढ़नी है तो आपको नीलिमा के ब्लाग पर जाना होगा। ऐसे ढेरों नाम लिये जा सकते हैं लेकिन मैं यहां केवल उदाहरण देने के लिए बात कर रहा हूं। इसमें आप भड़ास ब्लाग का भी जिक्र कर सकते हैं जो हिंदी मीडियाकर्मियों का कम्युनिटी ब्लाग है और हिंदी मीडियाकर्मियों का अनआफिसियल एक्सप्रेशन है। इसका अपना एक पाठक वर्ग है।
ब्लागिंग के भड़ास काल के रोमांच में बंधे हिंदी ब्लागरों को जितनी जल्दी हो अपनी पोजीशन ले लेनी चाहिए। उन्हें खुद को स्पेशलाइज करना चाहिए। अगर कोई बकवास निकाल रहा है तो वह बकवास कब तक निकाल पायेगा, उसे सोचना चाहिए। अगर बकवास निकालने के फील्ड में स्पेशलाइज करने का इरादा है तो फिर भविष्य उज्जवल है।
सवाल है कि इससे क्या होगा?
आज जिस तरह किसी अच्छे से अच्छा या सनसनीखेज से सनसनीखेज ब्लाग पोस्ट के पाठक अधिकतम 300 से 500 हो पाते हैं, उससे हिंदी ब्लागिंग का भला नहीं होने वाला। यह आंकड़ा निराश करता है। किसी भी ब्लाग पर रोज आने वालों यूजर्स व पाठकों की संख्या दस हजार से लेकर पचास हजार तक और फिर एक लाख तक होनी चाहिए। तभी आप ब्लागिंग को सफल कर सकते हैं। तभी हिंदी ब्लागिंग को बचाया जा सकता है वरना इसे नानसीरियस तरीके से छोटी मोटी तकनीकी चीज के रूप में ही लिया जाता रहेगा।
ब्लाग आधुनिकतम मीडिया माध्यम
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ब्लागिंग के भविष्य को लेकर कई बिंब उभरते हैं। पहला तो यह कि यह सबसे आधुनिकतम मीडिया माध्यम बनेगा। वो जो खबरें दबा दी जाती थीं, वो जो खबरें न दिखाई जाती थीं, वो जो बातें न सुनाई जाती थीं, उन सभी को ब्लाग छापेगा, दिखाएगा और सुनाएगा। तो यह मीडिया को वो नया माध्यम है जो प्रिंट और टीवी को चिकोटी काटेगा। प्रिंट और टीवी के मठाधीश जो खबर बनाने व दिखाने में खेल करते हैं, पत्रकारों की नियुक्ति व हटाने में राजनीति करते हैं, ऐसे सभी मठाधीशों पर भी खबरें बनेंगी और छपेंगी, ब्लाग माध्यमों पर। पद्मनाभ मिश्र का मेरा बकवास इसी ट्रेंड को दिखाता है। भड़ास ब्लाग पर डाली जाने वाली कई रचनाएं इसी प्रवृत्ति को बयान करती हैं। जो चीज आफलाइन मीडिया माध्यमों मसलन टीवी और अखबार और मैग्जीन में है, उसे आप ब्लाग पर लायेंगे तो वो उतना हिट न होगा क्योंकि उन माध्यमों ने उसी को आनलाइन भी बनाया हुआ है। अगर एक अखबार है तो उसकी एक आनलाइन साइट भी है। खबरें अखबार में भी हैं और खबरें उसकी आनलाइन साइट पर भी हैं। तो आप इसी तरह का ब्लाग बना लेंगे, न्यूज या खबरों से जुड़ा, तो वो नहीं चलने वाला।
हिंदी ब्लागिंग से बनेंगी नई सक्सेस स्टोरीज
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हिंदी ब्लागिंग में वो चीज सफल होगी जो न तो अब तक आनलाइन में रही है और न ही आफलाइन में। मजेदार ये है कि चूंकि हिंदी ब्लागिंग के शुरु होने का दौर ही आनलाइन में हिंदी वेबसाइट्स के शुरू होने का दौर है तो हर ब्लागर को खुद के ब्गाग के साथ साथ हिंदी में आनलाइन मार्केट में खुद को स्थापित करने व इससे रेवेन्यू जनरेट करने के बारे में सोचना व प्लान करना चाहिए। जैसे, मेरा खुद का एक सपना है कि जिस दिन भड़ास ब्लाग के दस हजार सदस्य हो जायेंगे उस दिन हम लोग वाकई एक रेवेन्यू जनरेशन माडल को शुरू करेंगे और उसका लाभ सभी सदस्यों को मिलेग। यह कैसे और किस तरह होगा, इस पर लगातार सोचा जा रहा है। ऐसे ही ढेरों काम हैं, जो अभी किए नहीं गए हैं और जो करेगा वो जीतेगा। जीतेगा इसलिए क्योंकि दरअसल अभी सामने कोई प्रतिद्वंद्वी ही नहीं है इसलिए अखाड़े में आप उतरेंगे तो आपको ही विजेता घोषित किया जाएगा।
बात हो रही थी हिंदी ब्लागिंग की। तो साथियों, ब्लागिंग के इस भड़ास काल के, मेरे हिसाब से इस साल भी चलते रहने की उम्मीद है और अगले साल भी चलेगा। और इन दो सालों में ब्लागरों की संख्या आज की संख्या से पांच गुना ज्यादा हो जाएगी। और तब हर अच्छी पोस्ट को पढ़ने वालों की संख्या हजार से पांच हजार तक पहुंच सकती है। इसमें थोड़ा बहुत अंतर हो सकता है। इन दो वर्षों में कई ब्लाग खुद को बेहद प्रोफेशनली मैनेज करेंगे और बड़ा नाम बनेंगे। साथ में दाम भी पाएंगे।
तो आइए, हिंदी ब्लागिंग के अगुवा साथियों, भड़ास काल से निकलने के लिए खुद को स्पेशलाइज और आर्गेनाइज करें। इसके जरिए हम खुद का और खुद के ब्लाग का काम, आनलाइन माध्यम में हिंदी भाषा और हिंदी वालों का ज्यादा भला करेंगे। अगर हम ऐसा करने में असफल रहे तो बड़ी कंपनियां थोड़े देर से ही आएंगी और हर उन आइडियाज पर जिस पर काम करना बाकी है, काम शुरू कर देंगी। फिर हम हिंदी वाले सदा की तरह उनके एक यूजर या रीडर बनकर रह जाएंगे, मैदान से बाहर, हाशिए पर खड़ा होकर ताली बजाते हुए तमाशे देखने वाले। और खेल खत्म होने पर कुछ लुटा पिटा सा एहसास करते हुए घर जाने वाले। मेरे खयाल से आनलाइन में हिंदी कें मार्केट पर हिंदी ब्लागरों की प्रोफेशनल निगाह होनी चाहिए और आगे जो ब्लागर मीट हों उनमें एक दूसरी की प्रशंसा या निंदा की बजाय एक दूसरे के साथ मिलकर आनलाइन हिंदी मार्केट को ट्रैप करने की रणनीति पर बातचीत होनी चाहिए। एक तरह के गुणधर्म वाले ब्लागरों को मिलकर अपने ब्लाग संचालित करने के बारे में सोचना चाहिए।
और आज नहीं तो कल ब्लागरों को करना होगा। आज ये काम आप अपनी दूरदर्शी निगाह के कारण कर सकते हैं, कल ये काम आपको मजबूरी में करना होगा क्योंकि आपको खाने के लिए बड़े शिकारी सामने मुंह बाये दिखेंगे तो आपको डर के मारे आपसी यूनिटी कायम करनी होगी।
मुझे लगता है इस मुद्दे पर हम सभी ब्लागरों को विचार विमर्श करते रहना चाहिए।
इस सीरियस भड़ास को सीरियस तरीके से लेने की जरूरत है...:)

Tuesday, January 8, 2008

चिट्ठाई हिंदी- उच्‍छवास से मालमत्‍ता

हिंदी- चिट्ठाकारिता का जो छोटा -सा इतिहास आख्‍यान है वह हिंदी पट्टी की राजनीति, राजभाषा की सरकार नीति तथा हिंदीखोरों, हिंदीबाजों की गिद्धनीति से मुक्‍त है- इससे वह पतित - पावन तो नहीं हो जाता लेकिन हिंदी -लेखन की बाकी विधाओं से विशिष्‍ट अवश्‍य हो जाता है। यहॉं की हिंदी - अंग्रेजी विरोध पर नहीं खड़ी है- अधिकांश चिट्ठाकार अंगेजी में लिखने में समर्थ हैं कुछ अंगेजी में चिट्ठाकारी करते भी हैं, सुनील दीपक तो अंगेजी, हिंदी के साथ साथ इतालवी में ब्‍लॉग लिखते हैं। इसी तरह शुएब उर्दू में चिट्ठाकारी करते हुए हिंदी चिट्ठाकार हैं, छत्‍तीसगढ़ी, हरियाणवी, मैथिली की चिट्ठाकारी के साथ - साथ हिंदी चिट्ठाकारी करने वाले चिट्ठाकार भी हैं। दूसरी खास बात संस्‍कृत के पाश से मुक्ति है, एक स्‍वयंसेवक चिट्ठे ‘लोकमंच’ को छोड़ दिया जाए तो कोई ‘देववाणी’ की आराधना के पचड़े में नहीं पड़ता। यह विविधता और आजादी हिंदी चिट्ठाकारी का अपना मौलिक मुहावरा गढ़ती है। इसमें गाली है, सुहाली है, नया है, पुराना है, फिल्‍मी है, जिगरी है, गली है, मोहल्‍ला है, इन सबकी पंचमेल खिचड़ी ही नहीं है वरन एकदम नए व्‍यंजन हैं। चिट्ठाकार भाषाई मानकों के फेर में नहीं पड़ता वरन उसे निरंतर प्रयोग से मांजता और निथारता है।

भाषा के स्‍तर पर जिस विधा को चिट्ठाकारी के सबसे निकट मान सकते हैं वह शायद नुक्‍कड़ नाटक है। व्‍यंग्‍य, नुक्‍कड़ता, बेबाकी, अनौपचारिकता, भदेसपन, ठेठ स्‍थानीयता ये सब कुछ नुककड़ नाटकों की ही तरह चिट्ठों में भी मिलता है। अंतर बस इतना है कि ये नुक्‍कड़ और गलियॉं चूंकि देश ही नहीं विदेश तक में, अलग-अलग टाईम जोन में, अलग – अलग स्‍पेस में मौजूद हैं इसलिए इनमें स्‍थानीयता का रंग ग्‍लोबल है। प्रमोद का एक वाक्‍य-

भावों के ऐसे उच्‍छावास के बाद साहित्‍य और सिनेमा दोनों में प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे से लिपट-चिपट जाते हैं, गले में बांह डालकर फुसफुसाते हुए दूसरे बड़े कारनामों की पूर्व पीठिका बनाने लगते हैं. मैं भी उसी परंपरा में स्‍नान करने को उद्धत हो रहा था, लेकिन परिस्थिति, साली, अनुकूल नहीं हो रही थी! नायिका तीन से छै कदम की दूरी पर चली गई और नौ साल का एक बेलग्रादी तस्‍कर लौंडा हमारे बीच अपने मर्चेंडाइस का मिनी स्‍टॉल लगाकर प्रेमबाधा बनने लगा. इसके पहले कि मैं हरकत में आऊं, रेहाना को वही रिझा रहा था. चीनी सिगरेट, सैंडल और ब्‍लॉग रिट्रीव करने के सॉफ्टवेयर दिखा रहा था. रेहाना ने गहरी उदासी से एक नज़र उसके माल-मत्‍ते पर डाली, फिर लौंडे के भूरे बालों में हाथ फेरकर नज़रें फेर लीं. मगर लौंडा उसमें संभावित ग्राहक देखकर चिपका रहा, तेजी से माल का रेट डाऊन करके मोलभाव करने लगा [i]

उच्‍छवास से रिट्रीव, माल मत्‍ता सब एक ही पेराग्राफ में। कोई संक्रमण पद नहीं। या स्‍पैक्‍ट्रम के दूसरे छोर पर आशीष की भाषा-

अइयो अम चेन्नई से आशीष आज चिठठा चर्चा कर रहा है जे। अमारा हिन्दी वोतना अच्छा नई है जे। वो तो अम अमना मेल देख रहा था जे , फुरसतिया जे अमको बोला कि तुम काल का चिठ्ठा चर्चा करना। अम अब बचके किदर जाता। एक बार पहले बी उनने अमको पकड़ा था जे,अम उस दिन बाम्बे बाग गया था। इस बार अमारे पास कोई चान्स नई था जे और अम ये चिठ्ठा चार्चा कर रहा है जे।[ii]

पर इसका आशय यह कतई नहीं कि यह अनगढ़पन हिंदी चिट्ठाकारी की विवशता है, यह तो इस विधा का अपना तेवर है जो दुनिया की हर भाषा की चिट्ठाकारी में दिखाई देता है। हिंदी ने शब्‍द व रचना के स्‍तर पर एक स्‍वतंत्र चिट्ठाई भाषा रची है। जो फुरसतिया, समीर, सुनील दीपक, तरूण, मसिजीवी, नोटपैड, प्रमोद , धुरविरोधी में साफ दिखाई देती है। फुरसतिया के चिटृठे से एक बानगी-

हमें लिखना है फटे जूते की व्यथा-कथा। व्यथा-कथा मतलब रोना-गाना। आंसू पीते हुये हिचकियां लेते हुये अपनी रामकहानी कहना। हाय हम इत्ते खबसूरत थे लोग हम पर फिदा रहते थे और अब देखो चलते-चलते हमारा मुंह भारतीय बल्लेबाजी की दरार का कैसा खुल गया है। लुटने पिटने का अहसास, ठोकरों के दर्द की दास्तान बताना। मतलब अपने दर्द को गौरवान्वित करना। मुक्तिबोध के शब्दों में दुखों के दागों को तमगों सा पहनने का प्रयास करना। यह रुदाली तो हमसे न सधेगी भाई।

फटा हुआ जूता मतलब चला हुआ जूता। जो जूता चलेगा वही फटेगा। शो केस में रखे जूते बेकार हो जाते हैं , सड़ सकते हैं लेकिन फटते नहीं। फटने के लिये चलना जरूरी होता है। फटेगा वही जिसने राहों के संघर्ष झेले होंगे। [iii]

वैसे इसका अर्थ यह कतई नहीं कि चिट्ठाकारी की भाषा की विकास - यात्रा में सजगता नदारद है। सजगतावादी भी हैं और अक्‍सर आगाह करते रहते , प्रियंकर की मसिजीवी पर टिप्‍पणी पर गौर करें-

आपके लिये एक और सूचना है कि 'गद्य' पुल्लिंग है अतः आपकी टिप्पणी में गद्य के पहले इकारांत विशेषण 'कवितामयी' और 'विषादमयी' थोड़े अटपटे लग रहे हैं . आशा है सुधार करेंगे. आप हिंदी के पीएच.डी. हैं इसलिए लिख रहा हूं वरना ऐसे सौ दोष माफ़.
हर तरह की भाषा का अपना व्यवहार क्षेत्र (डोमेन)होता है . चाहे वह अखाड़े की भाषा हो,कारखाने की भाषा हो,कार्यालय की भाषा हो या फिर साहित्य की भाषा . आतंकवादियों के प्रति क्रोध को 'ठुमरी' और 'निर्गुण' के माध्यम से अभिव्यक्त करना अभी हिंदी जगत में नया है इसलिये थोड़ा अटपटा लगा . वरना भैये जिसके जो जी में आये करे अपन को क्या . हां!, लगता है अब इस नई विधा के जन्म पर सोहर गाने के दिन आ गये हैं.[iv]

यह सजगता भले ही चिट्ठाकारी में सर्वत्र विद्यमान तत्‍व नहीं है किंतु जैसे - जैसे तकनीक- विशेषज्ञ चिट्ठाकारों के साथ नए चिट्ठाकार जुडने लगे हैं, भाषा को लेकर सजगता बढ़ी है ! ब्‍लॉगिंग एक जनसंचार माध्‍यम है और टी.आर.पी. की तर्ज पर हिट यहॉं की मुद्रा है इसलिए बोझिल भाषा यहॉं नहीं सधेगी।

चिट्ठाकारी का भविष्‍य

किसी भी नए संचार माध्‍यम का स्‍वागत पहले कौतुहल फिर नकार से होता है और जल्‍द ही उसकी जगह भविष्‍य को लेकर खड़े किए गए प्रश्‍नचिह्न ले लेते हैं। यही चिट्ठाकारी के साथ भी हो रहा है। इसके भविष्‍य को लेकर अटकलबाजी व गंभीर मनन दोनों जारी हैं। एक बात जिसे लेकर आम सहमति है वह है मात्रात्‍मक विस्‍तार- यह् आसन्‍न भविष्‍य है। आज हम 700 चिट्ठों की बात कर रहे हैं कल 7000 की करेंगे और परसों...। आज एक नारद है कल बीस होंगे। लेकिन प्रथमत: और अंतत: यह व्‍यक्तिगत ई-प्रकाशन ही रहेगा, इसके साथ ध्‍वनि (पॉडक‍सस्टिंग) और दृश्‍य ( यू ट्यूब) और अधिक जुड़ेंगे पर पठ्य का महत्‍व बना रहेगा। लेकिन जिस बात को समझना असवश्‍यक है वह यह कि मात्रात्‍मक विस्‍तार और प्रौद्योगिकीय प्रगति इसमें गुणात्‍मक बदलाव नहीं लाएगी। सौभाग्‍य से यह आम हिंदीजन का ही माध्‍यम रहेगा और इसकी विशेषता-- अनगढ़पन, साधारणता, जुड़ाव और पहचान से ही चिट्ठाकारी परिभाषित होती रहेगी। फ़ुरसतिया ने चिट्ठाकारी के भविष्‍य पर अपनी राय व्‍यक्‍त करते हुए कहा-

विश्‍वविद्यालयी एप्रोच से चिटठाकारी का भला संभव नहीं, ये अपने अनुभव से कह रहा हूँ मान लीजिए। बाकी रही आचार संहिता की बात तो कितनी भी बना लो ये तो नूह्हें चाल्‍लेगी। आगे भविष्य क्या तय होगा उसका मुझे नहीं पता लेकिन फिलहाल अभी यह लगता है कि अनगड़ता ,अनौपचारिकता और अल्हड़ता ब्लागिंग के खास पहलू हैं। एनडीटीवी वाले साथी अभी ब्लाग की नब्ज नहीं समझ पाये हैं। वे ज्ञानपीड़ित हैं और कुछ-कुछ 'मोहल्ला मंडूक' भी।
यह आप समझ लें कि कोई भी नयी दुनिया बनेगी लेकिन ब्लागिंग की ताकत, आकर्षण और सौंदर्य इसका अनगड़पन और अनौपचारिक गर्मजोशी रहेगी। ऐसा मैं अपने दो साल के अनुभव से कहता हूं। मेरे पास तमाम कालजयी साहित्य अनपढ़ा है लेकिन उसको पढ़ना स्थगित करके मैं यहां तमाम ब्लागर की उन रचनाऒं को पढ़ने के लिये लपकता हूं जिनमें तमाम वर्तनी की भी अशुद्धियां हैं, भाव भी ऐं-वैं टाइप हों शायद लेकिन जुड़ाव का एहसास सब कुछ पढ़वाता है। यह अहसास ब्लागिंग की सबसे बड़ी ताकत है। यह मेरा मानना है। अगर बहुमत इसे नकारता भी है तब भी मैं अपने इस विश्वास के साथ ही चिट्ठाजगत से जुड़ा रहना चाहूंगा! :) [v]

आमीन।।।


[i] प्रमोद सिंह, ज़माने की बेवफ़ाइयां और कुली नंबर वन की एंट्री http://azdak.blogspot.com/2007/04/blog-post_23.html

[ii] आशीष, ये भी सच है कि मोहब्बत में नहीं मैं मजबूर, http://chitthacharcha.blogspot.com/2007/03/blog-post_18.html

[iii] फुरसतिया, जूते का चरित्र साम्यवादी होता है, http://hindini.com/fursatiya/?p=265

[iv] प्रियंकर, का करूं सजनी..... आए ना बालम......... ]http://vadsamvad.blogspot.com/2007/02/blog-post_19.html

[v] फुरसतिया, आइए रचें हिंदी का मौलिक चिट्ठाशास्‍त्र, http://masijeevi.blogspot.com/2007/03/blog-post_13.html

ये अनाम, बेनामों की दुनिया है...नामवरों की नहीं

चिट्ठाकारी की प्रकृति, लेखन में एक बहुत ही रोचक स्थिति उत्‍पन्‍न करती है। अनौपचारिकता इस लेखन की खास बात है- यू.एस.पी. है इस दुनिया का। इसलिए इस लेखन में लेखक की शख्सियत उसके एक- एक शब्‍द से झांकती है लेकिन उलटबांसी यह है कि इस माध्‍यम में लेखक के व्‍यक्तित्‍व को उसके लेखन से बिल्‍कुल अलगाकर देखे जाने की परिपाटी है। यहॉं अधिकांश लेखन ‘बंगमहिला’ की तर्ज पर होता है पता नही कौन हैं? कैसी हैं ? दरअसल बेनाम चिट्ठाकारी न केवल स्‍वीकृत है वरन अधिकांश इंटरनेट सुरक्षा के विशेषज्ञ यह राय देते हैं कि चिट्ठाकार को अपनी असल पहचान के तत्‍वों मसलन सही नाम, सही पता, ईमेल पता, फोन नंबर आदि को सुरक्षा के हित में सार्वजनिक करने से परहेज करना चाहिए।

दरअसल जब एक चिट्ठाकार चिट्ठा आरंभ करता है तो वह एक नाम चुनता है और यह वाकई चुनाव होता है- आप अपना नाम भी चुन सकते हैं जैसे कि इन पंक्ति‍यों की लेखक ने चुना है और आप कोई उपलब्‍ध काल्‍पनिक नाम भी चुन सकते हैं ! इसी तरह आप उम्र, लिंग, शहर तथा स्‍व - परिचय भी लिखते हैं इसे प्रोफाइल कहा जाता है। चिट्ठाकार अपने लिए क्‍या प्रोफाइल चुनते हैं, क्‍यों चुनते हैं इस सब पर बाकायदा मनोविश्‍लेषण में रुचि रखने वाले एक शोध - प्रबंध लिख सकते हैं! पर यहॉं सिर्फ इतना दर्ज है कि छापे की दुनिया के बरअक्‍स इस चिट्ठाकारी में चिट्ठाकार की शख्सियत आभासी होती है और तो और वह न केवल कभी- भी अपनी प्रोफाइल को बदल सकता है वरन चाहे तो बिल्‍कुल मिटाकर एक नई प्रोफाइल बना सकता है जो पिछली से बिल्‍कुल अलग हो। चिट्ठाकार एक साथ दो या अधिक प्रोफाइल भी रख सकता हैं और जितना उसमें बूता हो उतने चिट्ठे लिख सकता है। चिट्ठाकार का व्‍यक्तित्‍व इस बात से कतई तय नहीं होता कि वह असल जिंदगी में क्‍या है वरन इस बात से होता है कि वह क्‍या लिखता है और अपने बारे में क्‍या राय तैयार करता है। मसलन देखिए धुरविरोधी कैसे अपना रूप खड़ा करते हैं-

मेरा नाम जे.एल.सोनारे है, मैं मुम्बई, गोकुलधाम के साईंबाबा काम्प्लेक्स में रहता हूं, उम्र उनतीस साल, एक फिल्म प्रोडक्शन कंम्पनी में थर्ड अस्सिस्टेंट हूं, मतलब, चपरासी जैसा काम. मेरे काम्प्लेक्स में ही जबलपुर वाले रघुवीर यादव रहते हैं. आपने इनकी फिल्में जरूर देखी होंगी. दद्दा रघुबीर यादव हमें ढेर सारी कहानियां सुनाते रहते है मसलन, भेड़ाघाट के बारे में या अपनी पहली हीरोइन (आज की मशहूर लेखक) अरुन्धती राय के बारे में, आदि आदि. मेरे वन रूम सेट के सामने सुनीता फाल्के नाम की लड़की रहती है जो किसी ट्रेवल एजेन्सी में काम करती है और अक्सर मुझे देखकर मुस्कुराते हुये ओ मेरे सोनारे, सोनारे, सोनारे गुनगुनाने लगती है. मेरी हिम्मत कभी भी उससे बात करने की नहीं हुई. वो मेरे से ढाई गुना कमाती है, मेरा उसका क्या मुकाबला?[i]

किंतु इसके ठीक अगली ही पंक्ति में कहते हैं-

बताईये कैसा लगा मेरा परिचय? यदि मैं इस प्रकार आता तो आपको कोई शिकायत नहीं होती. क्या आप मेरा पुलिस वेरीफिकेशन कराते? ये सब झूठ है. मैं जे एल सोनारे नहीं हू, न मुम्बई में रहता हूं. मैं ब्लाग की दुनिया में धुरविरोधी के नाम से हूं, यही मेरा परिचय है. मैं मसिजीवी भी नहीं हूं और वो भी नहीं हूं जिसके होने का कुछ लोगों को पक्का भरोसा है. [ii]

यानि चिट्ठाकारी की दुनिया में चिट्ठाकार के व्‍यक्तित्‍व पर एक झीना आवरण रहता है तथा वह वही होता है जो वह कहता है कि वह है।

किंतु हिंदी- लेखन व हिंदी - पठन के जो संस्‍कार हमारी हिंदी - आलोचना ने अब तक विकसित किए हैं उनके कारण इसे पचा पाना हिंदी चिट्ठाकारी के लिए काफी कठिन हो रहा है। हाल में ‘मुखौटा विवाद’ ने हिंदी - चिट्ठाकारी में काफी ज्‍वार भाटे पैदा किए। हुआ यह कि एक पुराने चिट्ठाकार जो मसिजीवी नाम से चिट्ठाकारिता करते हैं ने ‘....मुझे मुखौटा आजाद करता है शीर्षक एक पोस्‍ट लिखी और यह तर्क दिया कि चिट्ठाकारिता की दुनिया में लेखक यदि मुखौटा लगाकर बात कहे तो वह संरचनात्मक दबाब से मुक्‍त होकर लिख पाता है क्‍योंकि उसे पॉलीटिकल करेक्‍टनेस, छवि आदि की परवाह किए बिना लिखना होता है। मसिजीवी का कहना था -

मुखौटों के चेहरे पर लगते ही आप बस एक मुखौटा हो जाते हैं। लोग इस दुनिया में (चिट्ठाकारी में) इसलिए जाते हैं कि ये मुखौटे इस दुनिया के वासियों को आजाद करते हैं। आप इन मुखौटों को पहनकर वह सब कर सकते हैं जो करना चाहते थे पर कर नहीं पाते थे और अक्‍सर दिखाते थे कि आप ऐसी कोई चाहत नहीं रखते, मसलन चलते चलते आपका अक्‍सर मन करता था कि चीख कर कहें कि आप खुश नहीं हैं, आपका पति आपको पीटता है...या आप अपनी पत्‍नी को पीटते है...लेकिन जाहिर है ऐसा नहीं कर पाते थे। [iii]

आगे चिट्ठाकारों से यह आग्रह भी किया था कि लोगों के मुखौटों के पीछे झांकना छोंड़ें क्‍योंकि ऐसा करने से चिट्ठाकारी का उद्देश्‍य ही खत्‍म हो जाएगा।

खतरा यह है कि यदि आप इसे (चिट्ठाकारी को) वाकई मुखौटों से मुक्‍त दुनिया बना देंगें तो ये दुनिया बाहर की रीयलदुनिया जैसी ही बन जाएगी नकली और पाखंड से भरी। आलोचक, धुरविरोधी, मसिजीवी ही नहीं वे भी जो अपने नामों से चिट्ठाकारी करते हैं एक झीना मुखौटा पहनते हैं जो चिट्ठाकारी की जान है। उसे मत नोचो---ये हमें मुक्‍त करता है।[iv]

इस पोस्‍ट ने कई कड़ी प्रतिक्रियाओं को जन्‍म दिया। कहा गया कि तर्क व हिम्‍मत की कमी वालों को ही मुखौटों की जरूरत पड़ती है। कुछ समर्थन के स्‍वर भी आए जैसे धुरविरोधी ने कहा –

जिसे आप रीयल जिन्दगी कहते हैं, उसमे मुझे न चाहते हुये भी लोगों को अच्छा अच्छा बोलना पड़ता है. सोचना होता है कि लोग क्या कहेंगे. एक मुस्कुराहट का मुखौटा ओढ़ना पड़ता है. वो मेरा असली रूप नहीं है.
लेकिन धुरविरोधी बिना मेरे नाम का मुखौटा ओड़े हुये मेरा असली रूप है. यह मेरा वह रूप है, जैसा मैं हूं. मेरे असली नाम के मुखौटे को उतार कर मैं एकदम आज़ाद हो जाता हूं, बिल्कुल मसिजीवी की तरह.
इस दौरान हमारी आपस में असहमतियां या सहमतियां हो सकती हैं. संजयजी, मेरे प्रलाप में तर्क भी हैं और हिम्मत भी. क्या हम असहमति एवं सहमति दोनों के बीच में नहीं जी सकते?
मुझे तो अब नकली और पाखंड दूर यह दुनियां ही पसंद है.[v]

उसके बाद ‘धुरविरोधी ने ‘कौन है धुरविरोधी’ शीर्षक से पोस्‍ट लिखी जबकि ‘ये मसिजीवी क्‍या है’ पोस्‍ट पहले ही आ चुकी थी, घुघुती बासुती ने भी ‘घुघुती बासुती क्‍या है’ पोस्‍ट पहले ही लिख दी थी। इन पोस्‍टों मे इन चिट्ठाकारों ने अपनी पहचान बताने के स्‍थान पर यह बताया था कि चिट्ठाकारी पहचान के वमन की जगह नहीं वरन पहचान के निर्माण की जगह है।

-(धुरविरोधी के लिंक्‍स डेड हैं क्‍योंकि उन्‍होंने अपना चिट्ठा मिटा दिया है)


[i] धुरविरोधी, धुरविरोधी कौन है,http://dhurvirodhi.wordpress.com/2007/03/16/o-mere-sonare/

[ii]धुरविरोधी, धुरविरोधी कौन है, http://dhurvirodhi.wordpress.com/2007/03/16/o-mere-sonare/

[iii]मसिजीवी,मुझे मुखौटा आजाद करता है, http://masijeevi.blogspot.com/2007/03/blog-post_15.html

[iv]मसिजीवी,मुझे मुखौटा आजाद करता है, http://masijeevi.blogspot.com/2007/03/blog-post_15.html

[v] धुरविरोधी, धुरविरोधी कौन है,http://dhurvirodhi.wordpress.com/2007/03/16/o-mere-sonare/

चिट्ठाकारी छपास की नहीं पहचान की छटपटाहट है

जिस लेखन को छपास पीडा के रोगियों का कर्म मानते हुए नाक भौं सिकोडा जा रहा है हिंदी चिट्ठाकारों के लिए वह उनकी पहचान और अस्मिता से जुडा हुआ है! चिट्ठाकार के लिए चिट्ठाकारिता वह सृजन- भूमि है जहां वह निज भाषा में फक्कड और बेबाक अभिव्यक्ति कर सकता है ! इस के माध्यम से चिट्ठाकार अपनी भाषिक सांस्कृतिक अस्मिता को न केवल अनुभव कर पाता है वरन लगातार उसका निर्माण भी करता है! परंपरागत लेखन में बना रहने वाला संरचानागत दबाव यहां नदारद होता है न ही प्रकाशन प्रक्रिया के झमेलों से जूझना होता है अत: यह चिट्ठाकार का स्वयं का रचा लोक है जहां वह स्वछंद अभिव्यक्ति करता है !

चिट्ठाकार चिट्ठा क्यों करता है—यह प्रश्न न केवल स्थापित हिंदी जगत के लिए कौतुहल का विषय है वरन चिट्ठाकार स्वयं से भी यह प्रश्न करता है और उत्तर में पाता है कि यह ख्ब्त ही है जो उससे चिट्ठा लिखवाती है –

मैं चिट्ठा अव्वल तो इसलिए लिखता हूँ कि मुझे चिट्ठा लिखने की शराब की तरह लत पड़ी हुई है. मैं चिट्ठा न लिखूं तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने हैं या मैंने गुसल नहीं किया या मैंने शराब नहीं पी. मैं चिट्ठा नहीं लिखता, हकीकत यह है कि चिट्ठा मुझे लिखता है[i]

ब्लॉग लेखन को अपनी भाषा के प्रति प्रेम और जुडाव की कामना से उपजा स्वाभाविक कर्म मानते हुए जीतेन्द्र कहते हैं

अमां यार क्यों ना लिखे, पढे हिन्दी मे है, सारी ज़िन्दगी हिन्दी सुनकर गुजारी है। हँसे, गाए,रोये हिन्दी मे है, गुस्से मे लोगो को गालियां हिन्दी मे दी है, बास पर बड़्बड़ाये हिन्दी मे है। हिन्दी गीत, हिन्दी फ़िल्मे देख देखकर समय काटा है, क्यों ना लिखे हिन्दी ?[ii]

हिंदी जगत में ब्लॉगिंग की यह परिघटना एक मायने में बिल्कुल नयी है ! हिंदी पठन रचना वृत्त से इतर माने जाने वाले हिंदी प्रेमियों की अदायगी है ! नेट भूमि पर विचरते अधिकतर चिट्ठों के जन्मदाता अलग-अलग व्यवसायों से जुडे हैं जिनमें एक बडा भाग प्रवासी भारतीयों का है! अत्यधिक पसंद किए जाने वाले सुनील दीपक बोलौना , इटली में एक डाक्टर हैं ! इंडीब्लॉगीज पुरस्कार 2006 के विजेता समीर लाल कनाडा में एक वित्तीय फर्म में कार्यरत हैं ! सामाजिक मुद्दों पर संवेदनात्मक रचनाअओं की रचयिता बेजी, सान्बेजी संयुक्त राज्य अमीरात में शिशु -चिकत्सक हैं! नारद के उत्साही और कर्मठ संचालक जीतेन्द्र , कुवैत में एक कंप्यूटर फर्म में हैं ! सामयिक विषयों पर अत्यंत संवेदनशीलता से लिखने वाले लाल्टू हैदराबाद में वैज्ञानिक हैं तो सर्वाधिक टिप्पणियां पाने वाले अनूप शुक्ला कानपुर के आयुध निर्माण कारखाने में राजपत्रित अधिकारी हैं ! विभिन्न पेशों से जुडे इन प्रवासी अप्रवासी भारतीयों के लिए हिंदी का प्रश्न उनकी पहचान का प्रश्न है ! देश से दूर प्रवास कर रहे इन भारतीयों के लिए निज भाषा में अभिव्यक्ति ही वह माध्यम है जिसके जरिए वे अपने आस पास एक जीवंत व आत्मीय वातावरण रच और महसूस पाते हैं ! सुनील दीपक लिखते हैं --

मेरे विचार से चिट्ठे लिखने वाले और पढ़ने वालों में मुझ जैसे मिले जुले
लोगों की, जिन्हें अपनी पहचान बदलने से उसे खो देने का डर लगता है, बहुतायत है. हिंदी में चिट्ठा लिख कर जैसे अपने देश की, अपनी भाषा की खूँट से रस्सी बँध जाती है अपने पाँव में. कभी खो जाने का डर लगे कि अपनी पहचान से बहुत दूर आ गये हम, तो उस रस्सी को छू कर दिल को दिलासा दे देते हैं कि हाँ खोये नहीं, मालूम है हमें कि हम कौन हैं [iii].

“एक भारतीय आत्मा” की तर्ज पर हिंदी ब्लॉग- लेखन से जुडे इन ब्लॉगरों को जोडने वाला तत्व भाषिक सांस्कृतिक अस्मिता को पाने व बनाए रखने की छटपटाहट है। यहां साइबर स्पेस वह मिलन - भूमि का कार्य करता है जहां भिन्न फिजिकल स्पेस के रहवासी अपने जातीय अस्तित्व का अनुभव कर सकते हैं! मसलन हिंदी के चिट्ठों का सबसे महत्वपूर्ण मंच नारद विश्व के विपरीत कोनों पर बैठे उन संचालकों द्वारा मॉडरेट किया जा रहा है जिनका परस्पर परिचय साइबर स्पेस में ही हुआ है। जाहिराना तौर हिंदी चिट्ठा-जगत के केन्द्र में भाषिक पहचान की चेतना है किंतु जब व्‍यक्तिगत स्‍तर पर पहचान को चिट्ठों में खंगालने का प्रयास करते हैं तो पाते हैं कि यहाँ व्‍याकरण ही बदल जाता है।


[i] मसिजीवी, मैं चिट्ठा क्‍योंकर लिखता हूँ- ओपन सोर्स में, http://masijeevi.blogspot.com/2007/03/blog-post_02.html

[ii] जितेंद्र, मैं हिंदी में क्‍यों लिखता हूँ, http://www.jitu.info/merapanna/?p=419

[iii]सुनील दीपक, कुछ यहॉं से कुछ वहॉं से, http://www.kalpana.it/hindi/blog/2005/10/blog-post_05.html

Sunday, January 6, 2008

चिट्ठाकारी का हालिया इतिहास

 

थोड़ा मुड़कर पीछे देखें तो हिंदी में चिट्ठाकारिता शब्‍द अंग्रेजी के ब्‍लॉगिंग शब्‍द के समानांतर उपजा शब्‍द है। ‘वेबलॉग’ का संक्षिप्‍त रूप ब्‍लॉग दिसम्‍बर 1997 में पहली बार प्रयुक्‍त हुआ। अंतर्जाल पर पहले ब्‍लॉग (1997, डेव वाइनर का ब्‍लॉग ‘स्क्रिप्टिंग न्‍यूज’) के उद्भव के छ: साल बाद पहले हिंदी चिट्ठाकार आलोक के पहले चिट्ठे 9-2-11 का पदार्पण हुआ। पहली पोस्‍ट में उन्‍होंने लिखा[i]

 

 

नमस्ते।
क्या आप हिन्दी देख पा रहे हैं?
यदि नहीं, तो यहाँ देखें।

यहॉं वह पहला लिंक था जिस पर क्लिक करते ही कोई हिंदी पाठक विश्‍व के किसी भी द्वीप पर बैठा अपनी भाषिक पहचान के जुड़ सकता था। यह पहली यूनीकोड चिट्ठा अभिव्‍यक्ति थी। यूनीकोड के अवतरण से विश्‍व का प्रत्‍येक कंप्‍यूटर ‘हिंदी फांटों’ के झंझटों से मुक्‍त हो हिंदीमय हो गया तथा हिंदी लेखक-पाठक अपनी अनुभूति को टाईम व स्‍पेस के बंधनों से परे अंतर्जाल पर दर्ज कर सका। यहाँ टाईम, स्‍पेस और प्रौद्योगिकी के अद्भुत संयोग से उपजी स्‍वच्‍छंद भाषिक अभिव्‍यक्तियों को आलोक ने चिट्ठा कहा। आलोक के चिट्ठे ‘9-2-11’ के बाद विनय, देबाशीष, पंकज नरूला, अतुल अरोरा, रवि रतलामी, अनूप शुक्‍ला, जितेंद्र जैसे चिट्ठाकारों के द्वारा अंतर्जाल पर हिंदी को अंकित किया गया। यदि इनमें से अधिकांश के नाम आपने नहीं सुने हैं तो आश्‍चर्य की बात नहीं ये नींव की ईंटें हैं, कंगूरों के बड़बोलेपन से मुक्‍त। इनमें से कोई हिंदीबाज या हिंदीखोर नहीं है, विश्‍वविद्यालयों में प्रोफेसर नहीं हैं, रोजी रोटी के लिए अपने अपने उन व्‍यवसायों पर आश्रित हैं जिनका हिंदी से सामान्‍यत: कोई लेना देना नहीं। अनूप यानि फुरसतिया को छोड़ दें तो और कोई अपनी भाषा या शैली के लिए नहीं जाना जाता, केवल अपने श्रम और सहायता करने के लिए आतुर लोगों का जमावड़ा है यह। लेकिन इसके गहरे निहितार्थ हिंदी सत्‍ताई विमर्श के लिए भी हैं- पंकज नरूला, देबाशीष चक्रवर्ती व जिंतेंद्र चौधरी के माध्‍यम से हिंदी चिट्ठाजगत की स्‍थापना के निहितार्थ पढ़ते हुए प्रियंकर दर्ज करते हैं कि-

कभी-कभी तो मुझे यह सोच कर ही रोमांच होता है कि नेट पर हिंदी के शुरुआती कर्णधारों में पंकज नरुला, जितेन्द्र चौधरी और देबाशीष चक्रवर्ती के होने का भी एक गहरा प्रतीकात्मक अर्थ है हिंदी की सार्वदेशिकता और स्वीकार्यता के संदर्भ में . मूलतः पंजाबी, सिन्धी और बांग्ला मातृभाषा वाले परिवारों के इन बच्चों का हिंदी से कैसा प्यारा नेह का नाता है कि वे इसे मुकुटमणि बनाए हुए हैं . उसके भविष्य को लेकर चिंतनशील रहते हैं . उसे मां का मान दे रहे हैं .

इसका एक प्रतीकात्मक अभिप्राय यह भी है कि अब हिंदी पर हिंदी पट्टी के चुटियाधारियों का एकाधिकार खत्म होने को हैं . आंकड़े कहते हैं कि अगले दस-बीस वर्षों में दूसरी भाषा के रूप में हिंदी सीखने वाले विभाषियों की संख्या मूल हिंदीभाषियों से ज्यादा होगी . और तब एक नये किस्म की हिंदी अपने नये रूपाकार और तेवर के साथ आपके सामने होगी .[ii]

जाहिर है शुरूआत में गिनती के चिट्ठे थे और उतने ही चिट्ठापाठक। खुद लिखते खुद पढ़ते और साथी चिट्ठाकारों को पढ़वाते। इस दौर की पूरी कथा हाल में जितेंद्र ने चार भागों में अपने चिट्ठे ‘मेरा पन्‍ना’ पर दर्ज की है। अनूप भी कह चुके थे कि हिंदी चिट्ठाकारी का जनून आला दर्जे का सिरफिरा होने की माँग करता है। जब इन कुल जमा सिरफिरों से ज्‍यादा सिरफिरे लोग यहाँ आ इकट्ठे हो जाएंगे तो ये खुशी से पार्श्‍व में चले जाएंगे-

रही बात अप्रासंगिक होने की तो हम लोग अप्रसांगिक तब हो जायेंगे जब हमसे बड़े तमाम सिरफिरे यहां जुट जायेंगे और हमसे बेहतर लिखेंगे, जीतेंन्द्र से बेहतर नारद और तमाम सुविधाऒं की चिंता-संचालन करेंगे, रवि रतलामी से ज्याद अपना लिखने के साथ-दूसरे का भी सबको पढ़वाते रहेंगे,दोस्तों-दुश्मनों की गालियां खाते हुये भी देबाशीष जैसे अकेले दम पर लगातार चार साल बिना किसी लाभ के इंडीब्लागीस जैसे आयोजन करने वाले आगे आ जायेंगे। हम तब अप्रासंगिक हो जायेंगे जब हमारे किसी भी काम की वकत खतम हो जायेगी और चिट्ठाजगत का हर सदस्य हमसे हर मायने में बेहतर होगा। जिस दिन ऐसा होगा वह दिन निश्चित तौर पर हमारे अप्रासंगिक हो जाने का दिन होगा और हमें उस दिन से खतरा नहीं है बल्कि ऐसे दिन का बेताबी से इंतजार है [iii]

एक बानगी और देखिए, हिंदी चिट्ठाकारी पैसे कमाने की मशीन नहीं है। अब तक किसी हिंदी चिट्ठाकार ने चिट्ठाकारी से इंटरनेट का बिल जमा करने लायक पैसा भी नहीं कमाया है। ‍लेकिन हिंदी चिट्ठाकारी के प्राण यानि नारद को खड़ा करने के लिए हजारेक डालर की जरूरत थी, ईस्‍वामी के शब्‍दों में-

हमें रातों रात अनुदान इकट्ठा करना था, पंकज नरूला को मैने फ़ोन किया, ई-चर्चा वाले मित्र सुनीत को किया, दोनो की बात करवाई, पंकज को पूरी जानकारी मिली - उन्होंने अमेजान पर अकाऊंट खोला और जो लोग क्रेडिट कार्ड धारी नहीं भी थे उन्होंने रातो रात क्रेडिट कार्ड धारियों के माध्यम से दुनिया भर से सहायता भेजी.

मेरी पत्नी हिंदी ब्लागिंग को मेरा खब्त मानती हैं, समय नष्ट करने का बेहतरीन साधन! जब देखते ही देखते आंकडा १००० डालर के पार पहूंच गया मैने उनकी आंखें खुशी के मारे नम देखीं! देयर इज़ अ मेथड टू यू गाईज़ मेडनेस!हां कुछ अलग कर दिया हमनें - सर्टिफ़ाईड पागलों वाला काम! clip_image002[iv]

यह ठीक तब ही हो रहा था जब हिंदी पट्टी के हिंदीखोर भूतपूर्व पति पत्‍नी अपने गत शादी के मन मुटावों के बाजार से पत्रिकाएं रंग रहे थे। खैर उस पर हसन जमाल (शेष के संपादक, इंटरनेट पर हिंदी के विरोध में उनकी प्रतिक्रिया मार्च 2007 के नया ज्ञानोदय में प्रकाशित हुई) विचार करें और निपटें। ...तो उस दिन-रात की अकारण मेहनत की खब्‍त का परिणाम है कि आज हिंदी में तकरीबन 700 चिट्ठे 1500 चिट्ठे हैं ओर ये तेजी से बढ़ रहे हैं। नारद जिसकी फिलहाल हिंदी चिट्ठाजगत में केंद्रीय भूमिका है थी उसे अप्रैल 2007 के पहले बीस दिनों में 18743 हिट मिले हैं थे 937 की औसत प्रतिदिन के हिसाब से। नारद अकेला एग्रीगेटर नहीं है हिंदी ब्‍लॉग्स, हिंदी पॉडकास्‍ट भी हैं। हसन जमाल तो नहीं समझ पाएंगे और न समझ पाने के उनके तर्क व गर्व दोनों होंगे लेकिन ये बड़ी उपलब्धि है।


[i] आलोक, http://9211.blogspot.com/

[ii] प्रियंकर, अतीत के झरोखे से-4, http://www.jitu.info/merapanna/?p=703

[iii] अनूप शुक्‍ला, मुजरिम हाजिर है प्रत्‍यक्षा, http://vadsamvad.blogspot.com/2007/02/blog-post_24.html

[iv] ई-स्‍वामी, अतीत के झरोखे से-4, http://www.jitu.info/merapanna/?p=703

चिट्ठाकारी है क्‍या

 

आलेख के प्रथम खंड के रूप में प्रस्‍तुत है प्रस्‍तावना तथा 'चिट्ठाकारी है क्‍या' का अंश-

अंतर्जाल पर हिंदी की नई चाल : चन्‍द सिरफिरों के खतूत

अंतर्जाल हिंदी में इंटरनेट के लिए इस्‍तेमाल (या कहें प्रस्‍तावित) शब्‍द है। इसी अंतर्जाल पर हिंदी की बढ़ती मौजूदगी हिंदी- जगत का सर्वाधिक सनसनीखेज समाचार है। पारंपरिक मुख्‍यधारा मीडिया ने इसका नोटिस लेना शुरू कर दिया है। आज हिंदी चिट्ठाकारिता एक बहुश्रुत शब्‍द युग्‍म है अत: अंतर्जालीय हिंदी के इस स्‍वरूप, उद्देश्‍य एवं भविष्‍य पर प्रामाणिक विमर्श की पहल अब होने लगी है। लेखन, प्रकाशन व पठन से अंतराल का लोप करते इस माध्‍यम ने केवल हिंदी ही वरन दुनिया की हर विकसित भाषा को प्रभावित किया है , जिसमें अंग्रेजी और जापानी जैसी भाषाओं के समाज ही नहीं वरन फारसी और चीनी जैसे अपेक्षाकृत नियंत्रित समाज भी शामिल हैं। भारत का भी अपना एक आजाद व मुखर अंग्रेजी ब्‍लॉगर समुदाय है, हिदी में जरूर यह आहट कुछ नई है।

चिट्ठाकारी है क्‍या

सबसे पहले समझें कि चिट्ठाकारी है क्‍या ? और क्‍यों ये हिंदी लेखन के किसी विद्यमान खाँचें में नहीं अँट रही है ? यहॉं तक कि पत्रकारिता भी चिट्ठाकारिता को खुद में समा पाने में काबिल सिद्ध नहीं हो रही है ? दरअसल चिट्ठे या ब्‍लॉग, इंटरनेट पर चिट्ठाकार का वह स्‍पेस है जिसमें वह अपनी सुविधा व रुचि के अनुसार सामग्री को प्रकाशित कर सार्वजनिक करता है। इस चिट्ठे का तथा इसकी हर प्रविष्टि का जिसे पोस्‍ट कहते हैं एक स्‍वतंत्र वेब - पता होता है। सामान्‍यत: पाठकों को इन पोस्‍टों पर टिप्‍पणी करने की सुविधा होती है ! यदि चिट्ठाकार स्‍वयं इस चिट्ठे को मिटा न दे तो यह सामग्री इस वेबपते पर सदा - सर्वदा के लिए अंकित हो जाती है। अंतर्जाल के सूचना प्रधान हैवी ट्रैफिक - जोन से परे व्‍यक्तिगत स्‍पेस में व्‍यक्तिगत विचारों और भावों की निर्द्वंद्व सार्वजनिक अभिव्‍यक्ति को ब्‍लॉगिंग कहा जा सकता है।

किसी भी चिट्ठे के दो स्‍पष्‍ट आयाम होते हैं एक है पोस्‍ट जिसपर लेखक चिट्ठाकार ही लिखता है जबकि दूसरा है टिप्‍पणी- खंड जो चिट्ठापाठकों का होता है !वे उस पर टिप्‍पणी करने के लिए स्‍वतंत्र होते हैं। यह टिप्‍पणी का ढाँचा ही दरअसल चिट्ठाकारी को चिट्ठाकारी बनाता है! अब तक की हर लेखन-प्रकाशन विधा से अलहदा। टिप्‍पणी लेखन को विमर्शात्‍मक बनाती है और वह भी रीयल टाईम में। संपादक के नाम पत्र की परिपाटी प्रिंट में भी है किंतु वहॉं पठ्य और प्रतिक्रिया के बीच कालिक अंतराल है और संपादक की संपादकीय कैंची भी मौजूद होती है। किंतु चिट्ठाकारी में पठ्य का पूरा लोकतंत्रीकरण होता है। पठ्य रीयल टाईम में इंटरेक्टिव बनता है। लेखक अपने लेखन के प्रति पूरी तरह जबावदेह बनता है। पाठक बाकायदा लेखक की खाट खड़ी करने की कूवत पाता है, इसी माध्‍यम में । एक अन्‍य पक्ष जो चिट्ठाकारी को विशिष्‍ट बनाता है वह है इसकी हाईपरटेक्‍स्‍ट प्रकृति। चिट्ठाकारी का पठ्य चूंकि हाईपर पठ्य होता है इसलिए इसमें लगातार लिंकन-प्रतिलिंकन होता है। आप कथन के प्रमाण अंतर्जाल पर उपस्थित अन्‍य सामग्री से निरंतर देते चलते हैं। य‍ह लिंकन एक किस्‍म की टाईम मशीन है जो चिट्ठापाठक को टाईम व स्‍पेस में आगे व पीछे विचारण करने की सुविधा प्रदान करती है।

मूल बात यह है कि पूरा चिट्ठा, पोस्‍ट व टिप्‍पणी दोनों खंडो से मिलकर बनता है। यहाँ चिट्ठाकार स्‍वयं अपने चिट्ठे का पात्र व लेखक एक साथ होता है। चिट्ठाकारी को डायरी लेखन के निकट माना जाता है किंतु यह डायरी रीयल टाईम में रची जाती है जिसके डायरीपन के प्रति चिट्ठाकार समर्पित नहीं है। हर चिट्ठाकार दरअसल एक पात्र होता है जो उसके चिट्ठालेखन से खड़ा होता है। वह चिट्ठाकारी के माध्‍यम से रोज लिखा जाता , रोज पढ़ा जाता उपन्‍यास होता है। यहीं चिट्ठाकार-चिट्ठा संबंध भी साफ तौर पर निखर कर आता है जिसे लेकर अक्‍सर असमंजस की हालत देखने में आती है। ‘लिंकित मन’ मेरा चिट्ठा है मुझे जानने वाले यह जानते हैं लेकिन इसका मतलब क्‍या है ! क्‍या मैं इसकी मालकिन हूँ – नहीं जनाब, वह तो गूगल की एक साईट पर है जिसे गूगल के बिक जाने पर नए मालिक की मिल्कियत में जाना होगा। दरअसल मेरा चिट्ठा का अर्थ राम के कथन ‘ये मेरा धनुष है’ जैसा नहीं है वरन वह राम के कथन ‘’रामायण मेरी कथा है’ जैसा है। यानि चिट्ठाकार अपने चिट्ठे का मालिक नहीं होता वरन वह स्‍वयं चिट्ठे से निर्मित होता है। ब्‍लॉग थ्‍योरी पर इस दिशा में अभी और काम हो रहा है तथा हिंदी चिट्ठाकारी से ये आशा है कि वह इस विमर्श को आगे बढ़ाएं।

Saturday, January 5, 2008

वाक् में चिट्ठाकारी पर आलेख- अंतर्जाल पर हिंदी की नई चाल : चन्‍द सिरफिरों के खतूत

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वाक अब स्‍टैंड्स पर है। पत्रिका में हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग पर लिखा मेरा आलेख 'अंतर्जाल पर हिंदी की नई चाल : चन्‍द सिरफिरों के खतूत' शीर्षक से प्रकाशित है। अगर मीडिया का रूख ब्‍लॉग मीडिया को लेकर उदासीनता का रहा था तो साहित्यिक पत्रकारिता का तो बाकायदा अवहेलना या अपमान का। इसलिए साहित्यिक पत्रिका द्वारा इसे स्‍थान देना अच्‍छा लगा। पूरा आलेख जरा बड़ा है इसलिए एक पोस्‍ट में डालना ठीक नहीं किंतु पूरा आलेख पीडीएफ में पाने के लिए नीचे के लिंक से डाउनलोड कर सकते हैं।

पूरे आलेख को डाउनलोड करें  (पीडीएफ -207 केबी)

आलेख में छ: खंड हैं-

  1. चिट्ठाकारी है क्‍या
  2. चिट्ठाकारी का हालिया इतिहास
  3. चिट्ठाकारी छपास की नहीं पहचान की छटपटाहट है
  4. ये अनाम बेनामों की दुनिया है....नामवरों की नहीं
  5. चिट्ठाई हिन्‍दी- उच्‍छवास से मालमत्‍ता
  6. चिट्ठाकारी का भविष्‍य

 

आगामी पोस्‍टों में इन खंडो को स्‍वतंत्र लेखों के रूप में पोस्‍ट किया जाएगा। कृपया ध्‍यान दें कि मूल लेख अप्रैल 2007 में लिखा गया था।