हिंदी- चिट्ठाकारिता का जो छोटा -सा इतिहास आख्यान है वह हिंदी पट्टी की राजनीति, राजभाषा की सरकार नीति तथा हिंदीखोरों, हिंदीबाजों की गिद्धनीति से मुक्त है- इससे वह पतित - पावन तो नहीं हो जाता लेकिन हिंदी -लेखन की बाकी विधाओं से विशिष्ट अवश्य हो जाता है। यहॉं की हिंदी - अंग्रेजी विरोध पर नहीं खड़ी है- अधिकांश चिट्ठाकार अंगेजी में लिखने में समर्थ हैं कुछ अंगेजी में चिट्ठाकारी करते भी हैं, सुनील दीपक तो अंगेजी, हिंदी के साथ साथ इतालवी में ब्लॉग लिखते हैं। इसी तरह शुएब उर्दू में चिट्ठाकारी करते हुए हिंदी चिट्ठाकार हैं, छत्तीसगढ़ी, हरियाणवी, मैथिली की चिट्ठाकारी के साथ - साथ हिंदी चिट्ठाकारी करने वाले चिट्ठाकार भी हैं। दूसरी खास बात संस्कृत के पाश से मुक्ति है, एक स्वयंसेवक चिट्ठे ‘लोकमंच’ को छोड़ दिया जाए तो कोई ‘देववाणी’ की आराधना के पचड़े में नहीं पड़ता। यह विविधता और आजादी हिंदी चिट्ठाकारी का अपना मौलिक मुहावरा गढ़ती है। इसमें गाली है, सुहाली है, नया है, पुराना है, फिल्मी है, जिगरी है, गली है, मोहल्ला है, इन सबकी पंचमेल खिचड़ी ही नहीं है वरन एकदम नए व्यंजन हैं। चिट्ठाकार भाषाई मानकों के फेर में नहीं पड़ता वरन उसे निरंतर प्रयोग से मांजता और निथारता है।
भाषा के स्तर पर जिस विधा को चिट्ठाकारी के सबसे निकट मान सकते हैं वह शायद नुक्कड़ नाटक है। व्यंग्य, नुक्कड़ता, बेबाकी, अनौपचारिकता, भदेसपन, ठेठ स्थानीयता ये सब कुछ नुककड़ नाटकों की ही तरह चिट्ठों में भी मिलता है। अंतर बस इतना है कि ये नुक्कड़ और गलियॉं चूंकि देश ही नहीं विदेश तक में, अलग-अलग टाईम जोन में, अलग – अलग स्पेस में मौजूद हैं इसलिए इनमें स्थानीयता का रंग ग्लोबल है। प्रमोद का एक वाक्य-
भावों के ऐसे उच्छावास के बाद साहित्य और सिनेमा दोनों में प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे से लिपट-चिपट जाते हैं, गले में बांह डालकर फुसफुसाते हुए दूसरे बड़े कारनामों की पूर्व पीठिका बनाने लगते हैं. मैं भी उसी परंपरा में स्नान करने को उद्धत हो रहा था, लेकिन परिस्थिति, साली, अनुकूल नहीं हो रही थी! नायिका तीन से छै कदम की दूरी पर चली गई और नौ साल का एक बेलग्रादी तस्कर लौंडा हमारे बीच अपने मर्चेंडाइस का मिनी स्टॉल लगाकर प्रेमबाधा बनने लगा. इसके पहले कि मैं हरकत में आऊं, रेहाना को वही रिझा रहा था. चीनी सिगरेट, सैंडल और ब्लॉग रिट्रीव करने के सॉफ्टवेयर दिखा रहा था. रेहाना ने गहरी उदासी से एक नज़र उसके माल-मत्ते पर डाली, फिर लौंडे के भूरे बालों में हाथ फेरकर नज़रें फेर लीं. मगर लौंडा उसमें संभावित ग्राहक देखकर चिपका रहा, तेजी से माल का रेट डाऊन करके मोलभाव करने लगा [i]
उच्छवास से रिट्रीव, माल मत्ता सब एक ही पेराग्राफ में। कोई संक्रमण पद नहीं। या स्पैक्ट्रम के दूसरे छोर पर आशीष की भाषा-
अइयो अम चेन्नई से आशीष आज चिठठा चर्चा कर रहा है जे। अमारा हिन्दी वोतना अच्छा नई है जे। वो तो अम अमना मेल देख रहा था जे , फुरसतिया जे अमको बोला कि तुम काल का चिठ्ठा चर्चा करना। अम अब बचके किदर जाता। एक बार पहले बी उनने अमको पकड़ा था जे,अम उस दिन बाम्बे बाग गया था। इस बार अमारे पास कोई चान्स नई था जे और अम ये चिठ्ठा चार्चा कर रहा है जे।[ii]
पर इसका आशय यह कतई नहीं कि यह अनगढ़पन हिंदी चिट्ठाकारी की विवशता है, यह तो इस विधा का अपना तेवर है जो दुनिया की हर भाषा की चिट्ठाकारी में दिखाई देता है। हिंदी ने शब्द व रचना के स्तर पर एक स्वतंत्र चिट्ठाई भाषा रची है। जो फुरसतिया, समीर, सुनील दीपक, तरूण, मसिजीवी, नोटपैड, प्रमोद , धुरविरोधी में साफ दिखाई देती है। फुरसतिया के चिटृठे से एक बानगी-
हमें लिखना है फटे जूते की व्यथा-कथा। व्यथा-कथा मतलब रोना-गाना। आंसू पीते हुये हिचकियां लेते हुये अपनी रामकहानी कहना। हाय हम इत्ते खबसूरत थे लोग हम पर फिदा रहते थे और अब देखो चलते-चलते हमारा मुंह भारतीय बल्लेबाजी की दरार का कैसा खुल गया है। लुटने पिटने का अहसास, ठोकरों के दर्द की दास्तान बताना। मतलब अपने दर्द को गौरवान्वित करना। मुक्तिबोध के शब्दों में दुखों के दागों को तमगों सा पहनने का प्रयास करना। यह रुदाली तो हमसे न सधेगी भाई।
फटा हुआ जूता मतलब चला हुआ जूता। जो जूता चलेगा वही फटेगा। शो केस में रखे जूते बेकार हो जाते हैं , सड़ सकते हैं लेकिन फटते नहीं। फटने के लिये चलना जरूरी होता है। फटेगा वही जिसने राहों के संघर्ष झेले होंगे। [iii]
वैसे इसका अर्थ यह कतई नहीं कि चिट्ठाकारी की भाषा की विकास - यात्रा में सजगता नदारद है। सजगतावादी भी हैं और अक्सर आगाह करते रहते , प्रियंकर की मसिजीवी पर टिप्पणी पर गौर करें-
आपके लिये एक और सूचना है कि 'गद्य' पुल्लिंग है अतः आपकी टिप्पणी में गद्य के पहले इकारांत विशेषण 'कवितामयी' और 'विषादमयी' थोड़े अटपटे लग रहे हैं . आशा है सुधार करेंगे. आप हिंदी के पीएच.डी. हैं इसलिए लिख रहा हूं वरना ऐसे सौ दोष माफ़.
हर तरह की भाषा का अपना व्यवहार क्षेत्र (डोमेन)होता है . चाहे वह अखाड़े की भाषा हो,कारखाने की भाषा हो,कार्यालय की भाषा हो या फिर साहित्य की भाषा . आतंकवादियों के प्रति क्रोध को 'ठुमरी' और 'निर्गुण' के माध्यम से अभिव्यक्त करना अभी हिंदी जगत में नया है इसलिये थोड़ा अटपटा लगा . वरना भैये जिसके जो जी में आये करे अपन को क्या . हां!, लगता है अब इस नई विधा के जन्म पर सोहर गाने के दिन आ गये हैं.[iv]
यह सजगता भले ही चिट्ठाकारी में सर्वत्र विद्यमान तत्व नहीं है किंतु जैसे - जैसे तकनीक- विशेषज्ञ चिट्ठाकारों के साथ नए चिट्ठाकार जुडने लगे हैं, भाषा को लेकर सजगता बढ़ी है ! ब्लॉगिंग एक जनसंचार माध्यम है और टी.आर.पी. की तर्ज पर हिट यहॉं की मुद्रा है इसलिए बोझिल भाषा यहॉं नहीं सधेगी।
चिट्ठाकारी का भविष्य
किसी भी नए संचार माध्यम का स्वागत पहले कौतुहल फिर नकार से होता है और जल्द ही उसकी जगह भविष्य को लेकर खड़े किए गए प्रश्नचिह्न ले लेते हैं। यही चिट्ठाकारी के साथ भी हो रहा है। इसके भविष्य को लेकर अटकलबाजी व गंभीर मनन दोनों जारी हैं। एक बात जिसे लेकर आम सहमति है वह है मात्रात्मक विस्तार- यह् आसन्न भविष्य है। आज हम 700 चिट्ठों की बात कर रहे हैं कल 7000 की करेंगे और परसों...। आज एक नारद है कल बीस होंगे। लेकिन प्रथमत: और अंतत: यह व्यक्तिगत ई-प्रकाशन ही रहेगा, इसके साथ ध्वनि (पॉडकसस्टिंग) और दृश्य ( यू ट्यूब) और अधिक जुड़ेंगे पर पठ्य का महत्व बना रहेगा। लेकिन जिस बात को समझना असवश्यक है वह यह कि मात्रात्मक विस्तार और प्रौद्योगिकीय प्रगति इसमें गुणात्मक बदलाव नहीं लाएगी। सौभाग्य से यह आम हिंदीजन का ही माध्यम रहेगा और इसकी विशेषता-- अनगढ़पन, साधारणता, जुड़ाव और पहचान से ही चिट्ठाकारी परिभाषित होती रहेगी। फ़ुरसतिया ने चिट्ठाकारी के भविष्य पर अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा-
विश्वविद्यालयी एप्रोच से चिटठाकारी का भला संभव नहीं, ये अपने अनुभव से कह रहा हूँ मान लीजिए। बाकी रही आचार संहिता की बात तो कितनी भी बना लो ये तो नूह्हें चाल्लेगी। आगे भविष्य क्या तय होगा उसका मुझे नहीं पता लेकिन फिलहाल अभी यह लगता है कि अनगड़ता ,अनौपचारिकता और अल्हड़ता ब्लागिंग के खास पहलू हैं। एनडीटीवी वाले साथी अभी ब्लाग की नब्ज नहीं समझ पाये हैं। वे ज्ञानपीड़ित हैं और कुछ-कुछ 'मोहल्ला मंडूक' भी।
यह आप समझ लें कि कोई भी नयी दुनिया बनेगी लेकिन ब्लागिंग की ताकत, आकर्षण और सौंदर्य इसका अनगड़पन और अनौपचारिक गर्मजोशी रहेगी। ऐसा मैं अपने दो साल के अनुभव से कहता हूं। मेरे पास तमाम कालजयी साहित्य अनपढ़ा है लेकिन उसको पढ़ना स्थगित करके मैं यहां तमाम ब्लागर की उन रचनाऒं को पढ़ने के लिये लपकता हूं जिनमें तमाम वर्तनी की भी अशुद्धियां हैं, भाव भी ऐं-वैं टाइप हों शायद लेकिन जुड़ाव का एहसास सब कुछ पढ़वाता है। यह अहसास ब्लागिंग की सबसे बड़ी ताकत है। यह मेरा मानना है। अगर बहुमत इसे नकारता भी है तब भी मैं अपने इस विश्वास के साथ ही चिट्ठाजगत से जुड़ा रहना चाहूंगा! :) [v]
आमीन।।।
[i] प्रमोद सिंह, ज़माने की बेवफ़ाइयां और कुली नंबर वन की एंट्री http://azdak.blogspot.com/2007/04/blog-post_23.html
[ii] आशीष, ये भी सच है कि मोहब्बत में नहीं मैं मजबूर, http://chitthacharcha.blogspot.com/2007/03/blog-post_18.html
[iii] फुरसतिया, जूते का चरित्र साम्यवादी होता है, http://hindini.com/fursatiya/?p=265
[iv] प्रियंकर, का करूं सजनी..... आए ना बालम......... ]http://vadsamvad.blogspot.com/2007/02/blog-post_19.html
[v] फुरसतिया, आइए रचें हिंदी का मौलिक चिट्ठाशास्त्र, http://masijeevi.blogspot.com/2007/03/blog-post_13.html
3 comments:
ये किताबी फ़ुटनोट स्टाइल संदर्भों का क्या मतलब है? सीधे वहीं ले जाओ जहां संदर्भ ले जाता है। छपी किताब में ऐसे फ़ुटनोट ज़रूरी हैं ताकि पढ़ने का प्रवाह न टूटे। यहाँ नहीं टूटता है।
नीलिमाजी,
बहुत सधी हुई विचारधारा के साथ लिखे गये लेख के लिये साधुवाद.
"कुछ अंगेजी में चिट्ठाकारी करते भी हैं"
शायद हिन्दी चिट्ठाकारों में सबसे अधिक अंग्रेजी ब्लागिंग मैं करता हूं. मेरे 30 से ऊपर ब्लाग हैं अंग्रेजी में जिन में 10 हमेशा सक्रिय रहते हैं. अत: जैसा आप ने कहा मेरी हिन्दी चिट्ठकारी अंग्रेजीविरोध या अंग्रेजीअज्ञान के कारण नहीं, हिन्दीप्रेम के कारण है.
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