Tuesday, January 8, 2008

ये अनाम, बेनामों की दुनिया है...नामवरों की नहीं

चिट्ठाकारी की प्रकृति, लेखन में एक बहुत ही रोचक स्थिति उत्‍पन्‍न करती है। अनौपचारिकता इस लेखन की खास बात है- यू.एस.पी. है इस दुनिया का। इसलिए इस लेखन में लेखक की शख्सियत उसके एक- एक शब्‍द से झांकती है लेकिन उलटबांसी यह है कि इस माध्‍यम में लेखक के व्‍यक्तित्‍व को उसके लेखन से बिल्‍कुल अलगाकर देखे जाने की परिपाटी है। यहॉं अधिकांश लेखन ‘बंगमहिला’ की तर्ज पर होता है पता नही कौन हैं? कैसी हैं ? दरअसल बेनाम चिट्ठाकारी न केवल स्‍वीकृत है वरन अधिकांश इंटरनेट सुरक्षा के विशेषज्ञ यह राय देते हैं कि चिट्ठाकार को अपनी असल पहचान के तत्‍वों मसलन सही नाम, सही पता, ईमेल पता, फोन नंबर आदि को सुरक्षा के हित में सार्वजनिक करने से परहेज करना चाहिए।

दरअसल जब एक चिट्ठाकार चिट्ठा आरंभ करता है तो वह एक नाम चुनता है और यह वाकई चुनाव होता है- आप अपना नाम भी चुन सकते हैं जैसे कि इन पंक्ति‍यों की लेखक ने चुना है और आप कोई उपलब्‍ध काल्‍पनिक नाम भी चुन सकते हैं ! इसी तरह आप उम्र, लिंग, शहर तथा स्‍व - परिचय भी लिखते हैं इसे प्रोफाइल कहा जाता है। चिट्ठाकार अपने लिए क्‍या प्रोफाइल चुनते हैं, क्‍यों चुनते हैं इस सब पर बाकायदा मनोविश्‍लेषण में रुचि रखने वाले एक शोध - प्रबंध लिख सकते हैं! पर यहॉं सिर्फ इतना दर्ज है कि छापे की दुनिया के बरअक्‍स इस चिट्ठाकारी में चिट्ठाकार की शख्सियत आभासी होती है और तो और वह न केवल कभी- भी अपनी प्रोफाइल को बदल सकता है वरन चाहे तो बिल्‍कुल मिटाकर एक नई प्रोफाइल बना सकता है जो पिछली से बिल्‍कुल अलग हो। चिट्ठाकार एक साथ दो या अधिक प्रोफाइल भी रख सकता हैं और जितना उसमें बूता हो उतने चिट्ठे लिख सकता है। चिट्ठाकार का व्‍यक्तित्‍व इस बात से कतई तय नहीं होता कि वह असल जिंदगी में क्‍या है वरन इस बात से होता है कि वह क्‍या लिखता है और अपने बारे में क्‍या राय तैयार करता है। मसलन देखिए धुरविरोधी कैसे अपना रूप खड़ा करते हैं-

मेरा नाम जे.एल.सोनारे है, मैं मुम्बई, गोकुलधाम के साईंबाबा काम्प्लेक्स में रहता हूं, उम्र उनतीस साल, एक फिल्म प्रोडक्शन कंम्पनी में थर्ड अस्सिस्टेंट हूं, मतलब, चपरासी जैसा काम. मेरे काम्प्लेक्स में ही जबलपुर वाले रघुवीर यादव रहते हैं. आपने इनकी फिल्में जरूर देखी होंगी. दद्दा रघुबीर यादव हमें ढेर सारी कहानियां सुनाते रहते है मसलन, भेड़ाघाट के बारे में या अपनी पहली हीरोइन (आज की मशहूर लेखक) अरुन्धती राय के बारे में, आदि आदि. मेरे वन रूम सेट के सामने सुनीता फाल्के नाम की लड़की रहती है जो किसी ट्रेवल एजेन्सी में काम करती है और अक्सर मुझे देखकर मुस्कुराते हुये ओ मेरे सोनारे, सोनारे, सोनारे गुनगुनाने लगती है. मेरी हिम्मत कभी भी उससे बात करने की नहीं हुई. वो मेरे से ढाई गुना कमाती है, मेरा उसका क्या मुकाबला?[i]

किंतु इसके ठीक अगली ही पंक्ति में कहते हैं-

बताईये कैसा लगा मेरा परिचय? यदि मैं इस प्रकार आता तो आपको कोई शिकायत नहीं होती. क्या आप मेरा पुलिस वेरीफिकेशन कराते? ये सब झूठ है. मैं जे एल सोनारे नहीं हू, न मुम्बई में रहता हूं. मैं ब्लाग की दुनिया में धुरविरोधी के नाम से हूं, यही मेरा परिचय है. मैं मसिजीवी भी नहीं हूं और वो भी नहीं हूं जिसके होने का कुछ लोगों को पक्का भरोसा है. [ii]

यानि चिट्ठाकारी की दुनिया में चिट्ठाकार के व्‍यक्तित्‍व पर एक झीना आवरण रहता है तथा वह वही होता है जो वह कहता है कि वह है।

किंतु हिंदी- लेखन व हिंदी - पठन के जो संस्‍कार हमारी हिंदी - आलोचना ने अब तक विकसित किए हैं उनके कारण इसे पचा पाना हिंदी चिट्ठाकारी के लिए काफी कठिन हो रहा है। हाल में ‘मुखौटा विवाद’ ने हिंदी - चिट्ठाकारी में काफी ज्‍वार भाटे पैदा किए। हुआ यह कि एक पुराने चिट्ठाकार जो मसिजीवी नाम से चिट्ठाकारिता करते हैं ने ‘....मुझे मुखौटा आजाद करता है शीर्षक एक पोस्‍ट लिखी और यह तर्क दिया कि चिट्ठाकारिता की दुनिया में लेखक यदि मुखौटा लगाकर बात कहे तो वह संरचनात्मक दबाब से मुक्‍त होकर लिख पाता है क्‍योंकि उसे पॉलीटिकल करेक्‍टनेस, छवि आदि की परवाह किए बिना लिखना होता है। मसिजीवी का कहना था -

मुखौटों के चेहरे पर लगते ही आप बस एक मुखौटा हो जाते हैं। लोग इस दुनिया में (चिट्ठाकारी में) इसलिए जाते हैं कि ये मुखौटे इस दुनिया के वासियों को आजाद करते हैं। आप इन मुखौटों को पहनकर वह सब कर सकते हैं जो करना चाहते थे पर कर नहीं पाते थे और अक्‍सर दिखाते थे कि आप ऐसी कोई चाहत नहीं रखते, मसलन चलते चलते आपका अक्‍सर मन करता था कि चीख कर कहें कि आप खुश नहीं हैं, आपका पति आपको पीटता है...या आप अपनी पत्‍नी को पीटते है...लेकिन जाहिर है ऐसा नहीं कर पाते थे। [iii]

आगे चिट्ठाकारों से यह आग्रह भी किया था कि लोगों के मुखौटों के पीछे झांकना छोंड़ें क्‍योंकि ऐसा करने से चिट्ठाकारी का उद्देश्‍य ही खत्‍म हो जाएगा।

खतरा यह है कि यदि आप इसे (चिट्ठाकारी को) वाकई मुखौटों से मुक्‍त दुनिया बना देंगें तो ये दुनिया बाहर की रीयलदुनिया जैसी ही बन जाएगी नकली और पाखंड से भरी। आलोचक, धुरविरोधी, मसिजीवी ही नहीं वे भी जो अपने नामों से चिट्ठाकारी करते हैं एक झीना मुखौटा पहनते हैं जो चिट्ठाकारी की जान है। उसे मत नोचो---ये हमें मुक्‍त करता है।[iv]

इस पोस्‍ट ने कई कड़ी प्रतिक्रियाओं को जन्‍म दिया। कहा गया कि तर्क व हिम्‍मत की कमी वालों को ही मुखौटों की जरूरत पड़ती है। कुछ समर्थन के स्‍वर भी आए जैसे धुरविरोधी ने कहा –

जिसे आप रीयल जिन्दगी कहते हैं, उसमे मुझे न चाहते हुये भी लोगों को अच्छा अच्छा बोलना पड़ता है. सोचना होता है कि लोग क्या कहेंगे. एक मुस्कुराहट का मुखौटा ओढ़ना पड़ता है. वो मेरा असली रूप नहीं है.
लेकिन धुरविरोधी बिना मेरे नाम का मुखौटा ओड़े हुये मेरा असली रूप है. यह मेरा वह रूप है, जैसा मैं हूं. मेरे असली नाम के मुखौटे को उतार कर मैं एकदम आज़ाद हो जाता हूं, बिल्कुल मसिजीवी की तरह.
इस दौरान हमारी आपस में असहमतियां या सहमतियां हो सकती हैं. संजयजी, मेरे प्रलाप में तर्क भी हैं और हिम्मत भी. क्या हम असहमति एवं सहमति दोनों के बीच में नहीं जी सकते?
मुझे तो अब नकली और पाखंड दूर यह दुनियां ही पसंद है.[v]

उसके बाद ‘धुरविरोधी ने ‘कौन है धुरविरोधी’ शीर्षक से पोस्‍ट लिखी जबकि ‘ये मसिजीवी क्‍या है’ पोस्‍ट पहले ही आ चुकी थी, घुघुती बासुती ने भी ‘घुघुती बासुती क्‍या है’ पोस्‍ट पहले ही लिख दी थी। इन पोस्‍टों मे इन चिट्ठाकारों ने अपनी पहचान बताने के स्‍थान पर यह बताया था कि चिट्ठाकारी पहचान के वमन की जगह नहीं वरन पहचान के निर्माण की जगह है।

-(धुरविरोधी के लिंक्‍स डेड हैं क्‍योंकि उन्‍होंने अपना चिट्ठा मिटा दिया है)


[i] धुरविरोधी, धुरविरोधी कौन है,http://dhurvirodhi.wordpress.com/2007/03/16/o-mere-sonare/

[ii]धुरविरोधी, धुरविरोधी कौन है, http://dhurvirodhi.wordpress.com/2007/03/16/o-mere-sonare/

[iii]मसिजीवी,मुझे मुखौटा आजाद करता है, http://masijeevi.blogspot.com/2007/03/blog-post_15.html

[iv]मसिजीवी,मुझे मुखौटा आजाद करता है, http://masijeevi.blogspot.com/2007/03/blog-post_15.html

[v] धुरविरोधी, धुरविरोधी कौन है,http://dhurvirodhi.wordpress.com/2007/03/16/o-mere-sonare/

2 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

आप की यह पोस्ट पढ कर अच्छा लगा। बिल्कुल सही बात कही है कि यहाँ सभी बेनाम ही तो हैं किसी को क्या पता जिस नाम से मैं लिखता हूँ वह असली है या नकली। सच सिर्फ लिखने वाला जानता है...कि वह सच लिख रहा है या झूठ।अगली पोस्ट का इंतजार रहेगा।

Batangad said...

मैं मुखौटे का किसी भी रूप में कभी समर्थक नहीं रहा। लेकिन, मुखौटे के पक्ष में बहुत जोरदार तर्क हैं। औऱ, मुखौटे से आजादी की दास्तान तो मुझे भी बदलने की कोशिश कर रही है। वैसे, धुरविरोधी जहां भी हैं। अगर ब्लॉग पढ़ते हैं तो, उन्हें फिर से लिखना शुरू करना चाहिए। बहुत लोग पढ़ना चाहते हैं।