Tuesday, January 8, 2008

चिट्ठाकारी छपास की नहीं पहचान की छटपटाहट है

जिस लेखन को छपास पीडा के रोगियों का कर्म मानते हुए नाक भौं सिकोडा जा रहा है हिंदी चिट्ठाकारों के लिए वह उनकी पहचान और अस्मिता से जुडा हुआ है! चिट्ठाकार के लिए चिट्ठाकारिता वह सृजन- भूमि है जहां वह निज भाषा में फक्कड और बेबाक अभिव्यक्ति कर सकता है ! इस के माध्यम से चिट्ठाकार अपनी भाषिक सांस्कृतिक अस्मिता को न केवल अनुभव कर पाता है वरन लगातार उसका निर्माण भी करता है! परंपरागत लेखन में बना रहने वाला संरचानागत दबाव यहां नदारद होता है न ही प्रकाशन प्रक्रिया के झमेलों से जूझना होता है अत: यह चिट्ठाकार का स्वयं का रचा लोक है जहां वह स्वछंद अभिव्यक्ति करता है !

चिट्ठाकार चिट्ठा क्यों करता है—यह प्रश्न न केवल स्थापित हिंदी जगत के लिए कौतुहल का विषय है वरन चिट्ठाकार स्वयं से भी यह प्रश्न करता है और उत्तर में पाता है कि यह ख्ब्त ही है जो उससे चिट्ठा लिखवाती है –

मैं चिट्ठा अव्वल तो इसलिए लिखता हूँ कि मुझे चिट्ठा लिखने की शराब की तरह लत पड़ी हुई है. मैं चिट्ठा न लिखूं तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने हैं या मैंने गुसल नहीं किया या मैंने शराब नहीं पी. मैं चिट्ठा नहीं लिखता, हकीकत यह है कि चिट्ठा मुझे लिखता है[i]

ब्लॉग लेखन को अपनी भाषा के प्रति प्रेम और जुडाव की कामना से उपजा स्वाभाविक कर्म मानते हुए जीतेन्द्र कहते हैं

अमां यार क्यों ना लिखे, पढे हिन्दी मे है, सारी ज़िन्दगी हिन्दी सुनकर गुजारी है। हँसे, गाए,रोये हिन्दी मे है, गुस्से मे लोगो को गालियां हिन्दी मे दी है, बास पर बड़्बड़ाये हिन्दी मे है। हिन्दी गीत, हिन्दी फ़िल्मे देख देखकर समय काटा है, क्यों ना लिखे हिन्दी ?[ii]

हिंदी जगत में ब्लॉगिंग की यह परिघटना एक मायने में बिल्कुल नयी है ! हिंदी पठन रचना वृत्त से इतर माने जाने वाले हिंदी प्रेमियों की अदायगी है ! नेट भूमि पर विचरते अधिकतर चिट्ठों के जन्मदाता अलग-अलग व्यवसायों से जुडे हैं जिनमें एक बडा भाग प्रवासी भारतीयों का है! अत्यधिक पसंद किए जाने वाले सुनील दीपक बोलौना , इटली में एक डाक्टर हैं ! इंडीब्लॉगीज पुरस्कार 2006 के विजेता समीर लाल कनाडा में एक वित्तीय फर्म में कार्यरत हैं ! सामाजिक मुद्दों पर संवेदनात्मक रचनाअओं की रचयिता बेजी, सान्बेजी संयुक्त राज्य अमीरात में शिशु -चिकत्सक हैं! नारद के उत्साही और कर्मठ संचालक जीतेन्द्र , कुवैत में एक कंप्यूटर फर्म में हैं ! सामयिक विषयों पर अत्यंत संवेदनशीलता से लिखने वाले लाल्टू हैदराबाद में वैज्ञानिक हैं तो सर्वाधिक टिप्पणियां पाने वाले अनूप शुक्ला कानपुर के आयुध निर्माण कारखाने में राजपत्रित अधिकारी हैं ! विभिन्न पेशों से जुडे इन प्रवासी अप्रवासी भारतीयों के लिए हिंदी का प्रश्न उनकी पहचान का प्रश्न है ! देश से दूर प्रवास कर रहे इन भारतीयों के लिए निज भाषा में अभिव्यक्ति ही वह माध्यम है जिसके जरिए वे अपने आस पास एक जीवंत व आत्मीय वातावरण रच और महसूस पाते हैं ! सुनील दीपक लिखते हैं --

मेरे विचार से चिट्ठे लिखने वाले और पढ़ने वालों में मुझ जैसे मिले जुले
लोगों की, जिन्हें अपनी पहचान बदलने से उसे खो देने का डर लगता है, बहुतायत है. हिंदी में चिट्ठा लिख कर जैसे अपने देश की, अपनी भाषा की खूँट से रस्सी बँध जाती है अपने पाँव में. कभी खो जाने का डर लगे कि अपनी पहचान से बहुत दूर आ गये हम, तो उस रस्सी को छू कर दिल को दिलासा दे देते हैं कि हाँ खोये नहीं, मालूम है हमें कि हम कौन हैं [iii].

“एक भारतीय आत्मा” की तर्ज पर हिंदी ब्लॉग- लेखन से जुडे इन ब्लॉगरों को जोडने वाला तत्व भाषिक सांस्कृतिक अस्मिता को पाने व बनाए रखने की छटपटाहट है। यहां साइबर स्पेस वह मिलन - भूमि का कार्य करता है जहां भिन्न फिजिकल स्पेस के रहवासी अपने जातीय अस्तित्व का अनुभव कर सकते हैं! मसलन हिंदी के चिट्ठों का सबसे महत्वपूर्ण मंच नारद विश्व के विपरीत कोनों पर बैठे उन संचालकों द्वारा मॉडरेट किया जा रहा है जिनका परस्पर परिचय साइबर स्पेस में ही हुआ है। जाहिराना तौर हिंदी चिट्ठा-जगत के केन्द्र में भाषिक पहचान की चेतना है किंतु जब व्‍यक्तिगत स्‍तर पर पहचान को चिट्ठों में खंगालने का प्रयास करते हैं तो पाते हैं कि यहाँ व्‍याकरण ही बदल जाता है।


[i] मसिजीवी, मैं चिट्ठा क्‍योंकर लिखता हूँ- ओपन सोर्स में, http://masijeevi.blogspot.com/2007/03/blog-post_02.html

[ii] जितेंद्र, मैं हिंदी में क्‍यों लिखता हूँ, http://www.jitu.info/merapanna/?p=419

[iii]सुनील दीपक, कुछ यहॉं से कुछ वहॉं से, http://www.kalpana.it/hindi/blog/2005/10/blog-post_05.html

6 comments:

विनीत कुमार said...

बहुत अच्छा लिखा है आपने। यही बात तो मैं भी कह रहा हूं दिनभर के बाजार और मांग की हील-हुज्जत के बाद ब्लॉग पर कोई कुछ लिखता है तो उसकी अभिव्यक्ति बिल्कुल अलग होती है, और ये रोचक अध्ययन का विषय हो सकता है। ब्लॉग को लेकर सक्रय बनी रहें, शुभकामनाएं

विनीत कुमार said...

lekin ab bhai kahta hoo ki aapne jo likha tha wo post nahi sodh tha, ek tarah se blogging ki itihaas prakriya aur aise me aap tathyo par gaur karti to behtar hota

संजय बेंगाणी said...

अच्छा लिखा है.

विवेक रस्तोगी said...

आप का कहना सही है ये भी एक लत है पर इसके लिये समय चाहिये ।

राज भाटिय़ा said...

चिठ्ठा लिखना मेने अभी अभी शुरु किया हे,लेकिन पढ काफ़ी समय से रहा हु,पराऎ देश मे,अपने देशवासियो से मिलना,बाते करना,गपे मरना मुझे सब अच्छा लगता हे,अभी तो शव्दो की गलतिया भी बहुत ही करता हु,लेकिन सोचता हु सबी मेरे अपने हे माफ़ तो कर ही देगे,
अब इसे लत कहे या नशा, मेरे लिये तो यह एक चाय की दुकान हे यहा सभी मिलते हे,ओर दिन मे एक दो बार जाना जरुरी हे

जेपी नारायण said...

बाकी तो ठीक है, लेकिन कोई जगत इस जगत से बाहर नहीं है। इसलिए अधिभूतवादी ढंग से ब्लॉगिंग या चिट्ठाजगत की व्याख्या से बचा जाना जरूरी होगा।