वाक अब स्टैंड्स पर है। पत्रिका में हिन्दी ब्लॉगिंग पर लिखा मेरा आलेख 'अंतर्जाल पर हिंदी की नई चाल : चन्द सिरफिरों के खतूत' शीर्षक से प्रकाशित है। अगर मीडिया का रूख ब्लॉग मीडिया को लेकर उदासीनता का रहा था तो साहित्यिक पत्रकारिता का तो बाकायदा अवहेलना या अपमान का। इसलिए साहित्यिक पत्रिका द्वारा इसे स्थान देना अच्छा लगा। पूरा आलेख जरा बड़ा है इसलिए एक पोस्ट में डालना ठीक नहीं किंतु पूरा आलेख पीडीएफ में पाने के लिए नीचे के लिंक से डाउनलोड कर सकते हैं।
पूरे आलेख को डाउनलोड करें (पीडीएफ -207 केबी)
आलेख में छ: खंड हैं-
- चिट्ठाकारी है क्या
- चिट्ठाकारी का हालिया इतिहास
- चिट्ठाकारी छपास की नहीं पहचान की छटपटाहट है
- ये अनाम बेनामों की दुनिया है....नामवरों की नहीं
- चिट्ठाई हिन्दी- उच्छवास से मालमत्ता
- चिट्ठाकारी का भविष्य
आगामी पोस्टों में इन खंडो को स्वतंत्र लेखों के रूप में पोस्ट किया जाएगा। कृपया ध्यान दें कि मूल लेख अप्रैल 2007 में लिखा गया था।
12 comments:
नीलिमा जी बधाई हो
लेकिन आपने जो पीडीएफ का लिंक दिया है वह खुल नहीं रहा है,
आशीषजी यदि आपके पास ऐकरोबैट रीडर है तो ये खुलना चाहिए- राइट क्लिक कर सेव टार्गेट एज से सेव कर फिर पढ़ सकते हैं। आलेख बड़ा होने के कारण एक साथ नहीं दिया है।
पहले हिस्से को कुछ देर में पोस्ट करती हूँ।
जी हां अब खुल गया है, मैने राईट क्लिक के स्थान केवल डबल क्लिक किया था,
डाउनलोड कर लिया है जी। पहली फुरसत में पढ़कर आते हैं।
शुक्रिया
पढ़ लिया जी.अच्छा लगा.अच्छा किया कि आपने बता दिया कि आपने यह अप्रेल में लिखा था.
अत्यंत रोचक आलेख. जानकारी से भरा हुआ.
बीच बीच में अनेक ब्लोग से उठायी गयी कतरनों ने पढने का मज़ा दुगुना कर दिया.
जनसत्ता वाला लेख भी लगभग इसी समय लिखा गया होगा ( जिसे पढकर मैने ब्लौगिंग शुरू की थी).
धन्यवाद.
शानदार आलेख.
बधाई हो।
बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने!!
वाकई!!
बधाई!
बहुत अच्छा आलेख. मुझे विशेष रूप से प्रियंकर की टिप्पणी और ई-स्वामी का संस्मरण अच्छा लगा.
यदि आप इसे केवल पीडीएफ के बजाय टेक्स्ट भी देते तो बहुत अच्छा होता.
अच्छा आलेख..
बढिया आलेख है।जानकारी से परिपूर्ण।
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