Sunday, July 29, 2007

आवाजाही के मोर्चे पर तीनों एग्रीगेटर

यह सुखद है कि हिंदी के चिट्ठासंसार ने खुद बहु-एग्रीगेटर स्थिति में परिपक्‍वता के साथ ढालना शुरू कर दिया है। पिछले दिनों इसका प्रमाण प्रस्तुत करती कुछ घटनाएं दिखीं एक तो अहम घटना यह रही कि नारद, ब्‍लॉगवाणी व चिट्ठाजगत ने एक दूसरे का लिंक अपने मुखपृष्‍ठ पर दिया- अब उन लोगों के लिए जो एक से ज्‍यादा एग्रीगेटरों की सेवा लेते हैं ये काम आसान हो गया है। जैसा कि अरविंदजी का सर्वेक्षण बताता है कि 43 % चिट्ठापाठक दो या अधिक एग्रीगेटरों का इस्‍तेमाल करते हैं। यदि हम एग्रीगेटरों की तुलना सर्च इंजनों जैसे माध्‍यमों से करें तो स्‍पष्‍ट होता है कि इनकी आपसी प्रतियोगिता एक दूसरे के समर्थन की मांग करती है- अकसर सर्च इंजन ये सुविधा देते हैं कि आपके सर्च के लिए हमारी इंडेक्सिंग से यदि वांछनीय सामग्री न मिल रही हो तो आप अन्‍य सर्च इंजनों का इस्‍तेमाल कर सकते हैं- ये लीजिए लिंक। इसी क्रम में हिंदी के एग्रीगेटर भी एक दूसरे को समर्थन दे रहे हैं - यह परिपक्‍वता की निशानी है।


इसी संदर्भ में चंद और तथ्‍यात्‍मक बातें- जिन तीन एग्रीगेटरों की बात यहॉं की जा रही है उनके ट्रेफिक के आंकड़े भी हाल में हाथ लगे। नारद के तो सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हैं ही- यहॉं पर और ये यह कहते हैं-



दूसरी ओर चिटृठाजगत के आवाजाही आंकड़े भी विपुल ने हाल में उपलब्‍ध कराए



- ब्‍लागवाणी को अभी और भी कम समय हुआ है तथा इस अवधि के आंकडें उपलब्‍ध तो न थे पर हमने शोध के उद्देश्‍य से मैथिलीजी से मांगे तो उन्‍होंने जो कुछ भी उनके पास थे सब विस्‍तारपूर्वक हमारे पास भेज दिए हैं। शोधधर्म के चलते उन्‍हें पूरी तरह सार्वजनिक तो नहीं किया जा रहा है पर शोध से जो हमारी राय बन रही है उसे इन आंकड़ों पर भी विचार कर ही तैयार किया गया है।


सबसे पहले तो ये समझें कि नए एग्रीगेटर आने से नारद का ट्रेफिक कुछ कम तो हुआ है पर इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि नारद के ट्रेफिक को चिट्ठाजगत या ब्‍लागवाणी खा गए हैं- हॉं यह जरूर है कि अब नारद बहुत ही कम लोगों का एकमात्र या प्रेफर्ड एग्रीगेटर है (यह अरविंदजी के सर्वेक्षण से भी पता चलता है) पर तब भी कुल मिलाकर लोगों के फेरे एग्रीगेटरों पर बढे हैं- यदि सभी एग्रीगेटरों के दिनभर के औसतन यूनीक विजीटरों को जोड़ लिया जाए तो ये पहले के नारदीय ट्रेफिक से कहीं ज्‍यादा है।


आपसी तुलना करे तो चिट्ठाजगत (अनुमान) व ब्लॉगवाणी को तो नारद से ट्रेफिक मिल रहा है किंतु नारद को इनसे ट्रेफिक नहीं मिल रहा या कम मिल रहा है। यह भी रोचक है कि ट्रेफिक की दृष्टि से जल्‍द ही तीनों एग्रीगेटर समतुल्‍य स्थिति में आने वाले हैं पर पुराने लिंकों के वजूद में होने का लाभ नारद के पक्ष में है- टैक्‍नॉराटी पर तीनों की स्थिति से बात स्‍पष्‍ट होती है। विपुल का चिट्ठाजगत तेजी से 112 जगहों से आ रहा है तथा 46000 के लगभग रेंक पर है जबकि ब्‍लागवाणी संभवत किसी तकनीकी वजह से टैक्‍नारॉटी पर नजर नहीं आता जबकि नारद 148 की अथॉरिटी के साथ 33662 पर है जो किसी भी हिंदी चिट्ठे से ज्‍यादा है (निकटतम शायद रविजी हैं 40984 के साथ) जहॉं चिट्ठाजगत के 112 अथॉरिटी, नारद के 148 की तुलना में ज्‍यादा दूर नहीं दिखते वहीं यदि लिंकों की कुल संख्‍या पर विचार करें तो असल तस्‍वीर दिखाई देती है- नारद के 4915 लिंक जबकि चिट्ठाजगत के हैं केवल 1012 लिंक। मतलब यह कि अभी तो दोनों में जमीन असमान का अंतर है।


आसान भाषा में इस आंकड़ेवाजी से जो बात निकलकर आती है वह यह कि हिंदी चिट्ठासंसार नारद की जगह पर दूसरे एग्रीगेटरों को न देखकर सबको एक साथ देखने पर जोर दे रहा है। दूसरी बात यह कि माने न माने आपस में एक स्पर्धा है (और होनी चाहिए) पर अब तक तो स्‍वस्थ ही है। और हॉं नारद आज की स्‍िथति में तो 'न डाउन है न आऊट' पर साथ ही यह भी है कि पहले की 'लिंकित प्रापर्टी' के चलते अभी कुछ समय तक उसके शीर्ष पर बने रहने की ही संभावना दिखाई देती है किंतु नए चिट्ठों को शामिल कर सकने की उसकी क्षमता पर भी बहुत कुछ निर्भर करेगा।

आंकड़े उपलब्‍ध कराने व विश्‍लेषण में सहयोग के लिए मित्रो का आभार


Friday, July 20, 2007

नारद की गिरती आवाजाही थामना जरूरी है

नारद की आवाजाही पर हमें नजर रखनी पड़ती है, क्या करें काम ही ऐसा है बिना ये जाने कि कितने लोग आ जा रहे हैं, चिट्ठाकारी की दिशा का अनुमान करना कठिन है। इसलि जब एकाएक यह आवाजाही बढ़ी तब भी हमें बताने लायक बात लगी उसी तरह हमने ये भी दर्शाया कि विवाद काल में नारद आवाजाही बढ़ती है। अब जब एक से ज्‍यादा एग्रीगेटर मैदान में हैं- देबाशीष याद दिला चुके हैं कि पहले भी नारद का कोई एकाधिकार नहीं था- हालांकि पुख्‍ता आंकड़ों के अभाव में भी हमें लगता है कि नारद की लोकप्रियता इतनी अधिक हुआ करती थी कि अन्‍य की स्थिति बहुत मायने नहीं रखती थी। इतने अधिक 'थी' इसलिए इस्‍तेमाल कर रहे हैं क्‍योंकि चिट्ठों की संख्‍या में आए इस उफान (चिट्ठाजगत इस समय लगभग 800 चिट्ठों को शमिल कर रहा है जबकि हमारे साथ ही शोध प्रारंभ करने वाली सह शोधार्थी गौरी ने एक यथार्थपरक अनुमान लगाते हुए फरवरी मार्च में 60-'70 सक्रिय चिट्ठों का अनुमान प्रस्‍तुत किया था) के वावजूद नारद के ट्रेफिक में खासी कमी आई है। अगर आलोकजी की शब्‍दावली में कहें तो नई दुकानों से पुरानी दुकान की ग्राहकी पर असर हुआ है। अभी केवल शुरुआत है तथा नारद के विपरीत चिट्ठाजगतब्‍लॉगवाणी के आवाजाही आंकड़े सार्वजनिक नहीं है इसलिए भी अभी यह कहना कठिन है कि इन एग्रीगेटरों के ट्रेफिक की आपसी सहसंबद्धता क्‍या है। पर इतना तय है कि चिट्ठाजगत के सामने आने के आस पास ही ट्रेफिक का यह चार्ट दक्षिणोन्‍मुख हुआ है। नारद तक पहुँचने वाले यूनीक विजीटरों की संख्‍या का मई से अब तक का लेखा जोखा इस प्रकार है-





यूनीक विजीटरों के आंकड़ों को इसलिए लिया गया है क्‍योंकि संभवत् सर्फर प्रतिबद्धता का सबसे सटीक अनुमान इनसे ही मिलता है वैसे पेजलोड के आंकड़े भी इसी अनुपात में ही हैं। क्‍या नारद के बढ़ते कदमों में लगी ये लगाम के हिंदी चिट्ठाकारी के लिए कोई गंभीर संकेत हैं- हमारा अनुमान है कि नहीं और हॉं दोनों ही ठीक है। जैसा रविजी व देबाशीष दोनों ही बताया कि नए एग्रीगेटरों का आना कुल मिलाकर बेहतर ही है पर दिककत यह है कि यदि उनकी पेशकदमी का मतलब नारद के ट्रेफिक में कमी आना है तो ये संकेत भले नहीं कहे जा सकते क्‍योंकि इसका मतलब है कि कुल मिलाकार चिट्ठाकार आधार (ब्‍लॉगर बेस) कम है तथा वह सभी एग्रीगेटरों को ट्रेफिक देने में असमर्थ है, दूसरे शब्‍दों में पाई का आकार इतना नहीं बढ़ा है कि सबका पेट भर सके- हालांकि तब भी सब साथ साथ रह सकते हैं खासकर इसलिए कि अभी तक तीनों में से किसी के भी व्‍यवसायिक घोषित लक्ष्‍य नहीं हैं, इसलिए ट्रेफिक कम भी रहा तो भी शायद ये दुकान न समेटें। लेकिन नारद के रूतबे में कमी किसी भी हिंदी बेवसाइट या चिट्ठों के लिए एक बुरी खबर है। एक बात यह भी कि चिट्ठाजगत व बलॉगवाणी को अपना लायल्‍टी बेस बनाना नहीं पड़ा नारद के ही लायल ग्राहक उन्‍हें स्‍वमेव मिल गए हैं इससे वे कई कसालों से बच गए हैं।

आलोकजी ने अपने निवेश सलाह के पोर्टल पर बताया कि आईटी व इंटरनेटी कंपनियों की खासियत यह होती है कि उनके पास लंबी चौड़ी भौतिक संपदा यानि जमीन जायदाद नहीं होती कि वे अपने औसत निष्‍पादन के बाद भी सश्‍ाक्‍त मानी जाएं, उनकी प्रोपर्टी तो आभासी ही होती है यानि ....


मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की किसी भी कंपनी के पास न्यूनतम भौतिक संपत्ति होती है। जैसे किसी टैक्सटाइल कंपनी के पास जमीन होती है, प्लांट होता है। मशीनरी होती है। डूबती कंपनी को यह सब बेच-बाचकर भी मोटी रकम खऱीद सकती है।


दरअसल इंटरनेट बेहद आवारा नींव पर खड़ी इमारत होती है तथा इसके मनचले स्‍वभाव के कारण हर बेवसाइट को अपने ग्राहक लगातार बनाए रखने जद्दोजहद से गुजरना पड़ता है। कोई भी संस्‍था अपना कद भी यही मानकर चल रही होती है कि वह आपने वफादार ग्राहकों को तो कम से कम बनाकर रख ही पाएगी। अत: हमें इसे हिंदी चिट्ठाकारी के लिए अहम संकेत के रूप में देखना चाहिए।

Thursday, July 12, 2007

चोर दरवाजे: चोटी के हिंदी-ब्‍लॉग और उनके ब्‍लॉगरोल

ये अपने मूल शोध-प्रस्‍ताव में ही था कि हिंदी चिट्ठाकारों के लिंकन व्‍यवहार का विश्‍लेषण किया जाएगा। इरादा ये देखने का है कि कौन किसे लिंक करने में रुचि लेता है। लिंक केवल सामग्री की उपयोगिता पर ही निर्भर नहीं करता वरन चिट्ठाकार की रुचि-अरुचि का परिचायक भी होता है। आमतौर पर ब्‍लॉगरोल में पसंदीदा चिट्ठों को जगह देने की प्रवृत्ति होती है। पर एक समस्‍या है ब्‍लॉगर का ब्लॉग रोल अंतहीन नहीं हो सकता इसलिए सबको प्रसन्‍न नहीं किया जा सकता, कुछ को चुनना शेष को रिजेक्‍ट करने जैसा ही होता है जो नेता टाईप या सर्वप्रिय ब्‍लागरों को पसंद नहीं वे किसी को नाराज नहीं करना चाहते अत: वे लगभग सभीको या तो अपने रोल में जगह देते हैं (जैसे शास्‍त्रीजी) या फिर वे किसी को भी जगह नहीं देते (जैसे फुरसतिया, ईस्‍वामी)। हमने शुरुआती अध्‍ययन के लिए चिट्ठाजगत के सक्रियता क्रमांक से ऊपर के चंद ब्‍लॉगरों के बलॉग रोल को देखकर ये जानने की कोशिश की कि क्‍या वे एक-दूसरे को पसंद करते हैं ? परिणाम चौंकाने वाले हैं- इस तालिका को देखें ( बहुत मेहनत से बनाई है...क्लिक कर बड़ा करें)


x-मायने लिंक नहीं दिया, Y- मायने लिंक दिया गया

चिट्ठाकार हैं-


१फुरसतिया 2. ई-स्वामी 3. मेरा पन्ना 4. Raviratlami Ka Hindi Blog 5. उडन तश्तरी ....... 6. मोहल्ला 7. azdak 8. मसिजीवी 9.हिंदयुग्‍म 10. प्रत्यक्षा 11. जोगलिखी 12. कस्‍बा 13. रचनाकार 14. काकेश 15. ई-पंडित


तो स्थिति ये है कि हिंदी ब्लॉगिंग में फिल‍हाल रुचि का वैविध्‍य (एक दूसरे को कम पसंद करने के लिए इससे सम्‍मानजनक शब्‍द मिल नहीं पाया) इतना हो गया है कि शीर्ष पर टिके ब्‍लॉगर अक्‍सर अपने ही दूसरे ब्‍लॉग को तो रोल में रख रहे हैं किंतु साथी ब्‍लॉगरों को नहीं।


वैसे यहाँ यह भी विचारणीय है कि ब्‍लॉगरोल को लेकर जैसा आकर्षण व सतर्कता पहले दिखाई देता था अब नहीं है और बहुत से ब्‍लॉगर अपने ब्‍लॉगरोल हटाकर उनकी जगह विज्ञापनों को देने लगे हैं। हिंदी चिट्ठाकारी में विशिष्‍ट दो प्रवृत्तियॉं जरूर मुझे महत्वपूर्ण लगती हैं पहली है पत्रकार ब्‍लॉगरों द्वारा एक दूसरे का पुरजोर समर्थन लगभग प्रत्‍येक पत्रकार चिट्ठाकार ने एक-दूसरे को लिंकित कर रखा है, इससे सबको ट्रैफिक भी मिलता है और दरजा भी।


ऐसी ही बिरादरी युवा कवियों की भी है वे भी एक दूसरे को परस्‍पर लिंकित करने में विश्‍वास रखते हैं। ये अलग बात है कि जहॉं पत्रकारों को गैर पत्रकार भी अपने ब्‍लॉगरोल में रख रहे हैं वहीं कवियों को बस एक-दूसरे का ही सहारा है।


तो भाई लोग ये जो भाईचारा बहनापा है ये अक्‍सर पत्रकार का पत्रकार से है और कवि का कवि से- ऐसे में हम शोधार्थी बिरादरी को तव्‍वज्‍हो मिलने की कोई उम्‍मीद नहीं दिखती :(

Friday, July 6, 2007

कथादेश में इंटरनेट का मोहल्‍ला

कथादेश में अविनाश ने इस बार चिट्ठाकारी की भाषा के ताजा विवाद पर अपने विचार रखे हैं-

फेंस के दूसरे किनारे की रेत में लिथड़ी हिंदी
अविनाश
अक्सर हिंदी में साहित्यिक दुकानों की चर्चा होती है. जिनकी जितनी बड़ी दुकान, उसके गुण ग्राहक उतने ही ज्य़ादा. ऐसी ही एक दुकान में इन दिनों अभिधा, लक्षणा और व्यंजना के कारोबार को लेकर हिंदी में चर्चा का बाज़ार गर्म है. नया ज्ञानोदय के नवलेखन अंक, पार्ट वन और टू में युवा लेखकों को जिस अंगभीरता से प्रस्तुत किया गया है, वही ये बताने के लिए काफी है कि संपादक की मंशा और समझ का स्तर क्या है. ये विवाद हिंदी की पत्रिकाओं से अब तक अछूता है, लेकिन ब्लॉगिंग में इस पर खूब बहसें हुईं, हो रही हैं. कर्मेंदु का ज्ञानपीठ के मालिक के नाम पत्र और एक इंटरव्यू (जिसमें उन्होंने जोड़-तोड़ और जाती ज़िंदगियों में जिज्ञासा से भरी हिंदी की ८० के बाद की साहित्यिक बिरादरी पर निशाना साधा), और कुमार मुकुल के ज्ञानोदय की प्रस्तुति पर संक्षिप्त छिद्रान्वेषण आलेख ब्लॉग पर आते ही चर्चा और धमकियों और प्रतिक्रियाओं की गतिविधियां अचानक बढ़ गयीं. यानी जो बहस किन्हीं कारणों से काग़ज की कश्ती से किनारे कर दी गयी, वो इंटरनेटीय अनंत में अब भी तैर रही है. वह भी इतनी आसान पहुंच में, कि कोई भी हाथ उठा कर इन्हें अपनी मुट्ठी में पकड़ सकता है और उन्हें अपनी फूंक से फिर उड़ा भी सकता है.
इस तरह हिंदी के गलियारे में ब्लॉगिंग के बढ़ते हस्तक्षेप का आगे आने वाले दिनों में विस्तार ही होगा. ज़ाहिर है, ब्लॉगिंग अभिव्यक्ति की सबसे लोकतांत्रिक स्थिति होगी. ज़ाहिर है, मन का गुबार उन वर्जित शब्दों में भी यहां निकलने की गुंजाइश है, जिसकी वजह से अभिजात और भदेस के बीच हिंदी में झगड़े का वातावरण रहा है. हालांकि ब्लॉगिंग के बढ़ते (जं)जाल में दुकानें इंटरनेटीय अनंत में भी सज रही हैं. एक ऐसी ही दुकान का ज़िक्र फिलहाल करते हैं, जिसने एक मामूली से शब्द पर हिंदी का एक ब्लॉग प्रतिबंधित कर दिया.
नारद हिंदी का लोकप्रिय एग्रीगेटर है, जो हिंदी ब्लॉग्स के अपडेट्स अपने पन्ने पर फ्लैश करता है. ऐसे और भी पन्ने हैं, लेकिन नारद इसलिए लोकप्रिय है, क्योंकि इसकी सजावट सुखद है, और ये सामूहिक रूप से संचालित होता है, और सभी संचालक हिंदी सेवा के नाम पर नारद के लिए श्रमदान करने से पीछे नहीं हटते. यही वजह है कि नारद सिर्फ एक एग्रीगेटर नहीं है, एक समूह है, जो इंटरनेट पर हिंदी के उज्ज्वल भविष्य की कामना की वैचारिक धरातल पर किसी ब्लॉग को अपने पन्ने पर जगह देता है या नहीं देता है.
कहानी दिसंबर या जनवरी में एक हादसे से शुरू हुई, जब अभिषेक श्रीवास्तव नाम के युवा लेखक-पत्रकार के ब्लॉग (janpath.blogspot.com) को बैन किया गया. गालियों से भरी हुई बनारसी ज़बान का इस्तेमाल करने की वजह से. उस वक्त विरोध की आवाज़ें इसलिए भी नहीं उठी थीं, क्योंकि नारद में बहुसंख्यक जमात प्रतिबंध जैसे संगीन मामलों पर या तो नासमझ थे या फिर उन्हें लगता था कि समाज के परिष्कार के लिए प्रतिबंध एक अनिवार्य सामाजिक हरकत है. लेकिन इस बार नारद के लिए उस हादसे को दोहराना भारी पड़ा.
कहानी असगर वज़ाहत की थी, जो प्रतिरोध नाम के हिंदी ब्लॉग पर छपी- शाह आलम कैंप की रूहें. गुजरातों दंगों के इस मार्मिक विवरण पर नारद संचालकों में से एक संजय बेंगाणी ने टिप्पणी की- अच्छी कल्पना की उड़ान है. आप इसी प्रकार विषारोपण करते रहें, एक दिन ज़रूर ज़हर फैलेगा. यह एक सांप्रदायिक टिप्पणी थी, क्योंकि एक समुदाय विशेष की पीड़ा के बयान की प्रतिक्रिया में की गयी थी. इससे कई लोग तैश खाये, लेकिन राष्ट्रीय सहारा के लिए फ्रीलांसिग करने वाले पत्रकार राहुल कुछ ज्यादा ही उखड़ गये. उन्होंने अपने ब्लॉग बजार पर अवैध अतिक्रमण (bajaar1.blogspot.com) पर लिखा- बेंगाणी एक गंदा नैपकिन है. नारद को यह विशेषण नागवार गुज़रा. बजार पर बैन लगा दिया गया. इस बैन को लखनऊ, हिंदुस्तान में काम करने वाले पत्रकार नासिरुद्दीन (dhaiakhar.blogspot.com) ने तकनीक की सत्ता की तानाशाही कहा. विजेंद्र (मसिजीवी), प्रमोद सिंह (अज़दक), अभय तिवारी (निर्मल आनंद), प्रियंकर (समकाल), अफलातून (समाजवादी जन परिषद), इरफान (टूटी हुई बिखरी हुई), रियाज़ुल हक़ (हाशिया), प्रत्यक्षा (pratyaksha.blogspot.com) से लेकर लंदन में रहने वाले अनामदास (anamdasblog.blogspot.com) और कई अन्य ब्लॉगरों (चिट्ठाकारों) ने इस प्रतिबंध का विरोध किया, लेकिन तमाम लोगों की आवाज़ें अनसुनी कर दी गयी. यानी नारद ने साफ कर दिया कि असहमत लोगों का उनके समूह में कोई काम नहीं.
मोहल्ले पर हमने अपनी असहमति दर्ज की, 'नारद कुछ लोगों का है. ये तकनीक की दुनिया के सक्षम लोग हैं. इन्होंने हिंदी के लिए अपना कीमती वक्त होम किया. इसलिए, क्योंकि इन्हें हिंदी आती है. इन्हें वे प्रार्थनागीत आते हैं, जो मंगलवारी और शनिवारी मंदिर परिक्रमाओं के दरम्यान गाये जाते हैं. वे गीत भी, जो स्कूल की पहली घंटी शुरू होने के पहले कतार में खड़े होकर बच्चे अपनी अधमुंदी आंखों से गुनगुनाते-चिल्लाते हैं. कुछ कुछ नमस्ते सदा वत्सले जैसा गीत भी, जो इस देश से एक पूरी नस्ल को उखाड़ फेंकने की चर्चा शुरू करने के पहले गाया जाता है. ऐसी हज़ार-हज़ार धुनों में सीखी हुई इनकी हिंदी की पवित्रता पर मुझे कोई संदेह नहीं है. ये अपनी हिंदी की सेवा करते रहें, हम इनके यश गाते रहेंगे. मैं अपने लिए एक दूसरी हिंदी चुनना चाहता हूं. थोड़े शब्दों की पवित्र दुनिया चुनने के बजाय वे सारे शब्द अर्जित करना चाहूंगा, जो सभ्यता की फेंस नदी के उस किनारे की रेत में पड़े हैं. मैं मुहावरों की तरह प्रयोग में आने वाली गाली-मिश्रित-हिंदी में भी अभिव्यक्त होना चाहता हूं ताकि मेरे अंतर की स्वीकारोक्तियों का सच्चा मुज़ाहिरा हो सके. इसका एक उदाहरण है, तेरी भैण की... नैपकिन तो कुछ भी नहीं है.`
इस तरह कुछ और ब्लॉगरों ने भी नारद को अलविदा पत्र लिखा. नारद के सांप्रदायिक चरित्र के मद्देनज़र स्चेच्छा से इस एग्रीगेटर से अलग होने वालों की हमारी और हम जैसों की मंशा पर मसिजीवी ने पलटवार किया. कहा कि अगर वैचारिक असहमति, व्यावसायिक कारण, जानकारी के अभाव, आलस्य, जिद, राजनीति या किसी अन्य कारण से किसी चिट्ठाकार को यह लगता है कि उसे नारद की ज़रूरत नहीं है तो इससे स्वयमेव यह सिद्ध नहीं होता कि नारद या हिंदी चिट्ठाकारी को भी उस चिट्ठे की ज़रूरत नहीं है. हो सकता है कि इस बेरुखी के बाद फीड लिये जाने से चिट्ठाकार को नागवार गुज़रे, पर इस पक्ष को साफ समझ लिया जाए कि सार्वजनिक चिट्ठे की फीड किसी की बपौती नहीं है- खुद चिट्ठकार की भी नहीं. चिट्ठे पर क्या लिखा जाए, यह तो चिट्ठाकार ही तय करेगा, लेकिन यदि चिट्ठा सार्वजनिक है, तो उसे कौन पढ़े, इसे तय करने का अधिकार चिट्ठाकार को नहीं है. चिट्ठापाठक होने के नाते हर सार्वजनिक फीड पर सर्वजन का अधिकार है.
यानी सांप्रदायिकता से उठी बहस अभिव्यक्ति की निजता और सार्वजनिक(ता) की तरफ मुड़ गयी... और ये बहस अभी जारी है. नारद और प्रतिबंध मामले में ऊंट किस करवट बैठेगा- फिलहाल तय नहीं है. लेकिन हिंदी में सांप्रदायिक नारद के समानांतर और-और फीड एग्रीगेटर की मांग बढ़ी है, ये ज़रूर साफ हो गया है.
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