Thursday, April 26, 2007

साथी चिट्ठाकार पर एक नजर – प्रत्यक्षा --या कहूं कि प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या

साथी चिट्ठाकारों पर लिखना कोई आसान काम नहीं !सुनील दीपक जी पर लिखते हुए मैंने जाना ! फुरसतिया जी को आकर सुझाव देना पडा कि कम लिखा गया है शोध कार्य जरा मेहनत से किया जाए ! थोडी विवादी बयार भी चलने को हुई यूनुस भाई के रहमों करम से पर रवि जी ने संभाल लिया यह कहकर कि यह तो धर्म का काम काम है गीता या कुरान पढने के समान ! सो संतोष और सब तरफ सुकून पाकर लिखने बैठे ! इधर विवादों के घेरे में से समकाल की मसीहाई आवाज भी सुनाई दी कि बेकार के मामालों पर वक्त बेकार करने कि बजाए ---




लिखना चाहिए था घुघुती बासुती,प्रत्यक्षा,रत्ना,अन्तर्मन,रचना और नीलिमा जैसे
स्वरों पर जो दो मोर्चों पर लडते हुए भी इस हिंदी चिट्ठा संसार को नई भंगिमा दे रहे हैं.

तो हम भी सोचे कि एक एक करके इन साथियों पर लिखा जाए ! आज प्रत्यक्षा जी को चुना !
वैसे जब हम नए नए आए थे तो प्रत्यक्षा जी ने हमें अपने 5 शिकारों में लिस्टित किया था और हमने कहा कि मुजरिम हाजिर है प्रत्यक्षा जी ! खुद शिकार बनी प्रत्यक्षा जी ने अपने बारे में बताते हुए जो कहा हमने उसमें भी उनके चिट्ठाकार व्यक्तिव को देखने की कोशिश की-



“चौथी बात ..... कभी नहीं सोचा था कि चिट्ठा लिखूँगी । मैं अपने को एक बहुत प्रायवेट पर्सन समझती थी । आसानी से नहीं खुलने वाली । चिट्ठाकारी ने ये मुगालता अपने बारे में खत्म कर दिया । चिट्ठाकारी के माध्यम से अंतर्मुखी व्यक्तित्व के खुलने की बात को स्वीकार करते हुए वे बताती हैं कि यह संक्रामक रोग उन्हें किस कदर अजीज है और इससे मिलने वाला आनंद कैसा है - ” छूत की बीमारी एक बार जो लगी सो ऐसे ही छूटती नहीं..... तो बस हाजिर हैं हम भी
यहाँ.....इस हिन्दी चिट्ठों की दुनिया में लडखडाते से पहले कदम.......चिट्ठाकरों को पढ कर वही आनंद मिल रहा है जो एक ज़माने में अच्छी पत्रिकओं को पढ कर मिलता था......सो चिट्ठाकार बँधुओं...लिखते रहें, पढते रहें और ये दुआ कि ये
संख्या दिन दो गुनी रात चौगुनी बढती रहे.......”


प्रत्यक्षा के लिए..बाहर की बेडौल दुनिया का सही इलाज है रचनाकार के शब्द कटार सी तेज धार वाले विद्रोह के खून से रंगे वे शब्द जब बीन बजाने पर सांप की तरह फुंफकारते हुए पिटारी से बाहर आते हैं तब इन पर अंकुश लगा पाना किसी की मजाल नहीं- गौर फरमाएं-


आपके ख्याल में दुनिया बडी बेडौल है ? सही फरमाया आपने जनाब!
पर इसका
भी इलाज है मेरे पास..
और भी शब्द हैं न मेरे पास...
इन्हें भी देखते जाईये.......
इन्हे देखिये..ये खून से रंगे शब्द हैं..विद्रोह के......ये तेज़ धार कटार हैं….
संभलिये..वरना चीर कर रख देंगे....बडी घात लगाकर पकडा है इन्हे...कई दिन और कई रात लगे, साँस थामकर, जंगलों में, पहाडों पर , घाटियों में, शहरों में पीछा
करके ,पकड में आये हैं..पर अब देखें मेरे काबू में हैं.....
बीन बजाऊँगा और ये साँप की तरह झूमकर बाहर आ जायेंगे..ये हैं बहुत
खतरनाक, एक बार बाहर आ गये तो वापस अंदर डालना बहुत मुश्किल है”


चिट्ठाकारी की अदा से भीतर का ताप- आक्रोश बाहर चिट्ठों के रूप में क्या सकारात्मक
रूप ले लेता है यह तो उनके चिट्ठों को पढकर बखूबी जाना जा सकता है ! यहां की दुनिया में इन शब्दों को सच्चे सहृदय भी तो मिलते हैं—


जब कद्रदान मिलें, तब इन्हे बाहर निकालूँगा



प्रत्यक्षा का सच्चा सीधा चिट्ठाकार व्यक्तित्व उनके उन चिट्ठों से सामने आता है जिनमें वे रसोई में बने छुट्टी के दिन के नाश्ते से लेकर गुड के बनने की मिठास तक पर लिखती हैं ! यही कारणे है कि उन्हें चिट्ठा जगत के विवादों में भी पडना नहीं भाता वे तो तब परेशान होती हैं जब


पर मुझे
इनसे परेशानी नही
परेशानी तो तब होती है
जब सही, गलत हो जाता है
सफेद काला हो जाता है

परेशानी में उन्हें इरफान की कहानी लिखनी पडती है !




“ अब आप बतायें ये और हम , हिन्दू हैं या मुसलमान , या सिर्फ इंसान ।
दोस्ती , भाईचारा ,देशप्रेम . किसमें एक दूसरे से ज्यादा और कम । और क्यों साबित करना पडे । जैसे एक नदी बहती”

प्रत्यक्षा का साहित्य प्रेमी मन उनकी हर पोस्ट में झलकता है गुलजार, खैयाम कमलेश्वर आदि के जिक्र से लेकर कविताओं की बानगी वे देती चलती हैं ! खुद भी कवि हृदया हैं पर इस जगह कविता की ज्यादा दरकार न पाकर वे कहती हैं



“ अब देखिये इलजाम लगता है हम पर कि ऐसी कवितायें लिखते हैं जिसे कोई समझता नहीं . अरे भाई, कविताई का यही तो जन्मसिद्ध अधिकार है. जब सब समझ जायें तो फिर कविता क्या हुई. पर यहाँ तो भाई लोगों के लेख में भी ऐसी बातें घुसपैठियों की तरह सेंध मार रही है”


जहां कविता है वहां गणित कहां , समीकरण कहां , आंकडे कहां वहां तो होगी विशुद्ध भावना और आस्था--


मुझे बचपन से गणित समझ नहीं आता
जब छोटी थी तब भी नहीं
और आज जब
बड़ी हो गई हूँ तब भी नहीं

उनके चिट्ठाकार का यह आस्थावादी मन ही है जो स्त्री-विमर्श के मुठभेडी मुद्दों पर भी उनका सौम्य रूप ही सामने लाता है ! उनके रसोई विवाद में दिए तर्कों की साफगोई की तारीफ करते हुए मसिजीवी कहते हैं -


..... इतना कहने के बाद भी व्‍यक्तिगत तौर पर मुझे प्रत्‍यक्षा के इस तर्क की सराहना करनी पड़ेगी कि एक पुरुष किसी स्‍त्री पसंद को शोषण की किस्‍म बताए यह (मेल शोवेनिज्‍म़) अनुचित है”


देखिए प्रत्यक्षा अपने प्रोफाइल में अपने बारे में क्या लिखती हैं--



कई बार कल्पनायें पँख पसारती हैं.....शब्द जो टँगे हैं हवाओं में, आ जाते
हैं गिरफ्त में....कोई आकार, कोई रंग ले लेते हैं खुद बखुद.... और ..कोई रेशमी सपना फिसल जाता है आँखों के भीतर....अचानक , ऐसे ही शब्दों और सुरों की दुनिया खींचती है...रंगों का आकर्षण बेचैन करता है....


प्रत्यक्षा की चिट्ठाकार दुनिया में रंग है, समर्पण है , ललक है , सुकून है , भाव हैं बाहर का कुरूप जगत जहां उनकी आस्थावादी चिट्ठाकार लेखनी का संस्पर्श पाकर ताजा और रंगमय दिखने लगता है ! यहां जटिलता नहीं सादगी है , शोर नहीं मंथरता है, चौंध नहीं सौम्यता है! ओर हॉं ढेर सारा अतीतमोह यानि नास्‍तॉल्जिया है।
तो यह हैं प्रत्यक्षा जी हमारी नजर से ! जब हिंदी साहित्य का आधा इतिहास लिखा जा रहा है तो क्यों न हम भी हिंदी चिट्ठा जगत का आधा इतिहास दर्ज कर दें! ऎसे ही और रूपों में !



Monday, April 23, 2007

मार दिया जाए या छोड दिया जाए बोल तेरे साथ क्या सुलूक किया जाए

हिंदी पट्टी में हलचल मचनी थी सो मच ही गई है ! हिंदी के बडे -बडे चिंतक अब अपने- अपने पाले डिसाइड करने में लग गयॆ हैं ! यह पाला - चिंतन उपजा है हाल में ही हिंदी- ब्लॉगिंग को लेकर जालजगत के बाहर हो रही सरगर्मियों की वजह से ! मीडिया जगत , साहित्य जगत , के सभी विद्द्वानों ने अपने- अपने कानों की सफाई कर ली है ताकि वे यहां उठते किसी भी स्वर को मिस न कर दें और ये अदाज लगाने से कहीं चूक न जाए कि अब किस मोड पे जाते हैं ये हिंदी बलॉगिंग की दिशा में उठे कदम ! जमाल भाई साहब के स्वरों में तू तकवाद तो दिखा ही दिया गया है ! शायद वे अपने खयालात में कुछ बदलाव लाने के बारे में सोचने लगे हों ! इधर कल हिंदी के प्रसिद्ध मीडिया विचारक सुधीश पचौरी जी ने भी हिंदी ब्लॉग जगत का नोटिस लेते हुए एक लेख हिंदुस्तान टाएम्स में लिखा है ! उन्होंने इस जगत के लेखन के तारीफी पुल बांधते हुए हिंदी के बडे लिक़्खाडों को बताया है कि कैसे यह लेखन नोटिस लेने योग्य है !

यह तो साफ है कि आज कई लिक्खाडों के जमावडॆ घात लगाए देख रहे हैं कि कहां जा रहे हैं ये चंद सिरफिरे, जुनूनी , बकबकिए ! क्या कर लेना चाहते हैं ये सब ! पहले अंधेरे में ये सुधी जन तीर चलाते थे अब तस्वीर साफ होती जान पड रही है सो समझदार दूरदर्शी लोग साथ आकर भी खडे होने लगेंगे ! किंतु कहीं ऎसा न हो कि ब्लॉग जगत पर राय खडी करने , उसका भविष्य तय करने का काम वे लोग करे रहे हों जो मुख्यधारा के नियंत्रक हैं और चिट्ठाकारी की आत्मा से जुडाव रखने वाले चिट्ठाकार इससे नाखबर रहें ! दूसरी बात यह कि इस विधा में जो खूबियां हैं उनमें अनंत संभावनाएं निहित हैं और पहले से स्थापित जगत से इसकी भिडंत होनी भी तय है ! इस भिडंत में और चाहे जो हो , पर यह न हो कि चिट्ठाकारी से उसका चेहरा छीन लिया जाए और कोई और बताय कि आप देखिए आप ऎसे दिखते हैं!

Sunday, April 22, 2007

साथी चिट्ठाकारों पर एक नजर- सुनील दीपक


काफी इंतजार के बाद शॉंति की आहट चिट्ठाजगत में सुनाई दे रही है। गनीमत है। हमें जो काम करना है वह बिध्‍नआशंका देता है पर करना तो है ही। शोध एक निर्मम कार्य है। हम पिछले कुछ दिनों से चिट्ठाजगत में इधर उधर की खाक छानते रहे हैं- इधर उधर यानि इस प्रोफाइल उस प्रोफाइल, इस पोस्‍ट उस पोस्‍ट। पर आप मानेंगे कि हमारी भी सीमाएं हैं- समय की भी और सामर्थ्‍य की भी। हमें साथी चिट्ठाकारों पर टिप्‍पणी करनी है। इधर दो लोगों ने यह काम किया है। एक तो अविनाश ने अपने माफीनामे में जीतू, फुरसतिया, मसिजीवी और जगदीश के चिट्ठाई व्‍यक्तित्‍व पर टिप्‍पणी की है। दूसरी और दूसरी ओर चौपटस्‍वामी ने विवाद की अविनाशप्रियता में इंस्‍क्राइब से लेकर फुरसतिया, जीतू, रवि समेत सब की यहॉं तक कि सृजन के चिट्ठाई व्‍यक्तित्‍व पर अपनी राय दी है। मुझे फिलहाल विवाद पर तो कुछ नहीं कहना है पर इतना तय है कि अलग अलग चिट्ठाकार जिन अलग अलग चिट्ठाई व्‍यक्तित्‍व के स्‍वामी हैं वह अनिवार्यत: वही नहीं है जिसकी घोषणा वे अपनी प्रोफाइल में करते हैं। आज चंद चिट्ठाकारों पर विचार किया जा रहा है। किंतु पहले एक डिस्‍क्‍लेमर-

यह चिट्ठाकारों की चिट्ठाई शख्सियत का आख्‍यान है, यानि वे अपने बारे में क्‍या राय रखते हैं (प्रोफाइल व खुद की पोस्‍टें), अन्‍य उनके विषय में क्‍या राय रखते हैं (टिप्‍पणियॉं व अन्‍य लोगों की पोस्‍टें), व्‍यक्तित्‍व के अन्‍य अभिव्‍यक्‍त पक्ष जिनमें उनके द्वारा चुने विषय, शैली अआदि पक्षों पर विचार किया गया है। शोध की शैली पुन: नैरेटिव विश्‍लेषण की ही है। अत: इसमें एक सीमा के बाद व्‍यक्तिनिष्‍ठता आने का जोखिम होता है, भले ही हमने बाकायदा इस व्‍यक्तिनिष्‍ठता को सीमित रखने का प्रशिक्षण लिया हुंआ है। इस शख्सियत आख्‍यान को समूचे व्‍यक्तित्‍व पर लागू न किया जाए- कोई चिट्ठाकार अपनी जाति जिंदगी में कैसा इंसान है इसका विश्‍लेषण करने में मेरी रूचि नहीं है। दूसरी बात यह कि ये काम शुद्धत: शोध के लिए किया जा रहा है- शोध की अंतिम रपट में यह कैसे जुड़ेगा यह समय रहते बताया जाएगा। सभी लोगों का विश्‍लेषण यहॉं संभव नहीं यह कार्य क्रमश: है।

आज सुनीलजी की बात करें (निर्विवाद से शुरू करना ही बेहतर है, यूँ भी सुनील हमारे प्रिय ब्‍लॉगर हैं)


सुनील जाहिर है सबसे लोकप्रिय चिट्ठाकार हैं। उनकी प्रोफाइल बेहद संक्षिप्‍त है उसमें यदि आज के तरकश के साक्षात्‍कार को जोड़ लिया जाए तो उनके व्‍यक्तित्‍व की जो छाप बनती है व‍ह है- सुनील एक संवेदनशील व संतुलित व्‍यक्तित्‍व के स्‍वामी हैं। उनकी लेखनी में यह संवेदनशीलता सहज ही जाहिर होती है। उनकी अवलोकन क्षमता गजब की है। बहुभाषिक व बहुसांस्‍कृतिक अनुभवों के कारण वे सहज ही सबसे परिपक्‍व हिंदी चिट्ठाकार हैं। इस परिपक्‍वता को वे बोझ नहीं बनने देते इसलिए वे किसी किस्‍म का अग्निशमन दस्‍ता नहीं परिचालित करते, और ये कार्य कहीं कम परिपक्‍वता के साथ जीतू और अनूप आदि को करना पड़ता है। सुनील की चिट्ठाकारी को सबसे अधिक व्‍याख्‍यायित करते उनके शब्‍द हैं-


मेरे विचार से चिट्ठे लिखने वाले और पढ़ने वालों में मुझ जैसे मिले जुले लोगों
की, जिन्हें अपनी पहचान बदलने से उसे खो देने का डर लगता है, बहुतायत है. हिंदी में
चिट्ठा लिख कर जैसे अपने देश की, अपनी भाषा की खूँट से रस्सी बँध जाती है अपने पाँव में. कभी खो जाने का डर लगे कि अपनी पहचान से बहुत दूर आ गये हम, तो उस रस्सी को छू कर दिल को दिलासा दे देते हैं कि हाँ खोये नहीं, मालूम है हमें कि हम कौन हैं.


अपनी चिट्ठाकारी के भविष्‍य पर सुनीलजी ने मेरे टैग-प्रश्‍नों के उत्‍तर में कहा था-



मेरी चिट्ठाकारी का भविष्य शायद कुछ विशेष नहीं है, जब तक लिखने के लिए मन में कोई बात रहेगी, लिखता रहूँगा, पर मेरे विचार में जैसा है वैसा ही चलता रहेगा. मेरे लिए
चिट्ठाकारी मन में आयी बातों को व्यक्त करने का माध्यम है, जिन्हें आम जीवन में व्यक्त नहीं कर पाता, और साथ ही विदेश में रह कर हिंदी से जुड़े रहने का माध्यम है.


अन्‍य चिट्ठाकारों की राय प्रथम दृष्‍ट्या प्रभावित होने वाली है, हालांकि कुछ गहरे पैठने पर एक किस्‍म का ‘पहुँची चीज़ हैं भई..’ वाला भाव भी दिखाई देता है। प्रमोद के बीस साल बाद उपन्‍यास में उनका चित्रण कुछ ऐसा ही संकेत करता है-


‘अबकी सुनील दीपक दिखे. पुलिसवाले उनके पीछे नहीं साथ थे. बहस हो रही थी. दीपक बाबू इटैलियन में झींक रहे थे, पुलिसवाले उन्‍हें मराठी में समझा पाने में असफल होने के
बाद अब चायनीज़ की गंदगी पर उतर आये थे.पता चला हरामख़ोरों ने भले आदमी का कैमरा जब्‍त कर लिया है. सुनील दीपक ने चीखकर कहा रवीश कुमार ऐसे नहीं छूटेगा, वे मामला एमनेस्‍टी इंटरनेशनल तक लेकर जायें’


कुल मिलाकर सुनील की चिट्ठाई शख्सियत अपनी हिंदी (सिर्फ भाषा नहीं सम्‍यक हिंदी) जड़ों से ऊर्जा लेती है। वे विवादों से दूर रहना पसंद करते हैं- चिट्ठाई अहम के संघर्षों से भी। बाकी कुछ आप जोड़ना चाहें तो बताएं।

(अन्‍य चिट्ठाकारों पर बाद में)

Saturday, April 14, 2007

...कल जनसत्‍ता जरूर लेना

क्‍यों ? इसलिए कि कल जनसत्‍ता के रविवारीय में हिंदी चिट्ठों पर आवरण कथा (कवर स्‍टोरी) छप रही है। हिंदी ब्‍लॉगिंग पर अब तक छुटपुट खबर छपी थीं लेकिन कवर स्‍टोरी, वो तो अभी तक शायद भारतीय अंग्रेजी ब्‍लॉगिंग पर भी नही आई। और हॉं हमारी अपनी चिट्ठाकार बहन नोटपैड वाली सुजाता ने लिखी है। ड्राफ्ट देखने का अवसर मिला था- कल देखिएगा हमें तो सब समेटती अच्‍छी सी स्‍टोरी लगी।<

लिखी इबारत है-

जनसत्‍ता रविवारी 15 अप्रैल 2007
अंतर्जाल पर देसी चिट्ठे- इंटरनेट पर हिंदी चिट्ठाकारिता की निराली और बेबाक दुनिया में झांक रही हैं सुजाता तेवतिया

आवरण कथा जनसत्‍ता में छप रही है जो हिंदी क्षेत्र में गंभीर अखबार माना जाता है। यानि ठहरकर नोटिस लेना होगा चिट्ठाकारी से बाहर के लोगों को भी। आप भी कोशिश करें कि सिर्फ आप ही न पढें औरों को भी पढवाएं।

Friday, April 6, 2007

......क्‍योंकि असली खुजली दिमाग में ही होती है


भागीदार अवलोकन पद्धति यानि पार्टीसिपैंट आब्‍जर्वेशन मैथड से शोध करने में एक दिक्‍कत यह रहती है कि कब आप आब्‍जर्वर कम और पार्टीसिपैंट ज्‍यादा हो जाओ पता ही न‍हीं चलता। हमने शुरू से ही इस खतरे की ही खातिर जब इस पद्धति को अपनाया तो अपना शोध ब्‍लॉग अलग बनाया था ताकि घालमेल जितना हो सके कम हो। चिट्ठाकारी को आजकल तो काफी नजदीक से देख रही हूँ इसीलिए आज की चिट्ठाकारी पर तटस्‍थ दृष्टि से विचार में कठिनाई है इसलिए तय पाया कि अतीत की चिट्ठाकारी पर एक नजर डाली जाए और नैरेटिव्‍स इकट्ठे करें और जाने कि इन बैठे-ठालों खाते पीते घरबारी लोगों कि जिंदगी में आखिर कौन सी कमी थी कि ये चिट्ठाकारी करने आ बैठे। आज तो चलो पीठ में खुजली होती है इसलिए लिखते हैं (और खुजली सिर्फ पीठ में नहीं होती) लेकिन तब तो अपनी पीठ भी खुद खुजानी पड़ती थी फिर क्‍यों नहीं आराम से अपनी जिंदगी जीते रहे ? तो आज का विचारणीय विषय है हिंदी चिट्ठाकार हिंदी में चिट्ठाकारी क्‍यों करते हैं (थे)

हिंदी की पहली पोस्‍ट से मेरा पहला परिचय मसिजीवी के शोध आलेख से हुआ था। पोस्‍ट है-


"नमस्ते।
क्या आप हिन्दी देख पा रहे हैं?
यदि नहीं, तो यहाँ
देखें।

आलोक द्वारा प्रकाशित।




इस आलेख में मसिजीवी ने इस पोस्‍ट की तुलना नील आर्मस्‍ट्रांग के उस प्रसिद्ध ‘छोटे से’ कदम से की है जो मानवता के लिए एक ‘ज्‍याईंट लीप’ था। उसके बाद की काफी कहानी अलग अलग जगहों पर दर्ज है, आजकल जितेंद्र यह कहानी यहाँ, यहाँ और यहाँ सुना रहे हैं। (सराए वाले रविकांत ये ना कहें कि हमें तो पका पकाया शोध प्रबंध तैयार मिल रहा है)
खैर इस पहले कदम के बाद जो जो लोग इस यात्रा में मिलते गए यानि आलोक, पद्मजा, देवाशीष चक्रवर्ती, जीतेंद्र चौधरी, ईस्वामी , पंकज नरूला, रमण कौल, रवि रतलामी, अतुल अरोरा, अनूप शुक्ला, बेंगाणी बंधु आदि वे आखिर क्‍यों लिख रहे थे, हिंदी में क्‍यों। मतलब पीठ छोडिए उनके हाथों में खुजली क्‍यों हो रही थी। जबाव पूरा तो हमारे पास नहीं है लेकिन अनुमान वही है जो मेरे शोध का विषय है- ये सब एक जाति से हैं मुलायम-माया के सरोकार की जाति नहीं वरन हिंदी जाति। हिंदी जाति का मन आपस में लिंकित होता हे इसी भाषा से। और ये सब इसे ब्‍लॉगित कर इनके लिंकित मन को ही अभिव्‍यक्ति दे रहे थे।
तभी तो-
जब जितेंद्र मिडिल ईस्‍ट पहुँचते हैं-

हिन्दी मे लिखने के लिये सबके अपने अपने कारण होंगे, क्योंकि हम सभी
अंग्रेजी मे भी लिखने की क्षमता रखते है, फ़िर भी हमने हिन्दी ही चुनी। मेरे तो
निम्नलिखित कारण है:
हिन्दुस्तान को छोड़ते समय लगा था, शायद हिन्दी पीछे छूट
गयी और अब तो बस अंग्रेजी से ही गुजारा चलाना होगा....


ओर बेबाकी और सूक्ष्‍मता से सुनील दीपक कह उठते हैं-



मेरे विचार से चिट्ठे लिखने वाले और पढ़ने वालों में मुझ जैसे मिले जुले
लोगों की, जिन्हें अपनी पहचान बदलने से उसे खो देने का डर लगता है, बहुतायत है. हिंदी में चिट्ठा लिख कर जैसे अपने देश की, अपनी भाषा की खूँट से रस्सी बँध जाती है अपने पाँव में. कभी खो जाने का डर लगे कि अपनी पहचान से बहुत दूर आ गये हम, तो उस रस्सी को छू कर दिल को दिलासा दे देते हैं कि हाँ खोये नहीं, मालूम है हमें कि हम कौन हैं.


वैसे जितेंद्र को इस सवाल के पूछे जाने से ही मानो आपत्ति हैं (कितनी प्‍यारी आपत्ति है)



अमां यार क्यों ना लिखे, पढे हिन्दी मे है, सारी ज़िन्दगी हिन्दी सुनकर गुजारी है। हँसे, गाए,रोये हिन्दी मे है, गुस्से मे लोगो को गालियां हिन्दी मे दी है, बास पर बड़्बड़ाये हिन्दी मे है। हिन्दी गीत, हिन्दी फ़िल्मे देख देखकर समय काटा है, क्यों ना लिखे हिन्दी?


वैसे विदेश में बसे चिट्ठाकार इस खुजली को कहीं ज्‍यादा शिद्दत से महसूस करते हैं। मसलन वरुण ने लिखा-



सच यही है कि मेरे हिन्दी ब्लॉग की शुरुआत के पीछे कौतूहल ही मुख्य भावना थी (मेरे स्कूल में भी एक भावना थी, वो फिर कभी). हिन्दिनी के टूल ने मुझे बहुत प्रभावित किया था और मेरा हिन्दी ब्लॉग एक किस्म का geek's show off ही था. पर फिर मैंने महसूस किया कि हिन्दी को मैं किस कदर "मिस" कर रहा था


हम देश में रह रहे हिंदीजीवी, हिंदीखोर, हिंदी प्रेमी इसे उतनी शिद्दत से महसूस नहीं करते क्‍योंकि ‘मिस’ नहीं करते। उनके लिए ये मेरी हिंदी जिंदाबाद का नारा नहीं है वे तो चिट्ठा लिखते हैं क्‍योंकि बस लिखते हैं, मसलन मसिजीवी कहते हैं -
मैं चिट्ठा अव्वल तो इसलिए लिखता हूँ कि मुझे चिट्ठा लिखने की शराब की
तरह लत पड़ी हुई है.मैं चिट्ठा न लिखूं तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने हैं या मैंने गुसल नहीं किया या मैंने शराब नहीं पी.मैं चिट्ठा नहीं लिखता, हकीकत यह है कि चिट्ठा मुझे लिखता है. मैं बहुत कम पढ़ा लिखा आदमी. यूँ तो मैने किताबें लिखी हैं, लेकिन मुझे कभी कभी हैरत होती है कि यह कौन है जिसने इस कदर अच्छे चिट्ठे लिखे हैं, जिन पर आए दिन विवाद चलते रहते हैं.


तो मित्रो आप भी सोचो और बताओ कि किसने कहॉं कहॉं बता रखा है कि वे हिंदी में चिट्ठाकारी क्‍यों करते हैं। और क्‍यों नहीं आप ही सोचकर बताते हैं कि आप हिंदी में चिट्ठाकारी क्‍योंकर करते हैं?