हिंदी चिट्ठाकारी पर कथादेश में लिखे जा रहे अविनाश के मासिक स्तंभ की तीसरी किस्त हाजिर है।
इंटरनेट का मोहल्ला
बुरी हिंदी की अच्छी चर्चा-चिंता करते ब्लॉग
अविनाश
हिंदी की चिंता करते हुए सुधीश पचौरी जब अनउलटनीय जैसे भाब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं, तो भाषा के शास्त्रीय संस्कारों वाले हमारे दोस्तों को लगता है कि इस तरह का प्रयोग एक ऐसे ज़लज़ले की तरह है, जो हमारी भाषा को खत़्म कर देगा। वहीं कुछ लोग हिंदी में समंदर पार के लोकप्रिय और सहज शब्दों की आवाजाही की वकालत करते हैं। कहते हैं, अंग्रेज़ी इसलिए फैल रही है, क्योंकि उसकी शब्द सामर्थ्य फैल रही है। उदाहरण के तौर पर ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी की बात बताते हैं। कहते हैं कि हर संस्करण में दूसरी भाशाओं के कुछ-एक शब्द जुड़ जाते हैं। यह किसी भी भाषा के अमीर होने का राज़ है कि उसकी खिड़कियां खुली है। अंग्रेज़ी के संदर्भ में इस बात का हामी होने के बावजूद हमें अंग्रेज़ी के फैलने की ज्यादा वज़ह उसके साम्राज्य का फैलना लगता है।
बहरहाल, शब्द ज़रूरी हैं और हिंदी में शब्द कम हो रहे हैं। यही वजह है कि इस भाषा में रचे जाने वाले साहित्य का असर उसके समाज पर नहीं है। किताबें कम बिकती है और सरकारों को कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कोई क्या लिख रहा है। इसके बावजूद कि हर साल कुछ स्वायत्त सरकारी संस्थानों की तरफ से हिंदी के मेधावी लोगों को पुरस्कार मिलते हैं और बाकी मेधावी लेखकों को पुरस्कार पायी किताब की सामाजिक ज़रूरत से ज्यादा ईर्ष्या भाव से मुठभेड़ करनी पड़ती है। ऐसी हिंदी में किसी बड़े लेखक के साहित्य के अधिकांश भाग को कूड़ा कहने पर नामवर सिंह फंस गये हैं। वे फंस इसलिए गये, क्योंकि उन्होंने ऐसी हिंदी में लिखने से ज्यादा बोलना ज़रूरी समझा। अगर बोलने की तादाद में लिखा होता, तो वे ऐसे बयान से पहले अपनी तरफ देख गये होते और तब बनारस की अदालत का मूर्ख न्यायाधीश उन्हें सम्मन नहीं भेज पाता।
खैर, हिंदी जैसी है, उसे वैसी ही रहने दिये जाने की तरफदारी अनामदास नहीं कर रहे। वे यूएसए में रहते हैं। उनका असली नाम क्या है, किसी को नहीं मालूम। किसी को... मतलब... इंटरनेट पर हिंदी में सक्रिय उन तमाम ब्लॉगरों को, जो अनामदास के लेखन के कायल हैं। उनके ब्लॉग का पता है: http://anamdasblog.blogspot । वे लिखते हैं,
'आप उतने ही शब्द जानते हैं, जितनी आपने दुनिया देखी है। शब्द भंडार और अनुभव संसार बिल्कुल समानुपाती होते हैं।` इस इंट्रो के साथ वे बताते हैं कि अगर आप ये नहीं जानते, तो आपने ये नहीं किया और वो नहीं जानते तो आपने वो नहीं किया। इस तरह वे लिखते हैं, 'करनी, साबल, खंती, गैंता, रंदा, बरमा जैसे शब्द अगर आपको नहीं मालूम, इसका मतलब है कि आपके घर में मज़दूरों और बढ़ई ने कभी काम नहीं किया या फिर वे क्या करते हैं, क्यों करते हैं, कैसे करते हैं, इसमें आपकी दिलचस्पी नहीं रही।`
ब्लॉग लेखन में सहूलियत ये है कि इसमें सृजन की पैदाइश के चंद मिनटों बाद ही लेखक से सीधे संवाद संभव है। हमने टिप्पणी की, 'आपकी बात सटीक है। शब्दों को लेकर हमारी साकांक्षता कैसी है, रही है- से ही हमारा शब्द संसार बीघा दर बीघा बढ़ता है। लेकिन आप सोचिए, उन किरायेदारों के बच्चों के पास कैसे शब्द आएंगे, जिनकी अपनी कोई ज़मीन, कोई कस्बा, कोई शहर न हो। मकान मालिक को घर में कुछ नया बनवाना होता है, तो घर खाली करने के लिए कह देता है। इस तरह बढ़ई की भाषा से हम अनजान रहते हैं। मकान मालिक कहेगा, मछली नहीं खाना है, तो मछली बाज़ार के शोरगुल में छिपा संगीत और मछलियों की किस्मों से हमारा रिश्ता सिमटता जाएगा। इस तरह जो इस देश में किरायेदार होने के लिए अभिशप्त हैं, उन्हें अपनी भाषा को लेकर जो कुंठा है, और अगर वे कुंठाएं कुछ शब्दों में ही बाहर आती हैं, तो क्या हम उन्हें मूर्ख कहेंगे?`
इस पर प्रमोद सिंह ने अपने ब्लॉग (http://azdak.blogspot.com) पर अच्छी हिंदी की दूसरी किस्त में लिखा, 'आप किराये के घरों में रहे हों या पिता-परिवार के रोज़गार के चक्कर में अजाने/अपनाये प्रदेशों में, आपकी भाषाई संस्थापना को वह ज़रा ऐड़ा-बेड़ा तो कर ही डालता है। विस्थापन और बेगानेपन में शाब्दिक संस्कार की वह वैसी नींव नहीं डालता, जो आपको तनी रीढ़ के साथ चाक-चौबंद दुरुस्त खड़ा करे। मगर साथ ही यह भी सही है कि इस अजनबीपन के अनजाने लोक में नये अनुभवों (शब्दों) की खिड़की भी खुलती है। अब यह आपको तय करने की बात है कि ये नई खिड़कियां आपकी (मानक) भाषाई हवेली में खुलेंगी या नहीं। ऐसी नयी हवाओं का वहां स्वागत होगा या वे दुरदुराई जाएंगी।`
हिंदी की पत्रकारीय ज़मीन पर ये विमर्श एकतरफा हो रहा है। सुधीश पचौरी को उनके लिखे पर प्रशंसा या लानत-मलामत से भरी पातियों की संख्या यकीनन नगण्य होगी। हिंदी थिसॉरस बना कर अरविंद कुमार रातोंरात जाने ज़रूर गये, लेकिन तमाम इंटरव्यू में वे इस सवाल से यकीनन बोर हो गये होंगे कि इस काम को करने में आपको कितने दिन लगे या इतने बड़े काम को आपने अंजाम कैसे दिया। अगर इनका काम वेब स्पेस के जरिये जारी होता, तो ब्लॉगिंग वाले सुधीश पचौरी से सवाल कर सकते हैं कि आप जिन नवीन शब्दों के साथ अपनी हिंदी मांज रहे हैं, उनके स्रोत क्या हैं। क्या वे स्रोत हिंदी के आम जन हैं, या वे जनविमुख पत्रिकाएं, जो महंगी दुकानों में पन्नी वाली ज़िल्द में मिलती हैं! मुझे लगता है कि अभी वेब स्पेस में ज्यादा लोकतांत्रिक तरीके से विमर्श को अंजाम दिया जा रहा है। चाहे वह हिंदी की बात हो या हिंदी समाज की बात हो। यही वजह है कि हिंदी के जिन पूर्व परिचितों के पास कंप्यूटर और इंटरनेट की सहूलियत आ रही है, वे ब्लॉगिंग शुरू कर रहे हैं। पागलदास कविता से मशहूर हुए बोधिसत्व (http://vinay-patrika.blogspot), समकालीन जनमत की संपादकीय टीम के सक्रिय सदस्य चंद्रभूषण (http://pahalu.blogspot.com) और इरफान (http://tooteehueebikhreehuee.blogspot) और अर्थशास्त्र और व्यंग्य को समान रूप से साधने वाले आलोक पुराणिक (http://puranikalok.blogspot) इन दिनों ब्लॉग पर हर रोज़ कुछ न कुछ लिख रहे हैं। हम कह सकते हैं कि इस नये हथियार का स्वीकार हिंदी 'मन` के लिए ज़रूरी है, और जिस तरह से हिंदी के अखब़ार और पत्रिकाएं ब्लॉगिंग का ज़िक्र कर रही हैं, ये रोज़ाना इस्तेमाल की चीज़ हो जाएगी।
http://mohalla.blogspot.com
Monday, May 28, 2007
बुरी हिंदी की अच्छी चर्चा-चिंता करते ब्लॉग
Posted by Neelima at 3:24 PM
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9 comments:
तब बनारस की अदालत का" मूर्ख न्यायाधीश" उन्हें सम्मन नहीं भेज पाता।
"वाह वाह कोई है तो जिसे मुहल्ले के धृत करमो से इतनी सदभावना है वाह वाह" नारद समूह के छिपे हुये सिपहसालारो धिक्कार है तुम पर मुहल्ले मे ताकत नही रही तो अब तुम गालिया चिपकाओगे अविनाश से लिखवा कर
अपनी अपनी ढपली अपने अपने राग।वाह! मक्के की रोटी सरसो का साग।
नीलिमा जी;
आपके चिठ्ठों की टिप्पणियों में बेनामों की विष्टा के अलावा कोई भी नामधारी टिप्पणी क्यों नहीं है?
क्योंकि "तब बनारस की अदालत का" मूर्ख न्यायाधीश" उन्हें सम्मन नहीं भेज पाता।" आपके चिठ्ठे की गरिमा के अनुकूल नहीं है.
मैं नामवर जी के प्रति धारा 153a के अंतर्गत मुकदमे का समर्थन नहीं कर रहा हूं पर क्या एसे मुकदमे करने का अधिकार क्या सिर्फ लाल ब्रिगेड को है?
मेरा तो काम ही गलत सलत का विरोध करना है, अन्यथा न लें
धुरविरोधीजी व बेनामजी,
यह लेख कथादेश में प्रकाशित लेख की अविकल प्रस्तुति ही है, इन लेखों को यहॉं लगातार प्रस्तुत किया जा रहा है क्योंकि ये इस चिट्ठे के उद्देश्य यानि चिट्ठाकारी पर शोध के अनुरूप है। मैं यथा संभव निकटता से चिट्ठाकारी को समझने की चेष्ठा कर रही हूँ किंतु मुझे कथादेश के लेखों में किसी किस्म की धृतकर्म भावना नहीं दिखाई दी है...
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अविनाश के लेख इस चिट्ठे पर क्यों प्रकाशित किए जा रहे हैं यह इस श्रंखला के आरंभ में ही बता दिया गया था।
निश्चित रूप से आप सॉंप को दूध् पिलाने का काम कर रही है, आपकी मोहल्ला परस्तगी आपको महगी पढ़ सकती है।
महाशक्ति जी;
आपके अविनाश एवं मोहल्ले से मतभेद हो सकते हैं, पर सांप/दूध जैसे वचन? "मोहल्ला परस्तगी आपको महगी पढ़ सकती है।" ये तो धमकी सी लग रही है भाई.
अविनाश से आपके थोड़े से विचार भले ही नहीं मिलते हों. (मेरे तो ढेर सारे नहीं मिलते) पर वे सब भी अपने विचारों के प्रति उतने ही निष्ठावान हैं जितने आप और हम.
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजायश रहे
कल अगर हम दोस्त बन जायें तो शर्मिन्दा न हों
अविनाश के लिखने-समझाने की जो कमी है वे उसे सनसनाहट से पूरा करने की कोशिश करते हैं। न्यायाधीश को मूर्ख कहे बगैर भी लेख लिखा जा सकता है। हालांकि एक पेज में आदमी कितना लिखेगा लेकिन पिछले लेखों और इस लेख को भी देखकर अनाम पाठक की टिप्पणी- अपनी ढपली अपना राग बात सही लगती है। आपको साधुवाद कि आप ये लेख हमें यहां पढ़वा देती हैं।
आपको कभी मेरी बातों से लगा है कि मेरी अविनाश जी के साथ को दुश्मनी है। जिनसे मैने आज तक सम्पर्क ही नही किया, न ही कभी उनके ब्लाग पर कभी कोई टिप्पणी की है पता नही कहॉं से आभास हो गया कि उनसे मेरा मतभेद।
जहॉं तक मैने टिप्पणी की है लेख को लेकर न की किसी व्यक्ति को लेकर, लेख की ऐसे वाक्य थे जो निश्चित रूप से नीलिमा जी के शोध करते करते उनके लिये शोध के कई और विषय दे सकता है।
मैने तो सिर्फ आगाह किया था कि अपने ब्लाग पर दूसरों के लेखों को जगह देना ठीक नही है क्योकि भले ही लेख आपका नही है किन्तु आपके ब्लाग पर होने से लिखने वाले से ज्यादा आप दोषी होगीं।
रही बात धमकी की तो मै कौन हूँ धमकी देने वाला, मेरा सुझाव था शायद थोड़ा कटु था। अच्छी बातें कटु लगती भी है क्योकि-
हितं मनोहारि दुर्लभं वच:।
Acha likha aapne
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