कथादेश में इंटरनेट के मोहल्ले की अगली किस्त हाजिर है।
इंटरनेट का मोहल्ला
भाषा में भदेस का जयघोष
हिंदुस्तान या किसी भी मुल्क के समाज में अछूत कौन होते हैं? जिन्हें सलीके से उठने-बैठने की ट्रेनिंग नहीं होती और जिन्हें परंपरा से मिले हुए पिछड़ेपन की वजह से मुख्यधारा में कोई बैठने नहीं देना चाहता। जिनके बोलने से अभिजातों की तहज़ीब का रेशा नज़र नहीं आता। जिन्हें जैसे रहना होता है, वैसे रहते हैं और जिन्हें ज़मीन पर थोड़ी देर सो लेने के लिए साफ या एक पूरी चादर की कभी कोई ज़रूरत नहीं होती। हिंदुस्तान की आज़ादी से पहले अछूतोद्धार की पहली घटना के बाद आज भी राजस्थान या उड़ीसा के किसी मंदिर में अछूत-प्रवेश जैसे आंदोलनों का समाचार कभी-कभी मिलता रहता है- लेकिन ऐसे समाचारों से अलग दूसरे मोर्चों पर भी अछूत अलग से नज़र आते हैं।
अंग्रेज़ी बोलने वाला अंग्रेज़ी नहीं बोलने वालों को अछूत समझता है। दिल्ली की हिंदी बोलने वाला यूपी-बिहार की हिंदी बोलने वालों को अछूत समझता है। लोकबोलियों में ऊंची जाति की जो संवाद परंपरा है, उसमें नीची जाति के बोलने के तरीक़ों की हंसी उड़ायी जाती है। और ये सब सिर्फ लोकाचारों तक सीमित नहीं है- अभिव्यक्ति की दुनिया में भी ये छुआछूत साफ़ साफ़ नज़र आता है। किसी को धूमिल की भाषा पर एतराज़ रहा है, तो कहीं राही मासूम रज़ा की किताब को टेक्स्ट बुक में शामिल होने पर बवाल होता रहा है। कहीं विद्यापति को वयस्कों का कवि घोषित किया जाता रहा है, तो कोई जमात राजेंद्र यादव के हंस की होली जलाता रहा है। लेकिन तमाम एतराज़ और छूआछूत के बाद भी नागरिकता और अभिव्यक्ति की जंग जारी है।
हिंदी ब्लॉगिंग में पिछले दिनों एक ऐसे ब्लॉग का आना हुआ, जिसकी भाषा कुछ कुछ बनारस में होली के मौक़ों पर निकलने वाली एडल्ट बुलेटिन का स्वाद देती है। अगर ये एक आदमी का ब्लॉग होता, तो फिर भी गऩीमत थी। लेकिन ये एक सामूहिक ब्लॉग के रूप में सामने आया। यानी इसके ऑथर पहले ही दिन से एक नहीं, एक दर्जन थे। अब इनकी तादाद पचास से ज्य़ादा है। ये सब के सब पत्रकार हैं। इनमें से ज्य़ादातर मेरठ, कानपुर और नोएडा के अखब़ारी पत्रकार हैं। एकाध टेलीविज़न के लोग भी शामिल हैं। ब्लॉग का नाम है, भड़ास (http://bhadas.blogspot.com)। और जैसा कि नाम से ज़ाहिर होता है, ये मन की भड़ास निकालने वालों का मंच है। अगर आपकी पृष्ठभूमि भदेस है, तो भड़ास गालियों के ज़रिये भी निकलेगी- सो यहां गालियां भी पूरे वर्णों और शब्दों में निकलती हैं। हिंदी कहानियों में प्रयोग होने वाले 'भैण डॉट डॉट डॉट` की तरह नहीं। और यही बात ब्लॉगिंग के दूसरे दिग्गजों के एतराज़ को मुखर करता रहा है।
नारद एग्रीगेटर इसके अपडेट्स नहीं दिखाता। चिट्ठाजगत और ब्लॉगवाणी पर इसके अपडेट्स आते हैं। लेकिन कुछ पवित्रतावादी ब्लॉगर्स ने, जहां तक मुझे सूचना है, ब्लॉगवाणी को यह खत़ लिख कर भेजा कि आपके एग्रीगेटर पर कुछ अश्लील और भद्दे अपडेट्स आते हैं, कृपा कर हमारे ब्लॉग की फीड अपने एग्रीगेटर से हटा दें। ब्लॉगवाणी वालों ने इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार किया। यानी यह क़दम हिंदी ब्लॉगिंग में भाषाई वैविध्य के स्वीकार का क़दम है- और जिन्हें यह स्वीकार नहीं, उनके लिए ब्लॉगिंग का कोई मतलब भी नहीं। वे ब्लॉगिंग के भीतर जातीय महासभाएं बना रहे हैं और छूआछूत के नये मानक गढ़ रहे हैं।
हिंदी ब्लॉगिंग पर शोध करने वाली नीलिमा ने पिछले दिनों इन्हें अच्छी लताड़ लगायी। अपने ब्लॉग वाद संवाद (http://vadsamvad.blogspot.com) पर नीलिमा ने लिखा, आपकी गंधाती पुलक से कहीं बेहतर है, उनकी भड़ास। यह उन्वान था, जिसके मजमून की शुरुआत कुछ यूं थी, भड़ास हिंदी ब्लॉग जगत के लिए चुनौती रहा है, जिसे नारद युग में तो केवल नज़रअंदाज़ कर ही काम चला लेने के प्रवृत्ति रही, पर जैसे ही नारद युग का अवसान हुआ, भड़ास की उपेक्षा करना असंभव हो गया। करने वाले अब भी अभिनय करते हैं, पर हिंदी ब्लॉगिंग पर नज़र रखने वाले जानते हैं कि भड़ास का उदय तो नारद के पतन से भी ज्य़ादा नाटकीय है। इतने कम समय में भड़ास के सदस्यों की ही संख्या ५३ है। भड़ास अपनी प्रकृति से ही आंतरिक का सामने आ जाना है- जो दबा है उसका बाहर आना। भड़ास हर किसी की होती है, पर बाहर हर कोई नहीं उगल पाता, इसके लिए साहस चाहिए होता है। भड़ास का बाहर आना केवल व्यक्ति के लिए ही साहस का काम नहीं है, वरन पब्लिक स्फेयर के लिए भी साहस की बात है कि वह लोगों की भड़ास का सामना कर सके, क्योंकि भड़ास साधुवाद का एंटीथीसिस है- हम भी वाह तुम भी वाह वाह नहीं है यह। हम भी कूड़ा तुम भी कूड़ा है यह।
यानी हिंदी ब्लॉगिंग पर अछूतोद्धार की इस पहली घटना का जितना स्वागत हुआ, उससे कहीं अधिक पुराने ब्लॉगियों ने इस घटना के रचाव के स्रोत पर ही संदेह कर डाला। ये जंग एक स्त्री के ज़रिये छेड़ा जाना उन्हें नागवार गुज़रा और उन्होंने आरोप लगाया कि यह किसी पुरुष भाषाशास्त्री की जंग है, जो शिखंडी की आड़ में वार करना चाहता है। नीलिमा ने इसका जवाब भी दिया, साफ है कि जिन संरचनाओं की हम देन हैं, उनका असर लाख प्रबुद्धता के बाद भी दिखाई दे जाता है!
पहली बार भड़ास की भाषा पर हुआ ये विमर्श भड़ास के मेंबरानों के लिए उत्साह का सबब था। उन्होंने अपने ब्लॉग पर सार्वजनिक रूप से ये बातचीत की कि नीलिमा को भड़ास का हेडमिस्ट्रेस बना दिया जाए। क्योंकि कभी कभी कोई पत्रकार भड़ास में अभिजातों की भाषा लेकर आ जाता है और गंभीर बातचीत छेड़ने की कोशिश करता है। ऐसे में भड़ास अपने मूल उद्देश्य से भटक जाता है। नीलिमा इस पर नज़र रखें और टोक दिया करें कि भई ऐसा क्यों हो रहा है! भड़ास की भाषा बिगड़ती क्यों जा रही है! शायद ये प्रस्ताव 'हंसी-हंसी की भड़ास` था और हवा में उड़ गया।
लेकिन, भड़ास की इस बानगी का संदेश सिर्फ इतना है कि ब्लॉगिंग के ज़रिये भाषा अब उन तमाम रूपों प्रकाशित हो रही है, जिनके दरवाज़े पर कभी दरबान बैठे होते थे। ब्लॉगिंग ने दरबानों की गर्दन पकड़ ली है, संपादकों को अंगूठा दिखा दिया है... और पवित्र मंत्र-ध्वनियों के बीच शोर मचाता हुआ आगे बढ़ रहा है।
6 comments:
अविनाश के लिखे का मैं कायल हूं, इसलिए नहीं कि भड़ास के बारे में लिखा, इसलिए कि वो चीजों को विजुअलाइज करते हैं। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि भड़ास की अनचाहे की गई शुरुआत अब एक बड़ी मुहिम का रूप धारण कर चुकी है। इस समय इस ब्लाग के 70 सदस्य हैं। अभी ये सिर्फ तीन महीने का आंकड़ा है। अगले नौ महीनों में कितने होंगे...इसकी कल्पना की जा सकती है। नीलिमा जी को इसलिए धन्यवाद क्योंकि उन्होंने भड़ास को लेकर अपने विचार व्यक्त किए। उम्मीद है आप लोगों की नजर हमेशा भड़ास पर रहेगी ताकि इसकी दशा-दिशा को समय-समय पर व्याख्यायित कर सकें।
यशवंत........
नीलिमा जी आप एक संवेदनशील महिला होकर ऐसे निचले स्तर के लेखकों की तारीफ़ कर रहीं है! यकीन नही होता, पिछले कुछ दिनों में जो घटित हो रहा है वो बडा ही अप्रत्याशित है और आप उस समर्थन में शामिल हो रहीं है जो नारी विरोधी है.
आप वाकई में धन्य हैं
क्रपया इनकी करतूतें तो देख लीजिये जिससे आप स्वयं अपनी स्थिति का पता लगा लेंगीं
इस लिंक पर क्लिक करके देखिये
http://bhadas.blogspot.com/2007/08/blog-post_1989.html
@ कमलेश,
यूँ अगर पूरे लेख की बात की जाए तो यह कथादेश में प्रकाशित अविनाश का कॉलम है जो हर मास दिया जाता है अत: उसी संदर्भ में इसे देखा जाए।
वैसे शोधार्थी हूँ और बलॉग जगत पर चल रही बहसों पर नजर रखने के बाकायदा पैसे मिलते हैं :) इसलिए पिछले दिनों की इस बहस को भी देखा था, बाकायदा हमारा नाम लेकर शीर्षक दिए गए थे यह भी देखा था- इसके बावजूद हमारी राय वही है कि अवधारणा के स्तर पर यानि सोच के स्तर पर भड़ास एक ईमानदार विचार है हॉं भाषा के स्तर पर उसमें दिक्कतें हैं जो हमारे लिए शुचितावादी उतनी नहीं हैं जितनी स्त्री-विमर्शात्मक हैं- हमने अपने वक्तव्यों में इसे कहा है- बाकी आप शुचितावादियों का भी एक लोकतांत्रिक स्पेस है जो उनसे नहीं छीना जा सकता।
आपने अपनी राय रखी इसके लिए शुक्रिया
भड़ास और नारद में ज्यादा अन्तर नहीं है. दोनों की भाषा अलग है लेकिन असहमति के लिए दोनों के पास कोई जगह नहीं है. नारद वाले माँ... ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करते हैं, भडास वाले करते हैं. इसके सिवा दोनों १ जैसे हैं, जिसकी बात उनको अच्छी नहीं लगती वो विरोधी है. भडास वालों के लिए वो नारद वाला है, और नारद वालों के लिए वो भडास वाला.
" वैसे शोधार्थी हूँ और बलॉग जगत पर चल रही बहसों पर नजर रखने के बाकायदा पैसे मिलते हैं "-कहाँ से मिलते हैं ?
Hello
Sir
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Regard
sushil Gangwar
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